अब प्रश्न ये है कि संसार शत्रु से युद्ध कैसे करें? बड़ा ही कठिन है। संसार का जहर चढ़ता है। आपने सुना होगा।सांप और नेवले की लड़ाई होती है। नकुल और सर्प की जन्मजात शत्रुता होती है। नेवला जब सांप से लड़ता है तो सांप उस नेवले को काट खाता है और नेवले के शरीर में जहर चढ़ने लगता है। जब उसको पता लगता है कि मेरे शरीर में ज़हर चढ़ रहा है तो वो तत्काल जंगली जड़ी बूटियों का सेवन करने के लिए चला जाता है और सर्प के विष को नाश करने वाली जड़ी बूटियां सूंघकर निर्विष होकर फिर सर्प से लड़ता है।

सर्प क्रोध के कारण अपना फण उठाए खड़ा रहता है। तब-तक निर्विष होकर नेवला फिर से आ जाता है और सर्प से फिर युद्ध करता है। इस प्रकार बार-बार सर्प नेवले को काटता है और नेवला विष हीन हो जाता है। औषधि सेवन से नेवला सर्प पर विजय प्राप्त कर लेता है।

इसी प्रकार संसार ही सर्प है और काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर हिंसा यही इसके विष हैं। जब साधक के मन और साधना रूपी शरीर में ये ज़हर चढ़ने लग जाए तो जैसे नेवला जंगल में जाकर औषधि सेवन से निर्विष होकर लौटता है उसी प्रकार संसार का विष चढ़ने लगे तो साधक को तत्काल सत्संग में जाना चाहिए। और सत्संग रूपी जड़ी बूटियों का सेवन कर अपने मन को निर्विष बनाकरफिर संसार शत्रु से युद्ध करें तो एक दिन यह संसार हमसे पराजित हो जाएगा। अब यहां संसार शत्रु से युद्ध करने के लिए अस्त्र शस्त्र का वर्णन कर रहे हैं।

बिरति चर्म संतोष कृपाना। 

पहले तो वैराग्य की ढाल से संसार शत्रु के वार को रोको। ये संसार मनुष्य के ऊपर तभी प्रभाव डाल सकता है जब उसके मन में राग उत्पन्न होता है। राग के द्वारा ही हमारे मन मस्तिष्क पर प्रभाव डाल सकता है श्रीमद् भगवत गीता में एक श्लोक है कि

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ

अर्जुन! इन्द्रियों का इन्द्रियों में राग और द्वेष व्यवस्थित है। इन्द्रियों के समक्ष जब अनुकूल विषय आएंगे तब मन में राग होगा। और प्रतिकूल विषय होंगे तो द्वेष होगा ये नियम है। इसलिए राग द्वेष के वश में नहीं होना चाहिए। वो साधक के शत्रु हैं। एक और भी प्रश्न यहां पर उठा है भगवान कहते हैं कि-

सदृशं चेष्टते स्वस्याः, प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि, निग्रहःकिं करिष्यति।।

ज्ञानवान पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही चेष्टा करता है जैसे उसकी प्रकृति उसको प्रेरित करती है वैसी ही चेष्टा करता है। भले ही बहुत बड़ा ज्ञानवान हो। लेकिन ये प्रकृति, ये माया ज्ञानियों के चित्त को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।
ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती हि सा

वह देवी भगवती ज्ञानियों के चित्त को खींच कर बलात् मोह में डाल देती है। ठीक इसी का अनुवाद मानस में है-

जो ज्ञानिन्ह कर चित अपहरई

माया ज्ञानियों के चित्त को भी अपनी ओर खींच लेती है। और बलात् मोह में डाल देती है।अब प्रश्न ये उठता है कि प्रकृति के द्वारा प्रेरित होकर ही मनुष्य कर्म करता है- प्रकृतिं यान्ति भूतानि

इसका अर्थ ये हुआ कि प्रकृति जैसा कहती है मनुष्य वैसा ही करता है। तब तो साधना के लिए कोई अवकाश ही नहीं है। और शास्त्रों में जो विधि निषेध है ये भी व्यर्थ है। जब सब प्राणी प्रकृति के परतंत्र हैं। ज्ञानी भी प्रकृति का अतिक्रमण नहीं कर सकता तो ऐसी स्थिति में उससे ये क्यूं कहा जाए कि ये करो ये मत करो। कोई भी समझदार व्यक्ति जिसके पैर में बेड़ी हो उससे ये नहीं कह सकता कि दौड़ लगाओ। इसी प्रकार जब सभी मनुष्य प्रकृति के परतंत्र हैं। प्रकृति जैसा चाहती है वैसा ही कर्म प्राणी करता है और उसका निग्रह भी नहीं किया जा सकता तो फिर संसार में मोक्ष के लिए कोई भी प्रयत्न नहीं किया जा सकता। तो इसका समाधान ये है कि-

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे, रागद्वेषौ व्यवस्थितौ

इन्द्रियों का इन्द्रियों में राग और द्वेष व्यवस्थित है। इसका अभिप्राय ये है कि एक होता है मुख्य कारण और दूसरा होता है सहकारी कारण। जैसे घड़ा बनता है, उसका मुख्य कारण है मिट्टी। लेकिन पानी, हवा और अग्नि उसके सहकारी कारण हैं। केवल मिट्टी आपके पास हो, और जल न हो तो घड़ा नहीं बन सकता।तो मिट्टी से घड़ा बनने तक जल, वायु और अग्नि इन सबकी आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार प्रकृति मिट्टी है, राग और द्वेष सहकारी कारण है। राग और द्वेष नहीं होंगे तो प्रकृति हमारा कुछ नहीं कर सकती।

जैसे उदाहरण के लिए- सिंह की प्रकृति हिंसा करना है, हिंसक होना उसका स्वभाव है। उसके सामने जो भी प्राणी आता है वह उसको मार डालता है। लेकिन वही शेर अपने बच्चे को नहीं मारता। सिंहिनी और अधिक हिंसक होती है लेकिन वह भी अपने शिशु के प्रति हिंसक नहीं होती। इसका कारण क्या है? यदि हिंसा करना उसका स्वभाव होता तो वह अपने बच्चे को भी मार डालती लेकिन उसे नहीं मारती। इसका कारण यह है कि हिंसा उसकी प्रकृति तो है लेकिन सहकारी कारण जो द्वेष है वह दूसरे प्राणियों के प्रति है अपने पुत्रों के प्रति नहीं। इसी प्रकार राग और द्वेष जो इन्द्रियों के अपने अपने विषयों में हैं। अगर हम राग और द्वेष का विनाश कर दें तो प्रकृति को हम पराजित कर सकते हैं। उसके वश में होने से बच सकते हैं। इसलिए भगवान श्रीराम ने कहा कि- बिरति चर्म (चर्म का अर्थ ढाल)। कोई किसी के ऊपर तलवार चलाए, भाला और बरछी चलाए तो वो ढाल से रोकी जाती है।

संसार हमारे हृदय में राग उत्पन्न न कर पाए इसलिए वैराग्य की ढाल हमें सदा अपने पास रखना चाहिए। संसार से वैराग्य कैसे हो? राग का विरोधी वैराग्य है। वस्तुत: राग का विरोधी वैराग्य नहीं है। राग का विरोधी द्वेष है। जिस वस्तु में राग हो उससे उदासीनता ही वैराग्य है। किसी पदार्थ में हमारी प्रवृत्ति ही तब होती है जब हम उसके गुण देखते हैं और जब दुर्गुण दिखाई देते हैं तो उदासीनता आ जाती है। उदासीनता से ही चिंतन छूटता है। अपने किसी प्रेमी से द्वेष हो जाए तो जितना चिंतन प्रेम के समय होता है उससे अधिक चिन्तन वैर की स्थति में होता है। प्रेमी से जब द्वेष होता है तो। मन अपने आप हट जाता है। इसका नाम वैराग्य है। और यही ढाल है- बिरति चर्म संतोष कृपाना।