मध्यप्रदेश। राज्य के खेतों में इस बार सिर्फ फसलें नहीं बर्बाद हुईं बल्कि नौ किसानों की ज़िंदगियां भी चली गईं है। बेमौसम बारिश, कर्ज का बोझ और बाजार में उचित दाम न मिलने की वजह से इन किसानों को इतना तोड़ दिया कि उन्होंने जीने की बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझा। प्रशासन इन मौतों को फसल बर्बादी से जोड़ने से बच रहा है लेकिन परिवारों की आंखों से बहते आंसू सच्चाई बयान कर रहे हैं।
नर्मदापुरम जिले के मोरघाट गांव के विकास यादव की कहानी इन नौ में से एक है। 23 वर्षीय विकास इस साल किसान क्रेडिट कार्ड से 5 लाख रुपये का कर्ज लेकर खेत में बोरिंग कराई और मक्के की फसल बोई थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी न मिलने से उसने खेती को ही जीवन बना लिया था। परिवार का खर्च उसी पर था क्योंकि उसका एक भाई दिव्यांग है। लेकिन बेमौसम बारिश ने उसकी पूरी फसल चौपट कर दी। त्योहार के वक्त जब वह घर में कुछ भी नहीं ला पाया तो टूट गया। निराशा में 22 अक्टूबर को उसने फांसी लगाकर जान दे दी। चाचा अनिल यादव बताते हैं कि विकास हर साल उम्मीद के साथ बोवाई करता था पर इस बार बारिश ने सब खत्म कर दिया।
यह उज्जैन, खंडवा, नर्मदापुरम, मुरैना और श्योपुर जैसे जिलों की कहानी है जहां पिछले एक महीने में नौ किसानों ने आत्महत्या कर ली। इनमें चार किसान उज्जैन जिले के, दो खंडवा के और एक-एक किसान नर्मदापुरम, मुरैना व श्योपुर से हैं। उज्जैन जिले में 4 अक्टूबर से 31 अक्टूबर के बीच चार किसानों ने आत्महत्या की थी। बगला गांव के 55 वर्षीय रामसिंह भामी ने सोयाबीन की कटाई के बाद जब देखा कि छह बीघा खेत से मुश्किल से 1 क्विंटल 20 किलो फसल निकली तो उनका मन बैठ गया। फसल की औसत पैदावार छह से नौ क्विंटल होनी चाहिए थी। निराश होकर उन्होंने कीटनाशक पी लिया।
इसी जिले के खजुरिया मंसूर गांव के दिनेश शर्मा की फसल इतनी कम हुई कि घर चलाना मुश्किल हो गया। तनाव में उन्होंने भी आत्महत्या कर ली। सेकली गांव के 61 वर्षीय शव सिंह ने भी 7.5 बीघा खेत में सिर्फ सात क्विंटल सोयाबीन मिलने पर जहर खा लिया। वहीं, अरनिया चिबड़ी गांव के कमल सिंह गुर्जर को तीन बीघा जमीन से केवल एक क्विंटल सोयाबीन मिला। फसल की बर्बादी से टूटकर उन्होंने भी कीटनाशक पी लिया।
खंडवा के दीवाल गांव के 40 वर्षीय मदन कुमरावत ने दो एकड़ अपनी और आठ एकड़ किराए की जमीन लेकर सोयाबीन बोया था। लेकिन बारिश ने सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। कर्ज के तले दबे मदन ने भी जहर खा लिया। परिजनों का कहना है, “इस साल एक दाना भी नहीं निकला, सब खत्म हो गया।” इसी जिले के डोंगर गांव के सदाशिव फत्तू ने पांच एकड़ में मक्का बोया था लेकिन बेमौसम बारिश ने पूरी फसल बर्बाद कर दी। 30 अक्टूबर को सदाशिव ने खेत में ही कीटनाशक पीकर अपनी जान दे दी।
मुरैना जिले के टीकरी गांव में रहने वाले मुकेश गुर्जर के हिस्से में डेढ़ बीघा जमीन थी। खेती के लिए वह हर साल रिश्तेदारों से 10 बीघा जमीन किराए पर लेता था। इस बार धान की फसल बोई थी लेकिन अतिवृष्टि ने पूरी फसल डुबो दी। अब जमीन मालिकों को दो लाख रुपये लौटाने की चिंता सता रही थी। पत्नी लक्ष्मी बताती हैं, “पति ने कहा था फसल बेचकर सब ठीक हो जाएगा, बेटी का रिश्ता भी कर दूंगी। लेकिन बारिश ने उनकी आखिरी उम्मीद भी डुबो दी।” 31 अक्टूबर को मुकेश खेत पर गए और फिर लौटे नहीं। पेड़ से उनका शव मिला।
श्योपुर जिले के सिरसौद गांव के किसान कैलाश मीणा की नौ बीघा धान की फसल कटाई से ठीक पहले बारिश में नष्ट हो गई। 29 अक्टूबर को वे खेत गए और थोड़ी देर बाद पेड़ से लटके मिले। ग्रामीणों ने शव रखकर चक्काजाम किया और मुआवजे की मांग की। प्रशासन ने मौके पर पहुंचकर परिवार को रेड क्रॉस फंड से 2 लाख रुपये की सहायता दी तब जाकर धरना खत्म हुआ।
कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, इन मौतों के पीछे चार प्रमुख कारण हैं, मौसम की मार, कम भाव, महंगी खेती और सरकारी मदद का अभाव। इस साल दीपावली से पहले हुई बेमौसम बारिश ने मक्का, सोयाबीन और धान जैसी फसलों को 50% से 100% तक बर्बाद कर दिया। जो थोड़ी-बहुत फसल बची, उसे मंडी में एमएसपी से बहुत कम दाम पर बेचना पड़ा। किसान संघ से जुड़े राहुल धूत बताते हैं कि मक्का का एमएसपी 2090 रुपये है, लेकिन मंडी में 1100 में बिक रही है। सोयाबीन का एमएसपी 4600 रुपये है पर किसान को 4000 रुपये प्रति क्विंटल से ज्यादा नहीं मिल रहा।
इसके अलावा, बीज, खाद और कीटनाशक की किल्लत ने खेती की लागत बढ़ा दी। किसान प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष केदार सिरोही के अनुसार, “सरकार का संवाद किसानों से टूटा हुआ है। न समय पर मुआवजा, न फसल बीमा का लाभ मिल पा रहा है।” कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हैं, “सोयाबीन अब सुसाइडल क्रॉप बनती जा रही है जैसे पहले कपास के साथ हुआ था।” उनका मानना है कि खेती में सुनिश्चित आय का अभाव किसानों की आत्महत्या की जड़ है। वे कहते हैं, “भावांतर जैसी योजनाएं असफल हैं। एमएसपी को कानूनी अधिकार देना होगा। लेकिन असली समस्या ये है कि हमारे समाज में उपभोक्ता किसान के साथ नहीं खड़ा होता।” वे फ्रांस का उदाहरण देते हुए कहते हैं,“वहां जब डेयरी किसान आत्महत्या कर रहे थे तब उपभोक्ताओं ने दूध पर थोड़ा अतिरिक्त भुगतान कर किसानों को बचाया। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?”