सहसा विदधीत न क्रियां
  अविवेक: परमापदाम्पदम्

यानी अविवेकपूर्ण लिया गया निर्णय संकट और विपत्ति का कारण बनता है।
संस्कारवान लोग विवेक की प्रधानता से जो निर्णय लेते हैं, वह उनके लिए तो हितकर होता ही है, अन्य लोगों के लिए भी हितकर होता है। इसीलिए व्यक्ति का संस्कारवान होना अति आवश्यक है। क्यूंकि व्यक्ति से ही समाज का निर्माण होता है, और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। 

हमारे शास्त्र हमें सुसंस्कृत बनाने के लिए ही हैं
सम्पूर्ण शास्त्रों का सिद्धान्त यही है कि हमारे जीवन में जो मैल लगी है वह धुल जाय और हम सुसंस्कृत हो जाएं। संस्कार का अर्थ ही है स्वच्छ हो जाना, पवित्र हो जाना। जैसे किसी के बाल बिखरे हुए हैं, गंदगी है तो नाई के पास जाकर उनका संस्कार करा लिया। अपने शास्त्र में इसी को मुण्डन संस्कार कहते हैं। संस्कार का अर्थ है कि ऐसा कार्य करना जिससे हमारे जीवन में शोभा की वृद्धि हो जाय। मनुष्य होकर भी पशुवत आचरण करने वाला संस्कार विहीन होता है। मनुष्य के जीवन में संस्कार का होना आवश्यक है। हमारी भारतीय प्रणाली में तो गर्भ से ही संस्कार प्रारंभ हो जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता हमें सुसंस्कृत बनाने का सूत्र देती है। आजकल के आधुनिक लोग पत्र पत्रिकाओं को पढ़कर धर्म को समझने का प्रयास करते हैं। धर्म का खजाना जो शास्त्र हैं उनका अध्ययन अध्यापन करना पसंद नहीं करते हैं।

संस्कार तीन प्रकार के होते हैं। पहला दोषापनयन, दूसरा गुणाधान और तीसरा हीनांगपूर्ति।
 

दोषापनयन- पहले हम दोष को समझ लें। जो अपने दुःख का भी कारण बने और दूसरों के दुःख का भी। जैसे कोई किसी को अपशब्द बोलता है तो पहले वह अपशब्द तो उसी के भीतर आए तो पहले तो बोलने वाले को ही दुःख हुआ और दूसरे जिसके लिए अपशब्द का प्रयोग किया उसको दुःख पहुंचाया तो जिस कार्य से सबको दुःख हो उस दुःख के कारण को ही दोष कहते हैं। उस दोष को समझकर शास्त्र में उसको छुड़ाने के लिए जो वर्णन किया गया है उसी का नाम दोषापनयन संस्कार है।

दूसरा संस्कार है गुणाधान- जिस कार्य से अपने जीवन में भी सुख का स्फुरण हो और दूसरों के जीवन में भी सुख की अनुभूति हो, ऐसे गुण के धारण करने को गुणाधान कहते हैं।

तीसरा संस्कार है हीनांगपूर्ति- जब किसी कारण से अपने में हीनता का अनुभव होता है तो व्यक्ति दुखी हो जाता है, तो उस अभाव को अपने जीवन में भर लेना ही "हीनांगपूर्ति" है।

तीनों संस्कारों को इस प्रकार भी समझा जा सकता है- जैसे- शरीर में कोई फोड़ा हो गया हो तो ऑपरेशन के द्वारा उसको निकाल दिया- यह हुआ दोषापनयन- दोष को दूर करना। उसपर कोई सुगंधित मरहम लगाकर चेहरे को अच्छा बना लिया, ये हुआ गुणाधान। और अगर मुख में आंख नहीं है तो चिकित्सक के द्वारा उसमें दूसरी आंख लगा लिया, यह हुआ हीनांगपूर्ति।

तो दोषापनयन, गुणाधान और हीनांगपूर्ति ये तीन संस्कार होते हैं, जिनका वर्णन शास्त्रों में किया गया है। इन संस्कारों से सुसंस्कृत होकर विवेकपूर्ण निर्णय लेकर अपना भी और समाज का भी हित करने में सन्नद्ध हो जाएं।