इनदिनों मध्यप्रदेश में बीजेपी की जीत के कारणों पर बात हो रही है तो अगला ही सवाल होता है कि मामा रहेंगे या जाएंगे। विधानसभा चुनाव के दौरान एक वक्त ऐसा आया जब साफ दिखाई दिया कि एंटीइंकम्बेंसी को देखते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय संगठन ने कमान हाथ में ली। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रचार अभियान का चेहरा नहीं रहे बल्कि उनका स्थान पीएम नरेंद्र मोदी ने ले लिया। पूरा कैंपेन ‘मोदी के मन में एमपी, एमपी के मन में मोदी’ स्लोगन के तहत चलाया गया। लेकिन लाड़ली बहना योजना और भावनात्मक संबोधनों से शिवराज सिंह चौहान फिर उठ खड़े हुए। लाड़ली बहना योजना का नाम लेना जैसे बीजेपी की मजबूरी हो गई।
परिणाम आने के बाद शिवराज सिंह चौहान का मुख्यमंत्री पद के लिए दावा और मजबूत हो गया है। उन्होंने बहनों को धन्यवाद देते हुए जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को दिया जबकि ये दोनों नेता मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज का नाम लेने से बचते आए हैं। सीएम पद के दावेदार सभी नेता दिल्ली पहुंच गए हैं लेकिन शिवराज इन सबसे अलग बहनों से मिलने, परिवार के साथ रेस्टोरेंट में खाना खाने जाने, प्रदेश में दौरान करने का काम कर रहे हैं। एक तरह से यह खुद की ब्रांडिंग ही है। हालांकि, वे बार-बार कह रहे हैं कि न तो वे पहले भी दावेदार नहीं थे और न अब हैं। लेकिन जनता के बीच लोकप्रियता के चलते संगठन शिवराज को नजरअंदाज नहीं कर पा रहा है। जबकि कार्यकर्ता शिवराज को हटाने के पक्ष में हैं।
मुख्यमंत्री की दौड़ में दूसरा बड़ा नाम केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल का है। वे ओबीसी राजनीति में बड़ा नाम बन कर उभरे हैं। खासकर तब जब उमा भारती पार्टी के प्रति सख्त रूख अख्तियार किए हुए थी और लग रहा था कि ओबीसी समाज की नाराजगी बीजेपी को भारी पड़ सकती है तब पटेल ने ओबीसी समुदाय को पार्टी से जोड़े रखने में अहम् भूमिका निभाई। ओबीसी वर्ग बीजेपी का बड़ा वोटर है और यदि शिवराज सिंह चौहान को दूसरी भूमिका दी जाती है तो उनके बदले ओबीसी प्रतिनिधि का विकल्प प्रहलाद पटेल ही होंगे। वे महाकौशल से आते हैं तथा बुंदेलखंड में प्रभाव रखते हैं। ये दोनों क्षेत्र पार्टी के लिए महत्वपूर्ण हैं।
मुख्यमंत्री के रूप में तीसरे दावेदार कैलाश विजयवर्गीय हैं। कैलाश विजयवर्गीय पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। उन्हें जब टिकट दिया गया तो यही माना गया कि अब प्रदेश में मुखिया की भूमिका में दिखाई देंगे। खुद उन्होंने भी सार्वजनिक रूप से बड़ी भूमिका मिलने का संकेत दिया। उनके खास समर्थक इंदौर से विधायक रमेश मेंदोला ने बयान दे चुके हैं कि जनता कैलाश विजयवर्गीय को मुख्यमंत्री देखना चाहती है।
अन्य दावेदारों में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, चुनाव हार चुके फग्गन सिंह कुलस्ते आदि शामिल हैं। इन दावेदारों में से अधिकांश दिल्ली जा कर केंद्रीय नेताओं से मिल चुके हैं। अभी यह तय होना बाकी है कि इस मशक्कत के बीच ताज किसके सिर सजेगा।
मुख्यमंत्री चुनने से बड़ा सवाल कैबिनेट में कौन?
बीजेपी नेतृत्व के लिए मुख्यमंत्री चुनना एक बार आसान निर्णय हो सकता है लेकिन कैबिनेट का गठन उतनी ही बड़ी चुनौती और संकट का कारण है। इसकी वजह है, जितने मंत्री पद हैं उससे दो गुना सशक्त दावेदार हैं।
सीटों की संख्या के हिसाब से प्रदेश मंत्रिमंडल में 35 मंत्री बनाए जा सकते हैं। यदि क्षेत्रीय समीकरण देखे जाएं तो बीजेपी ने विंध्य, महाकौशल, बुंदेलखंड, मालवा-निमाड़, ग्वालियर-चंबल सहित सभी क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन किया है। इन क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व देने के साथ ही जातीय समीकरण भी साधने होंगे। बीजेपी विधायक के रूप में 21 महिला प्रतिनिधि सदन में पहुंची हैं। इनकी भी दावेदारी होगी। साथी ही पुराने 12 मंत्री हारे हैं। जबकि कैलाश विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर, जयंत मलैया, राकेश सिंह, रीति पाठक, माया सिंह, अर्चना चिटनीस जैसे नेता फिर सदन में पहुंच गए हैं। कैलाश विजयवर्गीय खेमा तो कह रहा है कि कैलाश जी मंत्री नहीं बनेंगे। वे मुख्यमंत्री ही बनेंगे। मंत्री तो उनके समर्थक बनेंगे। यदि ऐसा होता है तो बीजेपी के मुख्यमंत्री को कैलाश जी जैसे वरिष्ठ नेताओं के दखल, सहमति-असहमति से भी निपटना पड़ेगा।
आपको याद होगा 2020 में भी मंत्रिमंडल विस्तार के बाद बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता सिंधिया खेमे को तवज्जो देने से नाराज हो गए थे। इसबार भी मुखिया को तमाम संतुलन के साथ ही पार्टी का गुटीय संतुलन भी साधना होगा। जाहिर है, वरिष्ठ नेताओं के साथ नए चेहरों को शामिल कर कैबिनेट का गठन मुख्यमंत्री के लिए पहाड़ सी चुनौती होगी।
हार से हताश कांग्रेस में कौन थामेगा कमान
कांग्रेस संगठन ही नहीं मैदानी कार्यकर्ता भी इस हार के कारणों की पड़ताल और अगली रणनीति को जानने-समझने में जुटे हुए हैं। सभी मान रहे हैं कि पार्टी को हार की हताशा तो त्याग को उठ खड़े होना होगा और मिशन 2024 के लिए दुनी ताकत से जुटना पड़ेगा। इस संकल्प को पूरा करने की जद्दोजहद के बीच बड़ा सवाल है कि संगठन और सदन के अंदर पार्टी की कमान थामने वाला कौन होगा?
मैदान से मिल रहे फीडबैक से कांग्रेस संगठन विश्वास में था कि 2018 की तरह इसबार भी वह सत्ता पा रही है लेकिन परिणाम के बाद स्थितियां उलट गई हैं। जीत के उत्साह से लबरेज पार्टी अब हार की हताशा से घिर गई है। इस पराजय के कारणों, तथ्यों, समीकरणों का हर एंगल से विश्लेषण, आकलन, समीक्षा किया जा रहा है। इस हताशा से उबरने की कोशिशों में एक कयास यह भी है कि इतनी हार के बाद अब संगठन के स्तर पर भी व्यापक बदलाव होंगे। कार्यकर्ता उम्मीद कर रहे हैं कि संगठन अब वैसा नहीं होगा। कयास लगाए जा रहे हैं कि वह चेहरा कौन होगा जो प्रदेश संगठन की बागडोर थामेगा और सदन में नेता प्रतिपक्ष के रूप में संगठन की आवाज बनेगा।
मंगलवार को प्रत्याशियों के साथ बैठक में हार के कारणों पर चर्चा के बाद प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ दिल्ली गए हैं जहां पार्टी नेताओं से मुलाकात करेंगे। चर्चा यह भी है कि नया नेतृत्व और नई सोच के साथ पुनर्जीवन करना चाहेगी। इसलिए उम्मीद जताई जा रही है कि पार्टी नए चेहरों को आगे कर नई जिम्मदारियां दे सकती है।
हार गए चुनौती बनने वाले नेता
विधानसभा चुनाव 2023 का परिणाम इस लिहाज से भी चौंकाने वाला था कि गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा, कृषि मंत्री कमल पटेल, आदिवासी नेता और केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते चुनाव हार गए। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर चुनाव हारते हारते बचे। ये सारे नेता बीजेपी में मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदार नेता है।
इतनी ही नहीं कांग्रेस खेमे से नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविंद सिंह, जीतू पटवारी, सज्जन सिंह वर्मा, प्रियव्रत सिंह जैसे दिग्गज नेताओं के हिस्से में हार ही आई। कांग्रेस की ओर से अधिकांश ऐसे नेता जीते हैं जो नए चेहरे हैं जबकि सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाले नेता अब सदन में दिखाई नहीं देंगे।