मजहब कोई लौटा लें और उसकी जगह दे दे,
तहजीब सलीके की, इंसान करीने के
फिराक गोरखपुरी
दिल्ली में 10 नवंबर (10/11) को हुए बम धमाकों में तकरीबन 13 भारतीय नागरिक और एक आत्मघाती मारा गया। मरने वाले और मारने वाले दोनों ही हिन्दुस्तानी ही थे। तो फिर, वह हमवतन हमवतनों का हत्यारा क्यों बना? वह जैश-ए-मोहम्मद का सक्रिय कार्यकर्त्ता था या किसी अन्य आतंकवादी समूह का, यह सवाल बेमतलब है। हर विपरीत परिस्थिति इस बात के लिये हमें प्रेरित करती है कि हम आत्मावलोकन करें।
इस मसले पर भी हमें सोचना होगा कि दुनिया के सबसे सहनशील क्षेत्र और बौद्धिक तौर पर प्रखरता का प्रतीक रहे कश्मीर का एक युवा चिकित्सक, जिसका मूल कर्तव्य या कर्म लोगों की जान बचाना है, और इसकी उसने शपथ भी ली थी, कैसे एक हत्यारे में बदल गया? साथ ही यह भी गंभीर चिंता का विषय है कि वह ऐसा अकेला चिकित्सक नहीं है। तमाम अन्य चिकित्सक भी इस अमानवीय गतिविधि में शामिल हैं, जिसमें महिलाएं भी हैं। इस अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर तो खोजना ही पड़ेगा।
गौर करिये भारत में इस्लामी शासन की स्थापना सन 1192 ईस्वी में हो गई थी और तमाम उत्तार-चढाव के बावजूद आधे अधूरे रूप में सही सन 1857 ईस्वी तक यह कायम रहा। यानी करीब 665 साल। तमाम राजघराने आने जाते रहे। अंतत: बाबर ने सन 1526 में मुगल शासन स्थापित किया और महज चार वर्ष यानी सन 1530 तक ही राज कर पाया। यही दौर पहले सिख गुरु,गुरुनानक (सन 1469 से 1539 ई.) का भी है। इस्लामी शासन और इस्लाम दोनों का प्रभाव तब अपने चरम पर था। उसी दौर में गुरुनानक इस्लाम मानने वालों यानी मुसलमानों को परिभाषित करते हैं।
मुसलमानों के लिए उनके बताये तमाम गुणों में से दो इस प्रकार हैं,
“रब की रजाई रखे सिर ऊपर।
करता मने आपु गवावै।।“
अर्थात, रब की रजा वह शिरोधार्य करें, कर्ता को माने और अह्म का नाश कर दे।
दूसरा गुण और स्पष्टता से मुसलमान की परिभाषा सामने लाता है,
“तऊ नानक सरब जीआ मिहरमान।
होई त मुसलमान कहावे।।”
यानी, यदि वह सर्व जीवधारी पर कृपा करने वाला हो, तभी मुसलमान कहलाने का हक़दार है।
गौरतलब है गुरुनानक का सीधा टकराव बाबर और उसकी सेना में रहा है। परंतु नानक संत हैं। वे हिन्दू-मुसलमान दोनों के हैं। यह भारतीय संत परंपरा और संस्कृति का चमत्कार ही है कि उसको समझने और अपनाने वालों/वाली के लिए धार्मिक भेदभाव महत्वहीन है। और नानक जो गुण यानी सर्व जीवधारी पर कृपा करने वाला, सिर्फ मुसलमान ही नहीं सिख हिन्दू, ईसाई, जैन, बौद्य, यहुदी सभी हो सकते हैं। नानक की परिभाषा सभी पर लागू होती है।
नानक के ठीक 400 साल बाद जन्म लेने वाले महात्मा गांधी (नानक 1469 ईस्वी, गांधी 1869 ईस्वी) समझाते हैं, “निरंतर त्यागमय बनना चाहिए। आनंद उसके बाद आता है।" वे कहते हैं, "प्रेम-प्रदत्त न्याय का नाम त्याग और नियम प्रदत्त न्याय का नाम दण्ड है।” क्या भारत का शासन, प्रशासन और समाज नियम प्रदत्त न्याय से संचालित हो रहा है या उन पर आचरण कर रहा है? वर्तमान में जो आक्रामकता भारत में विद्यमान है उसमें नियम प्रदत्त न्याय की संकल्पना ही धुंधली पड़ती जा रही है। भारतीय संविधान को तो जैसे “अछूत” ही बनाने के प्रयास जारी हैं।
उपरोक्त संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में यदि दिल्ली बम कांड को देखें तो बहुत सी बातें हमारे सामने आती हैं। जैसे जब आई एस आई एस का जिहादी आधिपत्य मध्यपूर्व एशिया पर स्थापित सा हो चला था, तब भारत के किसी भी राज्य जिनमें जम्मू-कश्मीर भी शामिल हैं, का कोई युवा उस संगठन में नहीं गया। दूसरी बात यह है कि इतना पढ़ा-लिखा और आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग इस बुराई की चपेट में कैसे आ गया। ये सब भारत को सबसे कठिन प्रतियोगिताओं में से एक उत्तीर्ण कर चिकित्सक बने हैं। ये कोई झोलाछाप डाक्टर नहीं है। दूसरी बात यह कि जम्मू-कश्मीर भारत के मानव संसाधन सूचकांक में काफी ऊपर आता है।
यहीं पर महात्मा गांधी की एक और बात पर गौर करना होगा। वे कहते हैं, “आप प्राचीन विचारों को मानते हैं। उसी तरह मैं भी मानता हूँ। फिर भी हमारे बीच भेद है, क्योंकि आप प्राचीन वहमों को मानते हैं और मैं नहीं मानता। इतना ही नहीं बल्कि उन्हें मानना पाप गिनता हूँ।” आप हम सब पृथ्वी को विश्वगाँव कहते हैं और स्वयं को संकीर्णता से ऊपर बता रहे हैं, जबकि वास्तव में हम इसका उलट ही कर रहे हैं। अब तो हम ही तय करने लगे हैं कि हमारे पडौस में या मोहल्लों में कौन रहेगा। अमुक धर्म का है तो मकान नहीं देंगे। अमुक जाति का है तो पेइंग गेस्ट नहीं रखेंगे। भले ही वह पूरा पैसा अग्रिम देने को तैयार हो। कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला कह रहे हैं कि वे दिल्ली में जम्मू-कश्मीर की नंबर प्लेट वाली कार लेकर (अकेले) निकलने में डरते हैं। हमें सोचना होगा कि इस खाई को भरने के लिए क्या किया जा सकता है।
अदा जाकरी की पंक्तियाँ हैं,
“हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है,
कभी अखबार पढ़ लेना, कभी अखबार हो जाना।”
भारतीय मीडिया का आज जो सूरतेहाल है, उससे तो सभी वाकिफ हैं। दिल्ली बम धमाके को लेकर मीडिया के एक तबके ने सारी जांच धमाके की खबर लगने के आधे घंटे में ही पूरकर थी। यह सवाल कोई नहीं उठा रहा कि तीस क्विंटल विस्फोटक आखिर इन नव खूंखारों तक पहुंचा कैसे? सत्ता से सवाल भले ही मत पूछिए। परन्तु हमें अपने आप से सवाल करने से तो कोई न तो रोक रहा है और न ही रोक सकता है। तो हम सब खुद से कहां भागे जा रहे हैं? कश्मीर से उपजा यह “ व्हाईट कालर” आतंकवाद क्या सिर्फ डरा रहा है? यह कोई प्रश्न खड़े नहीं कर रहा, हमारे मन मस्तिष्क में? हम अखबार की खबरों को पढ़कर संतुष्ट हैं और खुद अखबार बनकर उन बासी और तथ्यहीन ख़बरों को समाज में संप्रेषित भी कर रहे हैं। इस घटना पर गौर करें तो समझ में आता है, बम विस्फोट में दिल्ली में मारे गए व्यक्तियों को ही नहीं बल्कि श्रीनगर में जब्त विस्फोटक में हुए विस्फोट से मृत व्यक्तियों को भी गिना जाना चाहिए। परंतु ऐसा नहीं हो रहा है। रोज नए रहस्योद्घाटन समस्या की गंभीरता के लिए अच्छा संकेत नहीं हो सकते। समाज की उत्तेजना को शांत करना भी अनिवार्य है। समानांतर गतिविधियां ही अंततः इस समस्या को समझा और सुलझ सकतीं हैं।
अमेरिका न्यूयॉर्क 9/11 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद एक साक्षात्कार में नोम चामेस्की ने कहा था, "इस तरह की आतंकवादी गतिविधियां सभी जगह की उत्पीड़न और सनकी सरकारों के लिए वरदान साबित होती हैं। सरकार इन घटनाओं की आड़ में सैनिकीकरण, शक्ति के नियंत्रण, सामाजिक व लोकतांत्रिक कार्यक्रमों की दिशा उलट देनें, संसाधनों को कुछ हाथों में सीमित करने और लोक वाद की सार्थकता को समाप्त करने जैसे अपने मकसदों में कामयाब हो जातीं हैं। लेकिन इन चालों का विरोध होगा और मुझे विश्वास है कि वह नाकामयाब होंगी। हां, कुछ दिनों तक वह इससे फायदा उठा सकते हैं। पाकिस्तान का हालिया संविधान संशोधन और 9/11 के बाद अमेरिका का भयानक साम्राज्यवादी स्वरूप इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
भारत में आज की सबसे बड़ी समस्या शायद यह है कि मुसलमान अधिक मुसलमान होते जा रहे हैं और हिंदू और अधिक हिंदू। आवश्यकता है दोनों को सामान्य अवस्था में लाने की / जहां कि वह न कम और न अधिक हिंदू रहे न मुसलमान। एक मनुष्य की तरह दूसरे मनुष्य को देखें, समझे और जाने। वस्तुत: हमें भीड़ से पुनः व्यक्ति में परिवर्तित होना है, तब्दील होना है।
फिराक गोरखपुरी की पंक्तियां हैं,
"जिसे रहती है दुनिया कामयाबीवाए नादानी,
उसे किन कीमतों पर कामयाबी इंसान लेते हैं।"
यही सोचने की बात है। हम जो पा रहे हैं या पाना चाहते हैं, उसकी क्या कीमत आज चुका रहे हैं और क्या भविष्य में चुकाएंगे? भारत में बढ़ती सांप्रदायिकता और संविधान की अनदेखी कोई अच्छी तस्वीर सामने नहीं रख रहे हैं। कश्मीर और कश्मीरियत को अलग-अलग करके नहीं समझ सकते। हमें इन्हें समझना होगा और कश्मीरियत का सम्मान भी करना होगा क्योंकि एक मुस्लिम बहुल राज्य क्षेत्र भारत के गणतंत्र का हिस्सा बना है। यह कोई छोटी घटना नहीं है। आज कश्मीर पूर्ण राज्य नहीं है। लद्दाख उससे अलग कर दिया गया है। कानून व्यवस्था स्थापित करने की जिम्मेदारी उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार की ही है। केंद्र के लिए यह दोहरा झटका है क्योंकि कश्मीर और दिल्ली दोनों की कानून व्यवस्था संभालना उसी के कार्यक्षेत्र में आता है।
जैसा कि खुफिया एजेंसी का मानना है कि यह व्हाईट कालर आतंकवाद भारत के कई राज्यों में फैल गया है या फैल रहा है, बेहद गंभीर बात है। ऐसे प्रत्येक राज्य की सांप्रदायिक स्थिति की समीक्षा होनी चाहिए। महात्मा गांधी ने 19-8-42 को हरिजन सेवक में लिखा था,"हिंदुस्तान उन सब लोगों का है, जो यहां पैदा हुए हैं और पले हैं और जो दूसरे किसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, बेनी इजरायलों(यहूदियों), हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दीगर गैर हिंदुओं का भी है। आजाद भारत में राज हिंदुओं का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा।" गौर करिए वे यहां ईसाई धर्माविलंबियों के लिए "हिंदुस्तानी ईसाइयों" शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। मुसलमान के लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। भारत को उन्हीं के सपनों का भारत बनाने और बनाए रखने में हम सब की कुशल है।
भारत सरकार ने अभी तक आधिकारिक तौर पर इस हमले में किसी विदेशी देश का हाथ होने का दावा नहीं किया है। हालांकि जैश ए मोहम्मद का मुख्यालय पाकिस्तान में ही है। वहीं तुर्कियों से भी इस घटना के तार जोड़े जा रहे है। परंतु अभी कुछ भी अंतिम रूप से नहीं कहा जा सकता। यहां तो हम सबके सामने है कि विस्फोट किया गया है और इसमें जान माल की अत्यंत क्षति भी हुई है। परंतु यह भी विचारणीय है कि इस तरह की घटनाओं की पुनरावर्ती को हर हालत में रोका जाए। इसके लिए आवश्यक है कि पूरे समुदाय को इसका कारण या हिस्सा ना मानकर इसे व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह का काम मानकर आगे बढ़ना होगा। बढ़ती गलतफहमियों और आपसी अविश्वास को खत्म करना होगा। भारतीय संविधान को उसकी लेखनी और भावना दोनों में नए सिरे से अंगीकार भी करना होगा। परस्पर दोषारोपण नए विवादों और तनाव को प्राणवायु प्रदान करेगा।
क्या हम इसके लिए तैयार हैं? यदि नहीं तो बाबा (शेख) फरीद की इन पंक्तियों को ठीक से समझ लें।
फरीदा उत्थां टिक्कीए, जित्थां वस्सण अन्हें,
ना को साकू जागे, न साकू मन्ने।
बाबा फरीद कहते हैं, मेरे मन, चलो, ऐसी जगह बस जाए जहां के सभी निवासी अंधे हों। अंधों के बीच रहेंगे तो हमारा किसी से परिचय नहीं होगा, हमें मान्यता (पहचानने) देने वाला भी कोई नहीं होगा।
क्या हम अंधेपन की ओर बढ़ते कदम रोक पाएंगे?