धरती आबा बिरसा मुंडा के समय अंग्रेजों ने आदिवासी कृषि व्यवस्था को सामंती राज्य में बदलने की प्रक्रिया को तेज़ कर दिया था। चूंकि आदिवासी अपनी आदिम तकनीक से अधिशेष पैदा नहीं कर सकते थे, इसलिए छोटानागपुर के प्रमुखों ने गैर-आदिवासी किसानों को भूमि पर बसने और खेती करने के लिए आमंत्रित किया। इससे आदिवासियों के पास मौजूद ज़मीनें उनसे अलग हो गईं।
ठेकेदारों का नया वर्ग ज़्यादा लालची किस्म का था और अपनी संपत्ति को बढ़ाने के लिए कृषि में विघटन पैदा करना शुरू कर दिया। इस कृषि विघटन और संस्कृति परिवर्तन की दोहरी चुनौतियों का सामना बिरसा मुंडा के नेतृत्व में विद्रोह और बगावत की एक श्रृंखला के माध्यम से किया गया। 25 वर्ष की छोटी सी आयु में, आज के झारखंड के उलिहातू गांव का वह बालक औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध जन-प्रतिरोध का महानायक बन गया।
जब ब्रिटिश अधिकारी और स्थानीय जमींदार जनजातीय समुदायों का शोषण कर रहे थे, उनकी ज़मीनें हड़प रहे थे और अत्याचार कर रहे थे तब भगवान बिरसा इस सामाजिक और आर्थिक अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े हुए और लोगों को अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए प्रेरित किया। धरती आबा बिरसा मुंडा के आंदोलन और उनके मृत्यु बाद अंग्रेज अधिकारियों को आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
उलगुलान, निस्संदेह, एक विद्रोह से कहीं बढ़कर था। यह लड़ाई न्याय और सांस्कृतिक पहचान दोनों के लिए थी। भगवान बिरसा मुंडा की सूझबूझ ने एक ओर जनजातीय लोगों द्वारा बिना किसी हस्तक्षेप के अपनी ज़मीन पर स्वामित्व और खेती करने के अधिकार को, तो दूसरी तरफ जनजातीय रीति-रिवाज़ों और सामाजिक मूल्यों के महत्व को एक साथ जोड़ दिया।
वर्तमान दौर का समय कहीं ज्यादा प्रतिकूल है। भारत में अधिकांश विकास परियोजना संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित की जा रही है। क्योंकि संसाधनों के मामले में आदिवासी क्षेत्र समृद्ध रहा है और अब भी है। इस इलाके में देश का 71%जंगल, 92%कोयला, 92% बाक्साइट, 78% लोहा, 100 % युरेनियम, 85% तांबा, 65% डोलोमाइट इत्यादि की भरमार है। भारत के जल स्रोत का 70% जल आदिवासी इलाके में है तथा करीब 80%उधोग के लिए कच्चा माल इन्ही क्षेत्रों से मिलता है। यह प्रकृति की ओर से मिला वरदान है। लेकिन यही वरदान इनके लिए चुनौती भी है, क्योंकि इन्ही संसाधनों की लूट और कब्जे को लेकर देश और दुनिया के कार्पोरेट की गिद्ध दृष्टि लगी है।
इन संसाधनों पर काबिज होने की प्रक्रिया काफी तेज हो गया है। द्रुत गति से बढ़ रही कथित विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन का सामाधान निकालने के लिए अबतक कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। तेजी से बढ़ते विस्थापन की सबसे अधिक मार देश के आदिवासी पर पङ रही है। 2016 में जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी की गई वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 1950 से 1990 के बीच देश में 87 लाख आदिवासी विस्थापित हुए थे जो कुल विस्थापितों का 40 प्रतिशत है। नर्मदा घाटी में प्रस्तावित बांधो से अभी तक लगभग 10 लाख लोग विस्थापित एवं प्रभावित हो चुके हैं।
देश के 19 राज्यों के 53 टाईगर रिजर्व से 848 गांव के 89808 परिवारों को ‘टाईगर रिजर्व’ के ‘कोर क्षेत्रों’ से विस्थापित किया जाना प्रस्तावित है जिनमें अधिकांश आदिवासी समुदाय के लोग हैं। अभी तक 257 गांवों के 25007 परिवारों को हटाया जा चुका है। विगत 19 जून 2024 को पर्यावरण मंत्रालय के ‘राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण’ (एनटीसीए) ने एक आदेश जारी किया है। इसमें सभी राज्यों के अधिकारियों को राज्य में घोषित किए गए ‘टाईगर रिजर्व’ के ‘कोर क्षेत्रों’ में मौजूद 591 गांवों और उनके 64801 परिवारों को प्राथमिकता के आधार पर स्थानांतरित करने का निर्देश शामिल है और इस पर ‘कार्य योजना’ तथा नियमित प्रगति रिपोर्ट मांगी गई है। आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक उलझाती है। यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएं बढाती है, फिर उन्हे पुरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढांचे पर समझौता करवाती है, शर्ते रखती है और समाज के संसाधनों पर एकाधिकार मांगती है।
विकास की इस विरोधाभास को जल्द से जल्द समझना होगा तथा विकास की नई परिभाषा गढ़ना होगा। जिसे समझाने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवश्यकता न पङे। इसलिए केवल विकास करते रहना ही जरूरी नहीं है, बल्कि अब विकास और विकास नीतियों की समीक्षा जरूरी है। 1986 मे संयुक्त राष्ट्र संघ ने विकास के अधिकार की उदघोषणा तैयार की, जिस पर भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए हैं। इस संधि के अनुसार विकास सभी नागरिकों का अधिकार है। विकास परियोजना के लिए तीन मापदंड निर्धारित किये गए हैं, (1)प्रभावित व्यक्तियों की सहमति, (2)परियोजना में निर्मित संसाधन के लाभ में हिस्सेदारी तथा (3)विकास के प्रभावितों का आजीविका के संसाधनों पर अधिकार।
वर्ष 2007 में आदिवासी समुदायों के अधिकारों का संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषणा पत्र जारी किया गया, जिसमें आजीविका के संसाधनों पर जनजातीय समाज के अधिकार सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण प्रावधान है ।दुर्भाग्य से भारत में इन किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संधियों का अनुसरण नहीं किया जाता है।
आदिवासी समाज हजारों वर्षों से प्राकृतिक संसाधनों यथा जंगल, पहाड़, नदियां, झरने, वनस्पति,पेङ,पौधौं एवं भूगर्भ में विद्यमान संसाधन की रक्षा कर रहे हैं। उनके जीवन की प्रवृत्तियां एवं उनका जीवन जीने का तरीका ही ऐसा है उससे उपर्युक्त संसाधनों का अनायास रक्षा होती रहती है। इसके विपरित भूमंडलीकरण का यह,वह दौर है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर लिया जाए की मानसिकता काम कर रही है। प्राकृतिक संसाधन अधिकतर उन्हीं क्षेत्रों में है जहां आदिवासी हजारों वर्षों से निवास करता आया है और साथ - साथ संसाधनों की रक्षा करता आया है। किन्तु वह कभी उन संसाधनों पर अपना मालिकाना हक जताने का दावा नहीं किया है।
किन्तु वैश्वीकरण के समय में पूंजीपतियों की गिद्ध दृष्टि इन संसाधनों पर टीकी हुई है। ऐसी स्थिति में आदिवासी समाज को इस संसाधनों की कार्पोरेट लूट से बचाना होगा। इस घुसपैठ से आदिवासी समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। आदिवासी समाज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करता आया है और वर्तमान में भी उनका संघर्ष जारी है। देशी पूंजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट में लगे राजनेता, प्रशासकों व बिचौलियों को यह लगता है कि जो लोग प्राकृतिक संसाधनों के लूट के खिलाफ आवाज उठाने वालों को डराकर या प्रलोभन देकर अपना रास्ता साफ किया जाए।
संवैधानिक जिम्मेदारी
उपरोक्त संवैधानिक स्थिति पर राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की 14 वीं रिपोर्ट (2018- 19) में दिये गए सुझाव और अवलोकन पर कार्यवाही करते हुए गृह मंत्रालय,दिल्ली द्वारा 29 अप्रेल 2022 को राज्यपाल के सभी प्रमुख सचिव व सचिव को पत्र लिख कर दिशा-निर्देश जारी किया गया है। पत्र में लिखा गया है कि राज्यपाल कार्यलय को पांचवी अनुसूचि के क्षेत्रों में लागू होने वाले कानून, विनियमन, अधिसूचना को सावधानीपूर्वक परिक्षण करना चाहिए। यह अधिकार संविधान से मिला हुआ है।परन्तु वाकई में राज्यपाल इस शक्ति का इस्तेमाल करते हैं? अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और सुशासन के लिए राज्यपाल को पांचवी अनुसूचि के पैरा(2) के तहत विनिमय बनाने का व्यापक अधिकार दिया गया है।जिसमें राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार को सीमित किया गया है। परन्तु राज्यपाल को व्यापक विधायी और प्रशासनिक अधिकारों से सक्षम किया है।
संविधान के अनुच्छेद 244 में व्यवस्था है कि किसी भी कानून को पांचवीं अनुसूचि वाले क्षेत्र में लागू करने के पुर्व राज्यपाल उसे जनजातीय सलाहकार परिषद को भेजकर अनुसूचित जनजातियों पर उसके दुष्प्रभाव का आकलन करवाएंगे और तदनुसार कानून में फेरबदल के बाद उसे लागू किया जाएगा। दुर्भाग्य से संविधान की यह चेतना स्पष्ट होते हुए भी सभी आदिवासी क्षेत्रों के लिए संविधान में विस्तृत व्यवस्था नहीं की गई जिसका मुख्य कारण था उनकी स्थितियों की विभिन्नता।इसलिए प्रत्येक समाज की विशिष्ट स्थिति को देखते हुए उनके अनुरूप न्यायसंगत व्यवस्था स्थापित करने का दायित्व और अधिकार पांचवीं अनुसूची में राज्यपालों को सौंपे गए हैं। भारत की अनुसूचित जातियों और जनजातियों के पूर्व आयुक्त, विख्यात चिंतक स्वर्गीय डाक्टर ब्रह्म देव शर्मा कहा करते थे कि "आदिवासियों के साथ सबसे बङी त्रासदी यह है कि उन्होंने अपने त्याग और बलिदान से ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति पा ली थी परन्तु आजाद भारत ने उन पर उपनिवेशकालीन कानून थोप कर गुलाम बना दिया।"
(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।)