श्रीमद्भागवत में ब्रह्मा के मोह का प्रसंग आता है। भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल बालों के साथ बछड़ा चराते हुए वन में गए और यमुना किनारे बैठ कर वन भोजन कर रहे थे।बछड़े चरते-चरते बहुत दूर निकल गए थे।ब्रह्मा ने उनका हरण कर ब्रह्म गुफा में छिपा दिया। जब भगवान बछड़े खोजने निकले तब तक ब्रह्मा ने ग्वाल बालों का भी हरण कर उन्हें भी गुफा में छिपा दिया तब ब्रह्मा को चमत्कृत करने के उद्देश्य से भगवान स्वयं ग्वाल बालों का रुप धारण कर चराते रहे। उनकी माताओं और गौओं का अपने बालकों और बछड़ों से भी अधिक कृष्ण के रूपांतर ग्वाल बाल और बछड़ों से प्रेम बढ़ता ही गया,कम नहीं हुआ।

एक वर्ष के बाद ब्रह्मा ने आकर क्षमायाचना की और ग्वाल-बाल बछड़ों को लौटा दिया। इस कथा को सुनकर राजा परीक्षित ने जिज्ञासा की कि दूसरे के बेटे में इतना प्रेम कैसे हो गया? इस पर श्री शुकदेव जी ने बताया कि सभी प्राणियों को अपना आत्मा ही प्रिय होता है। पुत्र और धन आत्मा के सम्बंध से प्रिय होते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकला कि श्रीकृष्ण सभी प्राणियों की आत्मा हैं।   

सर्वेशामपि भूतानां नृप स्वात्मैव वल्लभ:।

इतरेSपत्यवित्ताद्यास्तद्वल्लभतयैव हि।।

इसका अर्थ है सब प्राणियों का अपनी आत्मा से स्वाभाविक प्रेम होता है,पति पुत्र और वित्त में प्रेम होता है।पति, पुत्र, वित्तादि आत्मीय हैं, जिसके सम्बंध से आत्मीय से प्रेम होता है उस आत्मा में आत्मीयों से प्रेम होना स्वाभाविक है जबकि कृष्ण सब प्राणियों की आत्मा हैं। इस पर प्रश्न उठता है कि कृष्ण आत्मा कैसे हैं? श्री शुकदेव जी ने बताया कि श्री कृष्ण को सर्वान्तरात्मा समझो।

कृष्णमेनमवेहि, त्वमात्मानमखिलात्मनाम्।

जगद्धिताय सोSप्यत्र देहीवाभाति मायया।।

इससे परीक्षित के इस प्रश्न का समाधान हो जाता है कि गोपियों और गौओं का अपने बालकों और बछड़ों से कहीं अधिक गोपाल बालों और बछड़ों के रूप में परिणत कृष्ण से प्रेम क्यों हो गया, क्योंकि कृष्ण आत्मा हैं और ये ग्वालबाल आत्मीय हैं। वे अपनी योगमाया से देही (देहधारी) जैसे प्रतीत होते हैं वस्तुत: आत्मा से अभिन्न होने के नाते श्री कृष्ण से अभिन्न हैं पर वह रज्जु में सर्प के समान कल्पित है, श्री कृष्ण अकल्पित हैं।

ये तभी समझ में आता है जब जीव के ऊपर भगवान की कृपा हो। कृपा की पात्रता भक्ति से आती है और भक्ति निर्मल निष्काम प्रेम को कहते हैं। निर्मल निष्काम प्रेम धर्म से होता है। शरीर में यदि कोई मल लग जाए तो वह स्नान से शुद्ध होता है, कपड़े का मल जल और साबुन से शुद्ध होता है लेकिन अन्त:करण का मल निष्काम धर्म के आचरण से ही शुद्ध होता है। निष्काम कर्म वह है जिसका फल भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया जाए, इसलिए श्रुतियों ने कहा है-

नाविरतो दुश्चरितान्, नाशान्तो नासमाहित:।

नाशान्त मानसो वापि, प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।

अर्थात् जो दुश्चरित से विरत नहीं है, जिसका मन चंचल और मलिन है, निश्चल निर्मल नहीं है। वह केवल तर्क से परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता। इसलिए जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना होगा। दुराचार का त्याग, सदाचार का अवलंबन,यज्ञ, दान,तप जैसे सत्कर्मों का अनुष्ठान,फल की इच्छा का त्याग, भगवत्भक्ति और भगवत्कृपा से तत्व बोध एवं तत्वबोध से परमपुरुषार्थ की प्राप्ति होती है।

जैसे सब-कुछ आत्मा के लिए प्रिय होता है वैसे ही सभी सांसारिक वस्तुएं सुख के लिए होती हैं। आत्मा किसी के लिए नहीं होता इसी प्रकार सुख भी अन्य किसी के लिए नहीं होता, इसलिए दोनों का लक्षण एक ही है। सुख ही आत्मा है और आत्मा ही सुख है।