उपनिषदों में बतलाया गया है- चित्तं चिद् विजानीयात् तकाररहितं यदा अर्थात् चित्त के 2 तकारों में से एक को हटा दिया गया तो वह चित् हो जाता है। तकार विषयाध्यास और चित् परमात्मा का स्वरुप है। विषयाध्यास रहित चित्त ही चित् हो जाता है। प्राणायाम से भी मन वश में हो जाता है। विचार के द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि दोषों का निवारण करने पर मन शांत हो जाता है। गुरु के चरण कमलों की भक्ति भी एक सर्वोत्तम उपाय है। दुर्जनों के संग का त्याग, सत्पुरुषों का संग, सद्ग्रंथों का स्वाध्याय, सात्विक भोजन,  भगवन नाम जप और कीर्तन यह सभी परलोक को सुधारने के उपाय हैं।

एक कथा है किसी व्यक्ति ने प्रेत का मंत्र जप कर उसको अपने वश में करना चाहा। उसके मंत्र जप के प्रभाव से प्रेत सामने आ गया और कहा- कि मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा। जो कहोगे करता रहूंगा। पर तुम्हें मुझे बराबर काम बतलाना पड़ेगा। यदि तुमने मुझे खाली छोड़ा तो मैं तुमको खा जाऊंगा।

प्रेत के कथनानुसार साधक उसको काम बताने लगा पर वह ऐसा विचित्र प्रेत था कि महीनों के काम को क्षण भर में कर देता था और सामने आकर कहता था कि दूसरा काम बताओ अन्यथा तुम्हें खा जाऊंगा।प्रेत का साधक घबराकर किसी महात्मा के पास गया और इस संकट से बचाने का आग्रह करने लगा तो उसने प्रेत को आज्ञा दी की जंगल से सबसे लंबा पेड़ काट कर लाओ। वह क्षण भर में लाकर खड़ा हो गया। दूसरी आज्ञा दी इसको छील कर चिकना करो तत्काल कर दिया। तीसरी आज्ञा दी इसे तेल में डालकर इसको तर कर दो। वह भी हो गया। फिर आज्ञा दी इस पर चढ़ो- और उतरो। चढ़ते-उतरते प्रेत शिथिल होकर बैठ गया। और साधक संकट मुक्त हो गया।

यह दृष्टांत है इसका संदेश यह है कि जीव ही साधक है। मन प्रेत है वह अपनी चंचलता से जीव की समस्या बन गया है। इसे श्वास प्रश्वास के खंभे में चढ़ने उतरने में लगा दिया जाए तो स्वयं ही शिथिल पढ़कर उछल कूद करना छोड़ देगा। शरीर में शिथिलता जैसे सोने पर आती है वैसे ही प्रेम में भी आती है भगवत्प्रेम से शिथिल होकर भी मन सबको छोड़ देता है।

वेदांत के अभ्यासी कहते हैं कि देहाभिमान से गलित हो जाने और परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर मन की समस्या ही समाप्त हो जाती है। उस अवस्था में सर्वत्र ब्रह्म के ही दर्शन होते हैं। तदतिरिक्त सबका बाध हो जाता है। अब कहां जायेगा?

कौवे को पिंजरे में बंद कर पानी के बीच समुद्र में लाकर छोड़ दिया गया। पिंजड़े से निकल कर कौवा उड़ा पर वह जिधर गया सर्वत्र समुद्र ही दिखाई पड़ा।अंत में  उसी जहाज में आकर बैठ गया। विषयों का स्फुरण या चिंतन ही मन का स्वरूप है,पर यहां तो विषय ब्रह्म से पृथक रहे ही नहीं। मन को जब समस्त देश, काल और वस्तु में सद् घन, चिद् घन, आनंद घन का दर्शन होने लगा तो अपना स्वरुप ही छोड़ दिया। अमना हो गया। और साधक के मन की समस्या का समाधान हो गया।