ब्राह्मण की बेटी पर अजाक्स के प्रांताध्यक्ष आईएएस संतोष वर्मा की टिप्पणी पर बीजेपी सरकार क्या निर्णय लेगी यह तो तय नहीं हुआ है लेकिन मैदान में जारी पक्ष और विरोध के प्रदर्शनों ने ब्राह्मण नेताओं पर एक खास तरह का दबाव बना दिया है। यह दबाव है ब्राह्मण राजनीति में अपना वर्चस्व कायम करने का मौका और इसके हाथ से छूट जाने का भय।
आईएएस संतोष वर्मा ने अजा-अजजा कर्मचारी संगठन अजाक्स के अधिवेशन में कहा था कि जब तक किसी ब्राह्मण की बेटी उनके बेटे को दान नहीं मिल जाती और उससे रोटी-बेटी का संबंध नहीं बन जाता, तब तक आरक्षण जारी रहना चाहिए। बयान वायरल हुआ तो ब्राह्मण समाज की तीखी प्रतिक्रिया आई। प्रदेश के कई जिलों में विरोध और ज्ञापन का सिलसिला शुरू हो गया। दलित संगठनों ने आईएएस संतोष वर्मा का बचाव भी किया।
इसी बीच बढ़ते विवाद को देखते हुए आईएएस संतोष वर्मा ने बयान पर स्पष्टीकरण दिया लेकिन विवाद थमा नहीं। विरोध को देखते हुए सामान्य प्रशासन विभाग ने आईएएस संतोष वर्मा को नोटिस जारी कर दिया है। यह तो प्रशासनिक प्रक्रिया हुई लेकिन मामला ब्राह्मण राजनीति से जुड़ा है। पहले तो नेता इस पूरे मामले पर टिप्पणी से बचते रहे लेकिन जब देश भर में ब्राह्मण संगठन सड़क पर उतर आए तथा नेताओं से सवाल पूछने लगे तो एक-एक कर नेताओं ने बोलना शुरू किया।
बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने बागेश्वर धाम वाले धीरेंद्र शास्त्री की भागवत कथा में सार्वजनिक रूप से प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि संतोष वर्मा को सरकार अगर सजा नहीं देगी तो, हम उनका फैसला सनातन से करवाने का दम रखते हैं। भोपाल सांसद आलोक मिश्रा ने बयान ही नहीं दिया बल्कि वे केंद्रीय मंत्री ने मिल कर आईएएस संतोष मिश्रा के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग कर दी।
विंध्य क्षेत्र ठाकुर और ब्राह्मण राजनीति का केंद्र हैं। जब बीजेपी के ब्राह्मण नेताओं की चुप्पी पर सवाल हुए को स्वास्थ्य मंत्री राजेंद्र शुक्ला, बीजेपी सांसद जनार्दन मिश्रा सहित अन्य ब्राह्मण नेता सक्रिय हुए और बयान दे कर ब्राह्मण समाज को खुश करने की कोशिश की। अभी सत्ता और संगठन का रूख पता नहीं चला है मगर यह ब्राह्मण पॉलिटिक्स में पैर जमाने का मौका है सो बोलना तो जरूरी है ही। इसलिए कुछ नेता सधे हुए शब्दों में प्रतिक्रिया दे रहे हैं तो कुछ नेता बढ़ चढ़ कर बोल रहे हैं। फिर भी बीजेपी के जो ब्राह्मण नेता बोल नहीं रहे हैं, उनके ऊपर दबाव तो है ही। एक तो समाज का दबाव, दूसरा राजनीति में दूसरे नेता के लीड ले लेने का दबाव।
मायके से ससुराल तक मां की राह से चमकेगी राजनीति
मध्य प्रदेश की राजनीति में पदयात्रा का बड़ा महत्व है। 2003 में कांग्रेस की सत्ता को चुनौती देने के लिए भाजपा की तेज तर्रार नेता उमा भारती ने पदयात्रा की थी। यही पदयात्रा एक बार फिर सत्ता में अपनी स्थिति मजबूत करने का जरिया बन रही है। पदयात्रा उमा भारती ने की है। इस यात्रा का उद्देश्य राजनीतिक परिदृश्य में अपनी मौजूदगी की दृढ़ता जाहिर करना है। उमा भारती की यह यात्रा ही नहीं इसका मार्ग भी खास ध्यान खींचता है।
पूर्व घोषणा के अनुसार उमा भारती ने अपनी मां की स्मृतियों को समर्पित एक विशेष पदयात्रा रविवार दोपहर से शुरू की। उमा भारती ने बताया था कि यह यात्रा उसी मार्ग से निकाली जा रही है, जिस रास्ते से कभी उनकी मां अपने मायके गररोली गांव से ससुराल डूंडा तक पैदल जाया करती थीं। उनका लक्ष्य इस भावनात्मक पथ को पुनर्जीवित करते हुए मां के संघर्ष, संस्कार और स्मृतियों को नमन करना है। उमा भारती का कहना है कि यह यात्रा उनके जीवन के उन मूल्यों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है, जिन्हें उन्होंने अपनी मां से सीखा और जो आज भी उनके राजनीतिक और सामाजिक जीवन की दिशा तय करते हैं।
उमा भारती ने इस यात्रा को इमोशनल टच जरूर दिया लेकिन राजनीति में कुछ भी बिना राजनीति के नहीं होता है। उमा भारती का नजरिया कुछ भी हो, इसके पीछे राजनीतिक कारण दिखाई दे ही रहे हैं। कहने को यात्रा का मार्ग उनकी मां के मायके से ससुराल तक की राह थी मगर विश्लेषण किया जाए तो यात्रा का मार्ग उस क्षेत्र से गुजरा जहां उनके भतीजे राहुल सिंह को पिछले विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था। यह वही खरगापुर क्षेत्र है, जिसे भाजपा दोबारा मजबूत करने की कोशिश में है। ऐसे में उमा भारती की यह मां को लेकर समर्पित यह भावनात्मक यात्रा फिर से राजनीतिक जमीन तैयार करने का जतन समझी जा रही है। ग्रामीण इलाकों में उमा भारती का बढ़ता जीवंत संपर्क भाजपा के चुनावी समीकरणों को प्रभावित कर सकता है।
हालांकि, भाजपा ने इस यात्रा पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। उमा भारती झांसी से 2029 का लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा कई बार सार्वजनिक रूप से दिखा चुकी है। पार्टी ने फिलहाल उमा भारती की इस इच्छा पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। इसलिए उमा भारती की यह ‘मां के नाम पदयात्रा’ जहां क्षेत्र में भावनात्मक संबंध जोड़ने का उपक्रम था तो दूसरी तरफ बुंदेलखंड की राजनीति में खुद के अस्तित्व को साबित करने का प्रयास भी।
दो साल की उपलब्धियों का गुणगान और समीक्षा का तराजू
मोहन सरकार 13 दिसंबर को दो साल पूरे कर रही है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में इन दो सालों में हुए काम तथा उपलब्धियों को गिनाने और जश्न मनाने की तैयारी चल रही है तो दूसरी तरफ उनकी टीम में बदलाव की अटकलें भी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने कार्यकाल में नए साल के स्वागत के साथ ही विभागों की समीक्षा किया करते थे। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने इसे अपने कार्यकाल से जोड़ा है। दो वर्ष के कार्यकाल में सरकार की उपलब्धियों को बताने के साथ ही विभाग के कामकाज की समीक्षा शुरू हो गई है। इस समीक्षा बैठक में विभाग मंत्री, मुख्य सचिव और वरिष्ठ अधिकारी मौजूद रहते हैं। मुख्यमंत्री से चर्चा के दौरान मंत्रियों को अपने विभाग की पिछले दो साल की उपलब्धियों के साथ कमियां और समस्याएं बता रहे हैं। उन्हें सिर्फ बीते दो साल का लेखाजोखा ही नहीं, बल्कि आगामी तीन साल की योजना भी बतानी है।
एक तरह से यह सरकार के काम तथा भविष्य के लक्ष्य की समीक्षा है लेकिन इसे मंत्रियों के लिए परीक्षा भी है। आकलन है कि यही समीक्षा अगले मंत्रिमंडल विस्तार का एक कारण भी बनेगी। चर्चाएं हैं कि तीन मंत्रियों को बदला जाना है। इस गाज गिरने की आशंका वाले मंत्री हर मुलाकात में मुख्यमत्री डॉ. मोहन यादव से जरा ज्यादा ही झुक कर मिल रहे हैं। ऐसे मंत्रियों की अपने आका तक की दौड़ भी बढ़ गई है।
कांग्रेस ने नाम बदला मगर असमंजस कायम
प्रदेश कांग्रेस संगठन को मजबूत करने की कवायद एक निर्णय के कारण फिर विवाद से घिर गई। हुआ यूं कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी के निर्देशन में उमरिया, जबलपुर शहर, राजगढ़, धार और उज्जैन शहर में संगठन मंत्री की गई नियुक्तियां की गई थीं। पुष्पराज सिंह को उमरिया, रितेश गुप्ता बंटी को जबलपुर शहर, राधेश्याम सोमतिया को राजगढ़, परितोष सिंह बंजी को धार और अजय राठौर को उज्जैन शहर का जिला संगठन मंत्री बनाया गया था। विवाद बड़ा तो प्रदेश प्रभारी हरीश चौधरी ने यह कहते हुए सभी नियुक्तियों को रद्द कर दिया कि सभी को बिना अनुमति किया गया था। बाद में इन नियुक्तियों को ‘संगठन महासचिव’ के रूप में पदनाम बदल कर घोषित कर दिया गया।
नियुक्तियां, विवाद पर उन्हें रद्द करना तथा फिर पदनाम बदल कर नियुक्तियों को वैध करने को कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी और प्रदेश कांग्रेस प्रभारी हरीश चौधरी के बीच मतभेद के रूप में देखा जा रहा है। दूसरी तरफ, जिला संगठन मंत्री की नियुक्त करना जिलाध्यक्षों को रास नहीं आया। केंद्रीय संगठन की निगरानी में चुने गए जिलाध्यक्षों को लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने फ्री हैण्ड देना चाहा है ताकि वे बेहतर काम कर सकें। जिलाध्यक्षों का मानना है कि जिला संगठन मंत्री नियुक्त करना जिलाध्यक्षों की स्वायत्ता में दखल है। शिकायत दिल्ली तक पहुंची। फिर नए पदनाम के साथ वही नेता पद पर काबिज हो गए। वर्चस्व के इस संघर्ष में कौन जीता और कौन हारा के गणित से अलग संगठन के लिए यह बेहतर होगा कि जिलाध्यक्ष और संगठन मंत्री तालमेल से काम करें। संगठन को ताकत देने की कवायद से यह संदेश न जाए कि जिलाध्यक्षों की स्वतंत्रता का हनन किया जा रहा है।