समलोष्टाश्मकांचन:

सब प्राणियों में समता, सब प्रकार के मनुष्यों में समता, जय-पराजय में समता, हानि-लाभ में समता, सुख-दु:ख में समता, निन्दा-स्तुति में समता एवं मान-अपमान में समता का जीवन हम अपनाएं। हमारी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र सम्मत हो अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए यह विवेक जीवन में हो। प्राणीमात्र में परमेश्वर का दर्शन, सबसे निश्छल प्रेम, सबको सुख पहुंचाना और सबके सुख-दु:ख को अपने सुख-दु:ख के समान समझना एवं किसी भी परिस्थिति में संत स्वभाव का त्याग न करना, यही रहनी का अर्थ है।

स्पष्ट  जीवन-दर्शन के अभाव के कारण मनुष्य उचित अनुचित का विचार छोड़ रहा है। हिंसा बढ़ रही है। निरपराध मारे जा रहे हैं एवं सज्जनता उपहास का पात्र बन रही है। साथ ही कुछ लोग साधुता को पलायन वाद मानकर शठं प्रति शाठ्यम् का नारा बुलंद कर रहे हैं, किन्तु यह सिद्धांत है कि बुराई से बुराई को समाप्त नहीं किया जा सकता। हममें इतना मनोबल होना चाहिए कि हम बुराई का प्रतिवाद कर सकें एवं दीन- दुखियों की रक्षा के लिए आगे बढ़ सकें।

इस सम्बंध में गृध्रराज जटायु को दृष्टांत के रुप में लिया जा सकता है जिसने परनारी के हरण को रोकने के लिए अपने प्राण को हथेली में डालकर रावण के अत्याचार का विरोध किया। यह सराहनीय है किन्तु अन्याय, अत्याचार में मूक दर्शक बनना या अत्याचारियों के साथ जुड़ जाना मानवता के विरुद्ध है। राजनीति के क्षेत्र में भी सज्जनों को आगे आना चाहिए। उदार हृदय लेकर संतान के कल्याण के प्रति माता-पिता जैसा वात्सल्य पूरित हृदय लेकर और अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा-भक्ति युक्त होकर जनता के बीच में जाना चाहिए, यह सामाजिक रहनी का संक्षिप्त स्वरूप है।

कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो

श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें संत स्वभाव गहौंगो

जथालाभ संतोष सदा, काहू हों कछु न चहौंगो

परहित निरत निरंतर मन क्रम वचन नेत्र निबहौंगो

परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो

विगत मान सम शीतल मन पर गुन नहिं दोष कहौंगो

परिहरि देह जनित चिंता दुख सुख सम बुद्धि सहौंगो

तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि भगति लहौंगो

भावार्थ - क्या मैं कभी इस रहनी से रहूंगा? क्या कृपालु श्री रघुनाथ जी की कृपा से कभी मैं संतों का सा स्वभाव ग्रहण करूंगा। जो कुछ मिल जाएगा, उसी में संतुष्ट रहूंगा। किसी से कुछ भी नहीं चाहूंगा। मन, वचन, और कर्म से यम-नियमों का पालन करूंगा। कानों से अति कठोर और असह्य वचन सुनकर भी उससे उत्पन्न हुई आग में न जलूंगा। अभिमान छोड़ कर सबमें समबुद्धि वाला रहूंगा और मन को शांत रखूंगा। दूसरों की स्तुति-निंदा कुछ भी नहीं करूंगा। शरीर-सम्बंध चिंताएं छोड़ कर सुख और दुःख को समान भाव से सहूंगा। हे नाथ! क्या तुलसीदास इस मार्ग पर चलकर कभी अविचल भक्ति प्राप्त करेगा? यह है संतों की रहनी।