उसने कहा -1
मैंने कहा -
पिंजरे का यह परिंदा कितना सुंदर है
इसे घर ले चलते हैं
उसने कहा-
अच्छा होगा अगर
पिंजरा खरीदकर
यहीं के यहीं पंछी को उड़ा दें
मैंने कहा-
फिर एक कुत्ता पाल लेते हैं
उसने कहा-
रहने दो,
गले में ज़ंजीर होना
किसी के लिए भी अच्छा नहीं
मैंने कहा-
तो चलो कछुआ या मछलियां
पाल लेते हैं
उसने कहा-
अभी समुंदर,नदी,तालाब
सूखे नहीं हैं,
तब तक उन्हें वहीं रहने दो
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो?
उसने कहा-
ये दुनिया जैसी थी
उसे वैसी ही रहने दो !
तुम्हारे बस का नहीं
नई दुनिया बसाना.
हां ! यह ज़रूर है कि
गुलामी की दुनिया में रहते हुए
मुझे ज़ंजीरें काटना आ गया है |
उसने कहा -2
मैंने कहा-
मैं सब जानता हूं
सब समझता हूं
मुझे सब पता है
उसने कहा-
मेरे ख़्याल में
तुम कुछ नहीं जानते
कुछ नहीं समझते
तुम्हें कुछ नहीं पता
मैंने कहा-
ठीक है
तो कुछ भी पूछो
उसने कहा-
तो बताओ
क्या-क्या दीखता है आसपास ?
मैंने कहा-
सब कुछ
सब कुछ
उसने कहा-
तुम्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता
उसने फिर कहा-
अच्छा बताओ
तुम्हें क्या-क्या सुनाई देता है ?
मैंने कहा-
सब कुछ
हां ! सब कुछ
वह हंसी और कहा-
तुम्हें तो कुछ सुनाई भी नहीं देता
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो
तुम्हें ऐसा क्या
दिखाई और सुनाई देता है
जो मेरे बस का नहीं
उसने कहा-
हमारे देखने-सुनने में
महसूस करना अक्सर छूट जाता है
तुम्हारी बातों में
ये बगीचा,
फूल-पत्ती,
तितलियां,झींगुर,चिड़िया,
पानी की बूंद,मिट्टी की महक,
आग की बात,चंदा-सूरज,तारे,
सितार का स्पर्श,
पीड़ा की मंद्र ध्वनियां,
इंद्रधनुष का ज़िक्र
वगैरह- वगैरह तो कहीं नहीं आते
तो मैं कैसे मान लूं
तुम्हें कुछ भी आता है
मैंने कहा-
अच्छा बाबा !
माना मुझे कुछ नहीं पता
कुछ नहीं आता
अब छोड़ो भी
उसने कहा-
बुद्धू महाशय !
अब घर चलो
देर हो रही है |
उसने कहा -3
मैंने कहा-
आजकल हर चीज़ की कीमत है
सब बिकाऊ है
उसने कहा-
ऐसा बिके हुए लोग बोलते हैं
तुम्हें यह कहते हुए
ध्यान रखना चाहिए
मैंने कहा-
सब कुछ तो बिक रहा है
मिट्टी,खाद,पानी,
दिल,गुर्दा,जिगर वगैरह-वगैरह
उसने कहा-
सब बिकाऊ नहीं हैं
मैं भी नहीं
हां !
तुम्हारी बात और है
मगर मैंने !
मैंने अपनी कीमत कभी नहीं लगाई
मैंने कहा-
तुम हर बात को काटती क्यों हो
उसने कहा-
मांएं जो जननी हैं
अब भी बची हैं
अनमोल क्या होता है
वे ही जानती हैं
तुम ख़रीददार हो,बाज़ार हो
सो यह भाषा बोल रहे हो
अच्छा है कि
मां ने तुम्हें नहीं सुना
वरना अफसोस होता उसे
कि मैंने तुम जैसे को चुना |
उसने कहा -4
उसने कहा
क्या तुमने नोटों को उड़ते देखा है ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही देख लिया करो
उसने कहा
उसने कहा
आज तुम्हारे सिर के ऊपर
कुछ रंग बिरंगी तितलियां
कुछ देर को ठहरीं थीं
क्या तुमने तितलियों को देखा ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही देख लिया करो
उसने कहा
उसने कहा
तुम्हारे विवेक ने आज तुम्हें
सड़क पर बाल-बाल बचाया
क्या तुम्हें भाग्य की जगह
बुद्धि पर यकीन आया ?
मैंने कहा- नहीं
तो कम से कम
सपने में ही
आईने में झांककर
खुद की लकीरें पढ़ लिया करो
उसने कहा
मैंने कहा
तुम हर बात को काटती क्यों हों
उसने कहा
तुम बाहर की दुनिया में-से
अपनी पहचान ढूंढ रहे हो
भटक रहे हो
जिसकी कोई ज़रूरत ही नहीं
खुद को खुद का खुद से
सर्टिफिकेट दो और
विजयी भव:|
उसने कहा -5
उसने कहा
यह लो !
यह नायाब नीली गेंद
ख़ास तुम्हारे लिए
मेरे बच्चे
जाओ खेलो
ख़ूब खेलो
गेंद के भीतर मैंने
पानी-हवा और
कई छोटे-बड़े जीवों का
संगीत भर दिया है
जो तुम्हारे जीवन को
लय और ताल देगा
यूं तुम सबके साथ
हमेशा खुश रहोगे
खेलोगे-कूदोगे-नाचोगे
इसीलिए है यह नायाब
ऐसी कोई एक नीली गेंद
स्वप्न में नहीं मिली थी
यह मेरे हाथ में थी
हम एक दूजे के लिए बने थे
मैं खेलता
खेलते-खेलते
इसके भीतर चला जाता
संगीत में रम जाता
इतना कि सो जाता
एक दिन हुआ यह कि
गेंद का नीलापन
कम होता दिखा
भीतर की हवा कम और गर्म
बहुत गर्म लगी
पानी मैला और बेचैन दिखा
संगीत की जगह
कर्कश आवाज़ों ने ले ली
शोर तांडव करता दिखा
गेंद किसी काम की न रही
मुझे उसकी याद आई
मैंने उससे कहा
मेरा खेल ख़त्म हुआ
ये लो तुम्हारी गेंद
जो अब नीली भी नहीं
और नहीं ठीक वैसी की वैसी
वह मुस्कराया
उसने कहा-कोई बात नहीं !
अब तुम बड़े हो गए हो
गेंद के नीलेपन तक ही
तुम्हारे जीवन का बचपन था
स्वर्ग जैसा
मगर अब
तुम्हारे निर्दोष और मासूम बच्चों को देने के लिए
मेरे पास कुछ भी नहीं
कोई गेंद भी नहीं !
कविता : राग तेलंग