नई दिल्ली। मोदी सरकार ने विपक्ष के कड़े विरोध के बावजूद भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी और सूचना आयुक्त यशवर्धन कुमार सिन्हा को ही नया मुख्य सूचना आयुक्त बनाने का फैसला कर लिया है। इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक विपक्ष ने सेलेक्शन प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनदेखी किए जाने का कड़ा विरोध किया है। नियुक्ति के लिए बनी सेलेक्शन कमेटी में विपक्ष के प्रतिनिधि अधीर रंजन चौधरी ने सिन्हा को CIC बनाए जाने का भी विरोध किया है। फिर भी सरकार अपने फैसले पर अड़ी हुई है। इतना ही नहीं, सरकार ने अधीर रंजन चौधरी के सख्त एतराज के बावजूद बीजेपी समर्थक समझे जाने वाले पत्रकार उदय माहुरकर को सूचना आयुक्त बनाने का फैसला भी कर लिया है। इसके अलावा सरकार ने डिप्टी सीएजी सरोज पुनहानी को सूचना आयुक्त बनाने का फैसला भी कर लिया है। अखबार के मुताबिक सरकार ने वाई के सिन्हा को उनकी नियुक्ति की सूचना दे दी है। सिन्हा, माहुरकर और पुनहानी, तीनों ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में अपनी नियुक्ति की सूचना दिए जाने की बात मानी है।

ये सभी फैसले प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली सेलेक्शन कमेटी ने किए हैं, जिसमें अधीर रंजन चौधरी विपक्ष के प्रतिनिधि के तौर पर सदस्य हैं। अखबार के मुताबिक सेलेक्शन कमेटी की 24 अक्टूबर को हुई बैठक में कहा था कि सरकार ने जिस तरह से इन नामों का चयन किया है, वह सिर्फ एक औपचारिकता और लोगों की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश है, जो कि सूचना के अधिकार कानून की मूल भावना और मकसद के ही खिलाफ है।

अधीर रंजन चौधरी ने वाई के सिन्हा के नाम का विरोध करते हुए कहा था कि सीआईसी के पास कानून, मानवाधिकार, सर्विस डिलीवरी सिस्टम और आम जनता से जुड़े मुद्दों का लंबा अनुभव होना चाहिए जो कि एक पूर्व विदेश सेवा अधिकारी के तौर पर सिन्हा के पास नहीं है। अधीर रंजन चौधरी का कहना था कि एक अन्य सूचना आयुक्त वनजा एन सरना अपने अनुभव के लिहाज से इस पद के ज्यादा उपयुक्त हैं और वे वाई के सिन्हा से सीनियर भी हैं।

खबर ये भी है कि चौधरी ने पत्रकार माहुरकर को सूचना आयुक्त बनाए जाने का भी कड़ा विरोध किया था। उनका कहना था कि माहुरकर ने तो इस पद के लिए आवेदन भी नहीं किया, फिर उनका नाम अचानक आसमान से क्यों टपक पड़ा? अखबार के मुताबिक चौधरी ने माहुरकर के लेखों, टिप्पणियों और सोशल मीडिया प्रोफाइल का ज़िक्र करते हुए यह भी कहा कि वे सत्ताधारी दल और उसकी विचारधारा के खुले समर्थक हैं और इसीलिए उन्हें बिना आवेदन किए इस महत्वपूर्ण पद पर बिठाया जा रहा है। माहुरकर इंडिया टुडे में डेप्युटी एडिटर हैं और उन्होंने मोदी सरकार की तारीफ में किताबें भी लिखी हैं। इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में माहुरकर ने भी नियुक्ति का ऑफर मिलने और उसे स्वीकार करने की बात मानी है।

अधीर रंजन चौधरी ने इन नियुक्तियों पर अपना विरोध दर्ज कराते हुए लिखा है कि सर्च कमेटी ने इसका कोई करण नहीं बताया कि सीआईसी और सूचना आयुक्त के पदों के लिए चुने गए उम्मीदवार बाकी आवेदकों के मुकाबले बेहतर क्यों हैं। चौधरी का कहना है कि सर्च कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अनदेखी की है, जिसमें नामों को शॉर्ट लिस्ट करने का आधार सार्वजनिक करने को कहा गया है। सीआईसी के पद के लिए 139 और सूचना आयुक्त के पद के लिए 355 लोगों ने आवेदन किया था।

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सेलेक्शन कमेटी की पहली बैठक 7 अक्टूबर को हुई थी, जिसमें अधीर रंजन चौधरी ने सर्च कमेटी की तरफ से शॉर्टलिस्ट किए गए नामों की सूचना पहले से नहीं दिए जाने पर एतराज़ किया था। इसके बाद बैठक टालनी पड़ी थी। अगली बैठक 24 अक्टूबर को हुई, जिसमें सर्च कमेटी की तरफ से सीआईसी के पद के लिए रखे गए दो नामों पर विचार हुआ – वाई के सिन्हा और पूर्व आईएएस अधिकारी और सूचना आयुक्त नीरज कुमार गुप्ता। सूचना आयुक्त के पद के लिए सर्च कमेटी ने माहुरकर और पुनहानी समेत 7 नाम पेश किए थे। 

केंद्रीय सूचना आयोग में अभी सिर्फ पांच सूचना आयुक्त हैं, जबकि मुख्य सूचना आयुक्त समेत 6 पद खाली पड़े हैं। मुख्य सूचना आयुक्त 26 अगस्त को ही रिटायर हो गए थे। यह पद तभी से खाली पड़ा है। दरअसल मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के 16 दिसंबर, 2019 के उस आदेश का भी पालन नहीं किया, जिसमें उसे केंद्रीय सूचना आयोग में खाली पड़े सभी पदों पर तीन महीने के अंदर नियुक्ति करने को कहा गया था। केंद्र सरकार की इस अनदेखी के खिलाफ कुछ ही दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई है।

केंद्रीय सूचना आयोग का गठन सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के प्रावधानों के तहत 2005 में की मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में किया गया था। केंद्रीय सूचना आयोग सरकार के कामकाज में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से इसे कमज़ोर किए जाने के आरोप लगातार लगते रहे हैं। मिसाल के तौर पर पहले सभी सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच साल या 65 साल की उम्र पूरी करने तक के लिए था, लेकिन मोदी सरकार ने पिछले साल कानून में संशोधन करके इसे 3 साल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दरकिनार करते हुए सूचना आयोग के पदों को खाली रहने देने को भी इसे कमज़ोर करने की कोशिश के तौर पर देखा जाता है।