धर्म रथ के रथी की ढाल विरति है और संतोष ही कृपाण है। संसार ही शत्रु है। ये शत्रु काम,क्रोध, लोभ के द्वारा रथी को पराजित करना चाहता है। रथी अपनी रक्षा के लिए विरति की ढाल और संतोष की कृपाण हाथ में लिए है। मनुष्य को संतोष तभी हो सकता है जब उसका प्रारब्ध पर विश्वास हो। बिना प्रारब्ध पर विश्वास किए मनुष्य संतुष्ट नहीं हो सकता। और संतोष से ही लोभ का अंत होता है।

जिमि लोभहिं सोखइ सतोषा।

गोस्वामी जी कहते हैं कि संतोष लोभ का शोषण करता है। योग दर्शन में भी कहा गया है कि-

संतोषादनुत्तम सुख लाभ:

संतोष से प्राणी को अनुत्तम सुख की प्राप्ति होती है। अनुत्तम सुख क्या है? जिससे उत्तम और कुछ भी न हो, उसे "अनुत्तम सुख" कहते हैं और वही ब्रह्म सुख भी है। मानस के उत्तर कांड में श्री कागभुशुण्डि जी गरुण जी को समझाते हुए कहते हैं-

बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अछत सुख सपनेहुं नाहीं

बिना संतोष के मनुष्य की इच्छा का नाश नहीं हो सकता। और जब-तक  इच्छाएं विद्यमान हैं तब-तक स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता। और संतोष भी सहज होना चाहिए।

कोउ विश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु।

चलइ कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिअ।

सहज संतोष के बिना क्या किसी को विश्राम मिला है? जैसे जल के बिना नाव नहीं चल सकती है, उसी प्रकार सहज संतोष के बिना विश्राम नहीं मिल सकता। यहां संतोष के साथ सहज विशेषण लगने से ऐसा लगता है कि संतोष भी दो प्रकार का होता है एक होता है कृत्रिम संतोष, और दूसरा होता है सहज संतोष।

कृत्रिम संतोष उसे कहते हैं कि हम किसी वस्तु को पाने का प्रयत्न करते हैं जब वो नहीं मिली तो मन को समझाते हैं कि अब संतोष करो। परन्तु ऐसे में पूर्ण रूप से शान्ति नहीं मिलती, यदि उसको यह पता चल जाय कि

इच्छा पूरी हो सकती है तो पुनः वो उस ओर प्रवृत्त हो जाता है। लेकिन सहज संतोष मनुष्य के मन को बिल्कुल ही शान्त बना देता है।तो वो संतोष कैसे होता है? हमारे गुरुदेव भगवान कहते हैं कि जब-तक मनुष्य को परमेश्वर की उपलब्धि न हो जाए तब-तक सहज संतोष नहीं होता। सामान्य संतोष से उस अनुभूति की ओर बढ़ता है और उसके बाद सहज संतोष होता है तब प्राणी को विश्राम मिलता है। तो ये वैराग्य और संतोष ढाल और कृपाण है।

कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि प्रारब्ध कैसे बनता है और कैसे उसका क्षय होता है। तो इस सम्बंध में परम पूज्य गुरुदेव भगवान शंकराचार्य जी महाराज कहते हैं कि हमारे शास्त्रों में चार पुरुषार्थ बताए गए हैं। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष।इन चारों में दो पुरुषार्थ के अधीन हैं और दो प्रारब्ध के अधीन हैं।इस तरह से दोनों का विभाजन कर लेना चाहिए।अर्थ और काम प्रारब्ध के अधीन, धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ के अधीन हैं। धर्म प्रारब्ध से नहीं मिलता। धर्म के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए।

मोक्ष भी प्रारब्ध से नहीं होगा। इसके लिए भी आपको पुरुषार्थ करना होगा। परन्तु अर्थ और काम यदि आपके प्रारब्ध में नहीं है तो आप लाख प्रयत्न कर लें आपको नहीं मिलेगा। और आपके प्रारब्ध में है तो कोई लाख बाधा डाले फिर भी आपको मिल कर रहेगा।

एक महात्मा कह रहे थे कि एक बार यमराज बैकुंठ धाम में भगवान श्री मन्नारायण के दर्शन करने के लिए गए तो देखा कि वहां पर एक पक्षी बैठा हुआ था। यमराज ने उसे घूरकर देखा तो वह पक्षी डर गया। यमराज की दृष्टि पड़ गई, लगता है कि अब हमारी मृत्यु का समय निकट आ गया है। घबराए हुए पक्षी ने गरुण जी से निवेदन किया कि भगवन्! आज यम की क्रूर दृष्टि मुझ पर पड़ गई है। लगता है कि अब शीघ्र ही हमारी मृत्यु हो जाएगी, आप यमराज से हमारी रक्षा करें। गरुण जी ने कहा कि हम ऐसी जगह तुमको छिपा देंगे कि यमराज को पता ही नहीं चलेगा। और उसे अपनी पीठ पर बिठाकर सुमेरु पर्वत की एक गहन गुफा में पहुंचा दिए। दूसरे दिन फिर यमराज आए तो पक्षी को वहां न देखकर गरुण जी पूछा कि कल यहां एक पक्षी था आज नहीं दिख रहा है। तो गरुण जी ने कहा कि अब आपको उसका पता ही नहीं चलेगा। आप क्यूं पूछ रहे हैं उसको? तो यमराज ने कहा कि असल में उसकी मृत्यु सुमेरु पर्वत की एक गुफा में होने वाली थी और वो यहां बैठा था, इसकी मृत्यु वहां कैसे होगी। तो गरुण जी ने कहा अरे! हम तो उसको वहीं पहुंचा आए। इसको कहते हैं प्रारब्ध।

तुलसी जस भवितव्यता, तैसी मिलइ सहाइ।

आप न आवइ ताहि पहं, ताहि तो लइ जाइ।।

जैसा प्रारब्ध होता है, वैसा ही मनुष्य वहां पहुंच जाता है। ये प्रारब्ध की प्रबलता है। जिसको धन मिलना है वो अगर मिट्टी को भी छू ले तो सोना बन जाता है। गांवों में लोग खलिहान में अनाज रखते हैं। उसको उड़ाते हैं तो कोई प्रारब्ध वाले ऐसे होते हैं कि उनके सामने भूसा निकलता ही नहीं है अनाज ही अनाज निकलता है। तो खेत में काम करने वाले लोग कहते हैं कि बाबू! आप यहां से चले जाइए, पशुओं के लिए भी चारा चाहिए। आप तो अनाज ही अनाज गिरा रहे हैं। तो जिसके प्रारब्ध में धन रहता है उसको मिल कर रहता है जिसको नहीं है उसको नहीं मिलता। इसलिए प्रारब्ध पर विश्वास रखना चाहिए। और दूसरी बात यह है कि अगर दुःख आ जाता है तो भी घबराना नहीं चाहिए क्यूंकि संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसको सुख ही सुख मिलता है, दुःख नहीं मिलता। प्रारब्ध का क्षय भोगने से ही होता है।

प्रारब्धस्य तु भोगा क्षय:

एक कथा सुनी थी कि एक बार समर्थ रामदास के दर्शन करने के लिए शिवा जी महाराज गए। उस समय उनको ज्वर आया हुआ था। और वे ज्वर से कांप रहे थे। जब सुने कि शिवाजी महाराज आए हैं और कुछ आवश्यक परामर्श चाहते हैं तो उन्होंने अपने योग बल से अपना ज्वर अपने कम्बल को दे दिया। तो उनके स्थान पर कंबल कांपने लगा। और समर्थ रामदास जी ने शिवा जी से बात की। इसी बीच शिवाजी ने कंबल की ओर देखा तो पूछा कि महाराज ये कंबल कैसे हिल रहा है? तो बोले कि तुम्हारे आने के पहले मुझे ज्वर आ गया था। तुमसे बात करनी थी इसलिए थोड़ी देर के लिए ज्वर इसको दे रखा था। शिवाजी ने कहा कि जब आपमें इतनी शक्ति है कि आप ज्वर कंबल में पहुंचा सकते हैं तो आप उसको हटा ही क्यूं नहीं देते? उसको रखे क्यूं हैं? तो गुरु जी ने कहा कि प्रारब्ध का क्षय तो भोगने पर ही होता है। ये ज्वर जो आया है वो भोग कर ही समाप्त हो सकता है। भोग से यदि इसका क्षय नहीं होगा तो कभी नहीं होगा। इसका सामना तो करना ही पड़ेगा। इसलिए जीवन में जो भी सुख दुःख आए उसका स्वागत करना चाहिए। तो अर्थ और काम प्रारब्ध के अधीन तथा धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ के अधीन हैं। इसलिए संतोष ही परम धन है।

गो धन गज धन बाजि धन, और रतन धन खान।

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।

इसलिए- विरति चर्म संतोष कृपाना