गीता का पहला अध्याय अर्जुन विषाद योग है। प्रथम तो बड़े ही उत्साह से अर्जुन जी युद्ध करने के लिए रणांगण में जाते हैं,अपने सारथी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-

सेनयोरुभयोर्मध्ये

रथं स्थापय मेSच्युत

हे अच्युत!दोनों सेनाओं के मध्य में मेरा रथ स्थापित कर दीजिए। क्योंकि जिनके साथ युद्ध करना है, उन्हें मैं देखना चाहता हूं। अर्जुन अपने उत्साह को बढ़ाने के लिए उन्हें देखना चाहते थे, लेकिन जब देखा कि इस सेना में तो हमारे गुरुदेव द्रोणाचार्य जी, कृपाचार्य जी,पितामह भीष्म आदि हमारे स्वजन ही हैं। इन्हें मारकर राज्य करना भला कहां तक उचित होगा। अर्जुन के हाथों में कंपन होने लगा, धनुष हाथ से गिरने लगा।

कथं भीष्ममहं संख्ये,

द्रोणं च मधुसूदन।

     और वे बोले

पूजार्हावरिसूदन

हे मधुसूदन! जिनके साथ वाणी से भी युद्ध नहीं करना चाहिए उनके साथ मैं वाणों से कैसे युद्ध कर सकता हूं? तब भगवान ने कहा कि अर्जुन!

गतासूनगतासूंश्च

नानुशोचन्ति पंडिता:

जिनके प्राण चले गए हैं और जिनके नहीं गए हैं, दोनों के लिए शोक करना उचित नहीं है। शरीर के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता, इसलिए जो चले गए उनके लिए शोक नहीं करना चाहिए। और जो जीवित हैं उनके लिए भी शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि जो रण में युद्ध करते हुए मरता है, वह ब्रह्म लोक में जाता है।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके,

 सूर्य मंडल भेदिनौ।

दो ही पुरुष सूर्य मंडल का भेदन करके ब्रह्म लोक को जाते हैं। एक तो योग युक्त संन्यासी, और दूसरा रण में सम्मुख मरने वाला। जो रण से भागेगा वह तो नरक जायेगा। लेकिन युद्ध करते हुए जिसकी मृत्यु हो वह वीर गति को प्राप्त होता है। इसलिए शोक को छोड़कर स्वधर्म का पालन करो।

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तुम संन्यास की बात करते हो, उसके लिए अन्त:करण का निर्मल होना आवश्यक है, और वह निष्काम भाव से स्वधर्म का पालन करने से ही सम्भव है। तुम क्षत्रिय हो, क्षात्र धर्म का त्याग तुम्हारे लिए उचित नहीं है, इसलिए आवश्यक है कि दृढ़तापूर्वक अपने कर्त्तव्य का पालन करो, तब तुम्हारा अन्त:करण निर्मल होगा और तुम्हें परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।

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तुम्हारा कल्याण हो जायेगा। अतः अपने कल्याण की कामना करनेवाले प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म का पालन दृढतापूर्वक करना चाहिए।