भारतीयों को एच-1बी वीज़ा का बड़ा हिस्सा मिलता है। अक्टूबर 2022 से सितंबर 2023 के बीच, अमेरिका ने जितने भी एच- 1बी वीज़ा जारी किए हैं, उनका लगभग 72.3% हिस्सा भारतीय नागरिकों को गया है। यानी यदि कुल 100 वीजा हों तो उनमें से लगभग 70-75 भारतीयों को मिलते हैं। वीजा स्वीकृति की संख्या में गिरावट आ रही है। 2023 की तुलना में 2024-25 में भारतीयों को दी जाने वाली स्वीकृति की संख्या में लगभग 28 से 37% की गिरावट हुई है। पहले जितनी फ़ाइलें मंज़ूर हो रही थीं, अब उनमें कमी आ रही है।
रजिस्ट्रेशन में भारी गिरावट हो रही है। वित्तीय वर्ष 2026 के लिए एच-1बी वीज़ा की रजिस्ट्रेशन में भारी कमी आई है। संयुक्त राज्य नागरिकता और आव्रजन सेवा को वित्तीय वर्ष 2026 में लगभग 3.58 लाख रजिस्ट्रेशन मिले, जबकि पिछले वर्षों में ये संख्या काफी ज्यादा थी। इससे यह संकेत मिलता है कि नए नियम और लागत (फीस) बढ़ने से आवेदन करने वालों की संख्या कम हो रही है। ये आंकड़े देखकर, निम्नलिखित अनुमान लगाए जा सकते हैं कि बदलाव से कितने भारतीय प्रभावित हो सकते हैं।
वीजा फीस में बड़ा इज़ाफा वे कंपनियां और व्यक्ति जिनके पास वर्क प्रोवायडर (नियोक्ता) कम संसाधन वाले हों, या जो शुरुआती स्तर पर हों तो आवेदन कम हो सकते हैं। विशेष रूप से वे जो हर साल आवेदन मास्टर्स डिग्री आदि के लिए करते हैं। चयन मिलने की संभावना कम होने से चयन में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। क़ानून और नियमों में सख्ती से छोटे-बड़े दोनों कंपनियां पर असर होगा, लेकिन छोटे एवं मध्य-स्तर की सेवाएं देने वाली कंपनियों पर असर ज़्यादा होगा और काम के अवसर कम हो सकते हैं। कुछ नियोक्ता शायद विदेशी कर्मचारियों की जगह स्थानीय भर्ती पर ध्यान देंगे। कुल कोटा या कंट्री कैप ( वीज़ा या आप्रवासन सीमा) में बदलाव उन भारतीयों को जो अभी आवेदन करने के लिए तैयार हैं, और जो वर्षों से इंतजार कर रहे हैं, काफी संख्या में भारतीयों को वीज़ा नहीं मिल पाएंगी।
वीजा पाने की संभावना और अधिक मुश्किल हो जाएगी। हर साल लगभग 85,000 एच-1बी वीजा का कैप है। जिसमें 65,000 सामान्य और 20,000 मास्टर्स श्रेणी के हैं। भारतीयों को वर्तमान में लगभग 60,000 से अधिक वीजा प्रति वर्ष मिल रहा है। यदि स्वीकृति दर या आवेदन की संख्या में 30 से 40% की गिरावट आती है, तो लगभग 20,000-25,000 भारतीय आवेदनकर्ता सालाना प्रभावित हो सकते हैं क्योंकि उन्हें वीज़ा नहीं मिल पाएगी। यदि फीस बहुत ज्यादा हो जाती है और कोटा या नियम बहुत सख़्त हो जाएं तो यह संख्या इससे भी ज्यादा हो सकती है। अर्थात 30,000 से 40,000 भारतीय या उससे अधिक प्रभावित हो सकते हैं।
वित्त वर्ष 2024-25 में विभिन्न देशों में कार्य कर रहे भारतीयों द्वारा भारत में भेजे जाने वाले रेमिटेंस (प्रवासी भारतीय द्वारा भेजा गया धन) लगभग 11.93 लाख करोड़ रुपए था। जिसमें अकेले अमेरिका से वित्त वर्ष 2024-25 में प्रवासी भारतीयों द्वारा रेमिटेंस 3.30 लाख करोड़ रुपए भेजा गया है।भारत के लिए यह एक बड़ा स्रोत है क्योंकि प्रवासी भारतीयों की आय का एक हिस्सा रेमिटेंस के रूप में भारत भेजा जाता है। जानकारों का मानना है कि एच‑1बी पॉलिसी में कड़ाई आने पर अमेरिका से भारत आने वाले रेमिटेंस में लगभग ₹33,000 से 49,500 करोड़ की कमी आ सकती है।
अमेरिका में कई हाई-टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मेडिकल क्षेत्रों में स्थानीय प्रतिभा की कमी रहती है।
एच-1बी वीजा से उन्हें दुनिया भर (खासकर भारत, चीन) से कुशल इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक और आईटी प्रोफेशनल्स मिलते हैं। वीजा पर आए लोगों ने अमेरिका के स्टार्टअप इकोसिस्टम और बड़ी टेक कंपनियों (जैसे गुगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन) में अहम भूमिका निभाई है। गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला दोनों ही भारतीय हैं और एच-1बी से ही शुरुआत की थी। ये प्रोफेशनल्स टैक्स देते हैं, उपभोग बढ़ाते हैं और अमेरिकी अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं।
अमेरिकी कंपनियों को सस्ते और योग्य कर्मचारी मिलते हैं, जिससे उनकी लागत घटती है और मुनाफ़ा बढ़ता है।ग्लोबल टैलेंट लाने से अमेरिकी कंपनियां नवाचार और तकनीकी प्रतिस्पर्धा में आगे रहती है। अमेरिकी नागरिकों का एक वर्ग का कहना है कि एच-1बी वीजा के ज़रिए आने वाले प्रोफेशनल्स अमेरिकी नागरिकों की नौकरियां छीन लेते हैं। खासकर आईटी और प्रोग्रामिंग सेक्टर में स्थानीय कामगारों को प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। कई बार कंपनियां वीजा वर्कर्स को अपेक्षाकृत कम वेतन पर रख लेती हैं।
इससे अमेरिकी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि धीमी हो जाती है। भारतीय आईटी कंपनियां (इन्फोसिस, टीसीएस, वीप्रो आदि) बड़े पैमाने पर एच-1बी वीज़ा का इस्तेमाल करती हैं। अमेरिकी राजनीति में यह आरोप लगता है कि वे सस्ते लेबर लाकर अमेरिकी कर्मचारियों को दरकिनार करती हैं। अमेरिका के लिए एच-1बी वीजा दो धारी तलवार है। एक तरफ यह उसकी अर्थव्यवस्था और तकनीकी बढ़त को मज़बूत करता है। दूसरी तरफ यह स्थानीय अमेरिकी लोगों की नौकरी और वेतन से जुड़ी चिंताओं को जन्म देता है। इसलिए अमेरिकी सरकार अक्सर इसमें सुधार और बदलाव करती रहती है, जैसे लॉटरी सिस्टम, फीस वृद्धि, सैलरी मानक, नियोक्ता पर पाबंदियां आदि। सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी चुनौतियां बढ़ती हैं।
वीजा कर्मचारी को नियोक्ता पर निर्भर बना देता है।कभी-कभी इसका गलत फायदा उठाकर कंपनियां वर्कर्स से ज़्यादा काम लेती हैं या उनकी नौकरी की स्वतंत्रता सीमित कर देती हैं।“अमेरिका फर्स्ट” की नीति के कारण एच-1बी वीज़ा को लगातार निशाने पर लिया गया है, क्योंकि इसे अमेरिकी नौकरियों के लिए खतरा बताया जाता है। लेकिन हकीकत में यह अमेरिका की टेक्नोलॉजी और इनोवेशन के लिए ज़रूरी भी है। इसलिए अमेरिका इसका संतुलित उपयोग करता है और पूरी तरह बंद नहीं करता, लेकिन कठोर नियम लाकर दिखाता है कि पहली प्राथमिकता अमेरिकी नागरिकों की नौकरी है।“अमेरिका फर्स्ट” और एज-1बी पॉलिसी बदलावों का भारत पर गहरा असर पड़ेगा, क्योंकि इसका सबसे बड़े लाभार्थी भारतीय ही रहे हैं।भारत सरकार ने अमेरिका से बार-बार एच-1बी पॉलिसी पर भारतीय प्रोफेशनल्स को लेकर उदार रुख अपनाने की मांग की है।
(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।)