मध्‍य प्रदेश की राजनीति में यह मुहावरा तेजी से चर्चा में आ रहा है कि क्‍या वाकई में दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं? असल में ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के भाजपा में जाने के पहले ही तीन माह में जो महत्‍व घटा है उससे इसी मुहावरे को जोड़ा जा रहा है। उनके समर्थक भाजपा में जगह बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। अपने समर्थकों को भोपाल ला कर भाजपा की सदस्‍यता दिलवा रहे हैं लेकिन इस पूरे मजमे से उनके नेता ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया गायब हैं। वे न मंच पर हैं और न पोस्‍टर में ही दिखाई दे रहे हैं।



भाजपा में शामिल होने के बाद जब 12 मार्च को ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया पहली बार भोपाल आए थे तो उनके स्‍वागत का अंदाज वैसा ही था जैसा कांग्रेस में हुआ करता था। हर तरफ उनके ही पोस्‍टर, हर तरफ उनके लिए ही नारे। पार्टी और अन्‍य सभी नेता गौण। तब कहा गया कि यह महाराज की यह स्‍टाइल भाजपा से मेल नहीं खाती है। सवाल था कि भाजपा में वे अपना यह रूतबा कितने दिन कायम रख पाएंगे? भाजपा में शामिल होने की पहली ही तिमाही में पता चल गया कि यहां वह स्‍टाइल नहीं चलने वाली। यही कारण है कि उनके दो खास समर्थक तुलसी सिलावट और डॉ. प्रभुराम चौधरी अपने कार्यकर्ताओं को भोपाल ला कर भाजपा की सदस्‍यता दिलवा चुके हैं मगर तीन आयोजनों में न तो सिंधिया खुद थे न उनकी फोटो ही थी। जबकि तुलसी सिलावट को तो सिंधिया ने अपने प्रभाव से ही पहले मंत्री बनवाया है। सिलावट भी अपने नेता की फोटो मंच पर नहीं लगवा पाए।



सिंधिया खेमे की इसी मजबूरी पर कांग्रेस नेता केके मिश्रा ने तंज किया है कि अपने नेता ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के लिए विधायकी छोड़ने, कुंए में कूदने की बात करने वाले अपने समर्थकों की भाजपा सदस्यता दिलवाने हेतु हो रहे कार्यक्रमों में उनके"महाराज" का एक फोटो तक नहीं लगवा सके? भाजपा 'महाराज'को दिल से स्वीकार ही नहीं कर सकी है! शिवराजजी ने तो उन्हें 'विभीषण' से नवाजा ही है।