नई दिल्ली। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत को लगता है कि भारत में कुछ ज़्यादा ही लोकतंत्र है, जिसके चलते देश में कड़े आर्थिक सुधारों को लागू करने में मुश्किल होती है। अमिताभ कांत ने यह बात एक वेबिनार के दौरान कही। उन्होंने यह बात ऐसे दौर में कही है जब देश के लाखों किसान कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर करीब दो हफ्ते से डटे हुए हैं और सरकार पर किसानों को बर्बाद करने वाले काले कानून जबरन लागू करने का आरोप लगा रहे हैं।

अमिताभ कांत ने केंद्र की मोदी सरकार की तारीफ के पुल बांधते हुए कहा कि देश में पहली बार ऐसी सरकार आई है जो कड़े आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए इतनी मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखा रही है। अमिताभ यहीं नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा, कड़े आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए जमीनी हकीकत की जिस तरह की समझदारी चाहिए, वो भारत में पहली बार देखने को मिल रही है।

अमिताभ कांत ने कहा कि केंद्र सरकार ने कृषि के अलावा खनन, कोयला जैसे अहम क्षेत्रों में भी कड़े सुधारों को आगे बढ़ाया है। अब राज्यों को इन सुधारों को और आगे ले जाना चाहिए। अमिताभ कांत ने कहा कि कृषि में बड़े सुधारों की काफी ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि सरकारी मंडियों को खत्म करने की बात कोई नहीं कर रहा है। मंडिया रहेंगी और एमएसपी भी रहेगा। अमिताभ कांत ने कहा कि मैं मानता हूं कि किसानों के पास एक विकल्प होना चाहिए। 

अमिताभ कांत ने देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र होने की बात ऐसे वक्त में कही है, जब मोदी सरकार पर किसान आंदोलन के दौरान शांतिपूर्ण विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने की कोशिश के आरोप को देश-विदेश में लग रहे हैं। ऐसे में अमिताभ कांत को देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र दिखाई देना वाकई हैरान करने वाली बात है। अमिताभ कांत को इस बयान के लिए सोशल मीडिया पर ट्रोल भी किया जा रहा है। 

मोदी सरकार साफ करे, क्या वो भी लोकतंत्र को अड़चन मानती है

नीति आयोग केंद्र सरकार की प्रमुख नीति निर्माता संस्था है, जिसकी स्थापना मोदी सरकार ने योजना आयोग को खत्म करके की है। ऐसे में सरकार को साफ करना चाहिए कि क्या वो अपने एक प्रमुख नीति निर्धारक अधिकारी की राय से सहमत है? क्या उसे भी लगता है कि देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है, जिससे कड़े सुधार लागू करना मुश्किल हो जाता है? खास तौर पर तब जबकि अमिताभ कांत इन कड़े सुधारों की फेहरिस्त में कृषि क्षेत्र के उन कथित कड़े सुधारों को भी शामिल करते हैं, जिनके खिलाफ आज देश के किसान आंदोलन कर रहे हैं? क्या किसानों की आवाज़ को पुलिस की ताकत से दबाने की कोशिश इसी सोच का नतीजा है, जो लोकतंत्र को उपलब्धि नहीं बल्कि एक अड़चन मानती है?