शुक्रवार को गांधी एक बार फिर बहुत याद आए। बर्बर, तानाशाह, फासीवादी ताकतों के सामने गांधी का अहिंसा और असहयोग का मंत्र ही सबसे कारगर था। शुक्रवार को गांधी इसलिए याद आए क्योंकि गांधी कहा करते थे कि हिंसक तरीक़े से प्रतिरोध करने का मतलब अपने सामने खड़ी क्रूर सत्ता को और मज़बूत करना है। दो दिन पहले तक रक्षात्मक तरीक़े से खेल रही सत्ता अचानक शुक्रवार के समाप्त होते तक फिर से आक्रामक होकर खेलने लगी। खाड़ी देशों से मिली घुड़की के कारण व्हाट्सएप में आ रहे संदेश अचानक बंद हो गए थे। मगर शुक्रवार को अचानक सारे नाग जाग कर बिलों से बाहर आ गए और व्हाट्सएप में फैल गए।

याद आ गया अहिंसक किसान आंदोलन, जो अंतत: हठी सत्ता को झुकाकर ही समाप्त हुआ था। उस किसान आंदोलन के पीछे अहिंसा और सत्याग्रह का विचार प्रमुख रूप से शक्ति बन कर खड़ा हुआ था। अहिंसा वह जिसको लेकर कहा गया कि "यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा भी उसके सामने कर दो।" यह बात गांधी के नाम से प्रचारित होती है, लेकिन मूल रूप से यह सिद्धांत गांधी का नहीं है। यह सिद्धांत असल में ईसा का है। बाइबल के ‘न्यू टेस्टामेंट’ में ‘चार सुसमाचार’ नाम के पहले ही खंड में यह बात आती है। और शब्दशः यही बात सामने आती है। उस खंड के पहले अध्याय ‘संत मत्ती’ का उन्चालीसवाँ कथन यही है।

गांधी ने बहुत कुछ ईसा से लिया है। ईसा, गांधी और बुद्ध यह तीन ही ऐसे हैं जो दया, करुणा, प्रेम, क्षमा, अहिंसा का प्रचार करते नज़र आते हैं। गांधी उस समय हिंसा का विरोध करते थे कि इससे अंग्रेज़ों का पक्ष दुनिया के सामने मज़बूत होगा, और आज हम देख रहे हैं कि किस प्रकार गांधी की वह बात सच होकर सामने आ रही है। दो दिन पहले तक बैकफुट पर खेल रही सत्ता एक ही दिन की हिंसा में फ्रंटफुट पर खेलने लगी। पूरी बर्बरता के साथ बुलडोजरों के साथ खेलने लगी।

किसान आंदोलन के समय यही सत्ता छटपटा रही थी कि कहीं तो कुछ हिंसक हो और हम कुचल डालें। तानाशाही को प्रतीक्षा होती है कि उसके प्रतिरोध में खड़ी ताक़तें हिंसा पर उतरें और वह अपना काम शुरू करे। तानाशाही हमेशा संविधान के विरुद्ध जाकर अपने विरोध को कुचलती है। तानाशाही कभी क़ानून या अदालतों पर विश्वास नहीं रखती, वह ख़ुद फ़ैसला करती है। यह जंगल राज की पहली पहचान होती है कि क़ानून के काम करने से पहले सत्ता अपना काम करने लगती है, और उस काम को देशहित तथा राष्ट्रहित का नाम भी देती है।

हत्या के बदले हत्या, बलात्कार के बदले बलात्कार, यह किसी संविधान आधारित गणतंत्र में नहीं होता, यह तो क़बीलों में होता है। किसी भी संविधान आधारित गणतंत्र का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है कि वहाँ निर्णय अदालतों की बजाय मैदान में बुलडोज़रों से लिए जाने लगें। गांधी अगर आज होते तो वे सबसे पहला काम यह करते कि उन बुलडोज़रों के सामने खड़े हो जाते। वे बुलडोज़र जो किसी व्यक्ति का मकान गिराने नहीं जा रहे हैं, असल में तो वह हमारे संविधान का ईमान गिराने जा रहे हैं। संविधान अप्रासंगिक होने के बाद हम एक बार फिर क़बीलाई व्यवस्था का हिस्सा हो जाएँगे, जिसे बड़े प्रयासों से हमारे पूर्वजों ने ख़त्म किया था।

इस पूरे खेल को समझना बहुत आवश्यक है, समझना होगा कि जो दिख रहा है, उसके पीछे असल खेल क्या चल रहा है। हिंसा हो रही है, या करवाई जा रही है? फासीवादी ताक़तों की यह विशेषता होती है कि ये ताक़तें दोनों पक्षों में हस्तक्षेप रखती हैं। मतलब यह कि यह अपने प्रतिरोध में खड़ी हुई शक्तियों में भी घुसपैठ कर उनसे हिंसा करा सकती हैं। असल में जब भी हिंसक या उग्र प्रतिरोध पैदा किया जाता है, तो जिसके खिलाफ़ यह प्रतिरोध पैदा किया जा रहा है, वह भी अपनी तरफ़ से इसमें प्रायोजित हिंसक तत्वों को शामिल कर देता है। याद कीजिए किसान आंदोलन के समय की लाल क़िले पर झंडा बदलने वाली "प्रायोजित" घटना, जिसने कुछ समय के लिए किसान आंदोलन को भी बैकफुट पर डाल दिया था।

तानाशाह को सबसे ज़्यादा डर अहिंसा से लगता है, क्योंकि वह बस हिंसा का खेल ही जानता है, इसलिए वह पूरी कोशिश करता है कि उसके सामने प्रतिरोध पैदा करने वाली ताक़तें वही खेल खेलें, जिसमें वह माहिर हैं। अंग्रेज़ भी यही चाहते थे और यह सत्ता भी यही चाहती है। तानाशाह चाहता है जनता के मन में आंदोलन की हिंसा का डर पैदा करना, इसीलिए वह अहिंसक आंदोलन के रास्ते में सड़क पर कीलें गड़वाता है, दीवारें खड़ी करता है। यह सब केवल ख़ौफ़ पैदा करने के लिए कि आंदोलन से जनता को ख़तरा है। अब समझ में आ रहा है कि चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को वापस लेने का गांधी का निर्णय कितना सही था। हिंसा असल में विचारों की पवित्रता को प्रदूषित कर देती है। हिंसा भेस बदल कर अहिंसा के पाले में घुस जाती है और वहाँ संक्रामक रोग की तरह फैल जाती है। हिंसक सत्ता बस इंतज़ार करती है कि पहला पत्थर उसके ख़िलाफ़ हो रहे आंदोलन की तरफ़ से फेंका जाए, उसके बाद तो उसके ही तत्व दोनों तरफ़ से हिंसा का मोर्चा सँभाल लेते हैं। हम यह सोच ही नहीं पाते कि कहीं चौरी चौरा कांड अंग्रेज़ सरकार ने ही तो नहीं करवाया था। हिंसा हमेशा सत्ता के लिए सुविधा का वातावरण बनाती है। वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति। इस खेल को समझें कि वो चाहते हैं कि आप हिंसा-हिंसा खेलें और उसके बाद उनके लोग आपकी हिंसा के साथ मीडिया-मीडिया खेलने लगें, जनता को डराने और अपने आप को सही साबित करने के लिए। हिंसा के इस पूरे खेल को समझना होगा। यह समझना होगा कि अंतत: गांधी, ईसा और बुद्ध का मार्ग ही सही साबित होगा। बशर्ते आप उस पर चलने के लिए अपने आप को तैयार कर सकें।
 

( ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)