महात्मा गांधी के विचारों में प्रकृति का सीमित उपभोग एक केंद्रीय तत्व था। वे मानते थे कि मनुष्य को प्रकृति से अपनी ज़रूरत भर लेना चाहिए, लालच या अति-उपभोग से बचना चाहिए। इसलिए संसाधनों का उपयोग सीमित, न्यायपूर्ण और दूसरों के हित को ध्यान में रखकर होना चाहिए। गांधी ने जीवनशैली को सादगी और आत्मसंयम से जोड़ा। गांधी ने अंधाधुंध औद्योगिकीकरण और मशीनों पर निर्भरता को चेतावनी दी थी। वे कहते थे कि पश्चिमी शैली का उपभोग-केंद्रित विकास भारत जैसे देश के लिए घातक है, क्योंकि यह प्रकृति और समाज दोनों को नुकसान पहुंचाता है। गांधी ‘स्वदेशी’ और ‘ग्राम स्वराज’ के पक्षधर थे। इससे स्थानीय संसाधनों का टिकाऊ तरीके से उपयोग ही पर्यावरण और समाज दोनों के लिए सुरक्षित है।
प्रकृति को अक्सर मां भी कहा जाता है, जो जीवन के निर्माण और पोषण की एक जटिल इकाई को दर्शाता है। प्रकृति जीवन का आधार है, जो हवा, पानी, भोजन, औषधि और पर्यावरणीय संतुलन जैसे आवश्यक संसाधन प्रदान करती है, जिससे हमारा अस्तित्व और कल्याण संभव होता है। यह मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरणा और उपचार का स्रोत भी है। प्रकृति हमें पीने का पानी, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा, और भोजन के लिए आवश्यक फसलें प्रदान करती है। प्रकृति विभिन्न प्रकार के पौधों और जानवरों के लिए भोजन और आवास प्रदान करती है, जो पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर और कार्यशील बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। यह हमारी अर्थव्यवस्था, हमारे समाज और वास्तव में हमारे अस्तित्व का आधार है। प्रकृति इंसानों के बहुत पहले से मौजूद है और आज भी जीवन को सहारा देती है।
सभ्यता की प्रगति और विकास ने प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव डाला है। अनियंत्रित औद्योगिकीकरण, वनों की अंधाधुंध कटाई, प्रदूषण, खनन, और शहरीकरण ने प्रकृति का संतुलन बिगाड़ दिया है। इसके परिणामस्वरूप विश्व को कई गंभीर संकटों का सामना करना पड़ रहा है। जिनमें प्रमुख हैं जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का नुक़सान,जल संकट, भोजन और कृषि संकट, स्वास्थ्य पर खतरा और सामाजिक एवं आर्थिक संकट प्रमुख हैं। प्रकृति का विनाश केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह मानव अस्तित्व, स्वास्थ्य, भोजन, जल, और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी गंभीर खतरा है।
इंसानी गतिविधियों द्वारा किए गए पर्यावरण-विनाश ने प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति, तीव्रता और प्रभाव को और अधिक गंभीर बना दिया है। यदि समय रहते सतत विकास और संरक्षण के प्रयास नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य असुरक्षित हो जाएगा।विश्व में 1989-2019 के बीच प्राकृतिक आपदाओं से सालाना औसतन लगभग 54,082 मौतें हुई हैं। वित्त वर्ष 2024-25 में भारत में प्राकृतिक आपदाओं के कारण लगभग 3,080 लोगों की मौत हुई है। वहीं 2013-14 में यह संख्या बहुत अधिक थी, लगभग 5,677 लोगों की मौत हुई थी।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जून 2025 से अब तक लगभग 1,500 से अधिक लोग बारिश, बाढ़, भूस्खलन, और संबंधित घटनाओं में मारे गए हैं। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि हिमाचल प्रदेश में लगभग 400 मौतें, केरल में 335, जम्मू और कश्मीर में 130 मौतें हुई हैं। इसका कारण है हर वर्ष लगभग 1 करोङ हेक्टेयर जंगल दुनिया भर में कट रहा है। यह जंगल मुख्यतः कृषि विस्तार, वन उपयोग को बदलने, खनन, बांध, विकास और शहरी परियोजनाओं की वजह से काटे जा रहे हैं। विश्व में लगभग 1 करोङ 20 लाख हेक्टेयर उपजाऊ या उत्पादक भूमि प्रतिवर्ष मिट्टी क्षरण, शहरीकरण और विभिन्न कारणों से खत्म होती जा रही है। मानव की गतिविधियों के चलते धरती के वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का जमाव हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप सतह पर हवा का तापमान और सतह के नीचे समुन्द्र का तापमान बढ़ रहा है।
प्रकृति, आपुर्ति और मांग के आर्थिक नियमों के अनुसार बाजार में बेचे जाने के लिए माल नहीं है। न ही यह व्यक्तिगत उपभोक्ता तरजीहों के नियमों के अनुसार संगठित बाजार है। वर्तमान समाजिक व्यवस्था, मानव स्वतंत्रता और प्रकृति के साथ मानवीय संबंधों के यांत्रिक दृष्टिकोण में उलझी हुई है, जो सीधे तौर पर पारिस्थितिकी अनिवार्यताओं के विपरीत है। वर्ष 2024 में भारत में लगभग 18,200 हेक्टेयर प्राथमिक वन खत्म हुआ है। जबकि 2023 में यह संख्या लगभग 17,700 हेक्टेयर थी।
सन् 2000 से अब तक भारत में लगभग 2.33 मिलियन हेक्टेयर वन आवरण कम हुआ है। “प्राथमिक वनों” की हानि विशेष रूप से अधिक चिंताजनक होती है क्योंकि ये वन की जैव विविधता, पारिस्थितिक स्थिरता, और कार्बन भंडारण के लिए महत्वपूर्ण होती है। प्रकृति का दूसरा महत्वपूर्ण घटक हवा है, परन्तु वायु प्रदुषण इंसान के आयु को कम कर रहा है।सन् 2024 में भारत दुनिया का पांचवां सबसे प्रदूषित देश था।
दिल्ली जैसे महानगरों में यह स्तर बहुत ज़्यादा है जो कि राष्ट्रीय और विश्व मानकों से काफी ऊपर है।वाहनों से निकलने वाले धुएं, औद्योगिक उत्सर्जन, निर्माण-कार्यों से धूल, और खेतों में फसल अवशेषों को जलाना वायु प्रदुषण का प्रमुख स्रोत है। हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट एवं यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2021 में भारत में लगभग 2.1 मिलियन मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं थी। प्रकृति में मौजूद जल की बात जाए तो स्थिति काफी नाजुक है।स्टेट ऑफ एनवायरमेंट (एसओ ई) रिपोर्ट 2023 में यह खुलासा किया है कि 279 नदियां प्रदूषित हैं।उनमें से कुछ नदियों के पानी में बायोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड की मात्रा बहुत ज्यादा है, जो कि बहुत अधिक जैविक प्रदूषण का संकेत है।
भारत दुनिया की कुल जनसंख्या का लगभग 18 प्रतिशत है। लेकिन ठीक-ठाक मीठे पानी के संसाधन का केवल 4 प्रतिशत है। यह आंकड़ा बताता है कि जल संसाधनों पर बहुत दबाव है। भारत में नदियों की रक्षा के लिए प्रदूषण नियंत्रण, प्रवाह संरक्षण, तट प्रबंधन, जनभागीदारी और कानूनी उपाय आवश्यक हैं। सरकार ने नमामि गंगे जैसी योजनाएं शुरू की है, परंतु सफलता तभी मिलेगी जब स्थानीय समुदाय, सरकार, उद्योग और नागरिक मिलकर नदी को संसाधन नहीं, बल्कि जीवन के रूप में संरक्षित करें।
भारत ने प्रकृति के संरक्षण के लिए मजबूत संवैधानिक आधार, कानूनी प्रावधान और नीतियां बनाई है। संविधान के अनुच्छेद 48(ए) में राज्य का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण की रक्षा और सुधार करे तथा वनों और वन्य जीवों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। अनुच्छेद 51(ए) (जी) में प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण, जैसे वन, झीलें, नदियां, वन्य जीव आदि की रक्षा करें। अनुच्छेद- 21 (जीवन का अधिकार) में सर्वोच्च न्यायालय ने “स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण में जीने का अधिकार” को जीवन के मौलिक अधिकार का हिस्सा माना है। कानून की बात करें तो पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974,वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972, वन संरक्षण अधिनियम, 1980, और जैव विविधता अधिनियम, 2002 जैसे कानून भारत में मौजूद है।
लेकिन इनका प्रभावी क्रियान्वयन और जनभागीदारी ही वास्तविक सफलता सुनिश्चित कर सकती है।भारत के आदिवासी समुदायों का जीवन और संस्कृति प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ है। उनका मानना है कि मनुष्य और प्रकृति का संबंध सहजीवन का है, अर्थात मनुष्य केवल उपभोक्ता नहीं बल्कि संरक्षक भी है। यही कारण है कि आदिवासी समाज ने हजारों वर्षों से वनों, जल, भूमि और जैव विविधता के संरक्षण की परंपराएं विकसित की हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से आदिवासी मानते हैं कि प्रकृति ही ईश्वर का रूप है।भारत के अनेक आदिवासी क्षेत्रों में पवित्र उपवन पाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय देवताओं या पूर्वजों की स्मृति में संरक्षित किया जाता है।
आदिवासी दर्शन कहता है कि “प्रकृति से उतना ही लो जितना आवश्यक है, बाकी आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ दो।” इस तथाकथित विकसित समाज को आदिवासी समाज के दर्शन से सीखना चाहिए। प्रकृति हमेशा से मौजूद रही है, लेकिन हम अक्सर भूल जाते हैं कि यह कितनी महत्वपूर्ण है। अगर हम इसकी रक्षा नहीं करेंगे, तो आने वाली पीढ़ियां इसका खामियाजा भुगतेंगी। हम जंगलों को कटने से रोककर, पेड़ लगाकर, पानी बचाकर, ज्यादा से ज्यादा अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल कर, वस्तुओं का सीमित उपभोग कर और अपने आस-पास की सफाई रखकर प्रकृति की देखभाल कर सकते हैं।
प्लास्टिक का कम इस्तेमाल और कचरे को सही तरीके से फेंकना जैसी छोटी-छोटी बातें भी बहुत बड़ा बदलाव ला सकती हैं। प्रकृति एक ऐसा उपहार है जिसका हमें सम्मान और संरक्षण करना चाहिए। अगर हम प्रकृति की देखभाल करें, तो हम दुनिया को सभी के लिए एक बेहतर और हरा-भरा स्थान बना सकते हैं। अगर हम इन बेहद बुनियादी मुद्दों को ध्यान में नहीं रख पाये तो न केवल समाजिक न्याय के उद्देश्य को, बल्कि पृथ्वी के प्रति अपने दायित्वों को भी पूरा करने में हमारी विफलता तय है।
(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं।)