आजाद भारत में बापू का पहला सन्देश: अब भुलाने का दौर
तीन लेखों की श्रृंखला का पहला आलेख हम सबको यह विचार करना ही होगा कि भारतीय लोकतंत्र को क्या महज राजनीतिक दलों की दया पर निर्भर कर दिया जाए.. यदि हम ऐसा नहीं चाहते हैं तो आम नागरिकों को लोकतंत्र में अपनी भूमिका का विस्तार करना होगा। उसमें हस्तक्षेप के अपने अधिकार का ठीक इस्तेमाल करना होगा।

भारत को जिस दिन स्वतंत्रता मिली उस दिन महात्मा गाँधी दिल्ली में नहीं थे, उन्हें दिल्ली बुलाने के सारे जतन असफल हो गए। बापू कलकत्ता (कोलकाता) के हैदरी मंजिल में ही बने रहे। 5 अगस्त को वहां बेहद चहल-पहल थी. बहुत से मुस्लिम लोगों ने प्रण किया था कि वे बापू के दर्शन के बाद ही रोजा खोलेंगे। बापू रात 2 बजे उनसे मिल पाए तब उनका रोजा टूटा। कुछ हिन्दू भी उसमें शामिल हुए और बंगाल के नव नियुक्त मुख्यमंत्री प्रफुल्लचन्द्र घोष भी शपथ ग्रहण से पहले अपने मंत्रियों के साथ गांधी जी से आशीर्वाद लेने आए।
महात्मा गांधी ने आजाद भारत के अपने पहले औपचारिक सन्देश में उनसे कहा था, “आज आपने अपने सर पर कांटों का ताज पहना है। सत्ता की गद्दी निकृष्ट वस्तु है, उस गद्दी पर आप निरंतर जागरूक रहना। नम्र रहना, धैर्य रखना, आपको और अधिक सत्यनिष्ठ, अहिंसक, नम्र और धैर्यवान बनना चाहिए। सत्ता की चकाचौंध से चौंधिया मत जाना। ब्रिटिश राज के दौरान आपकी कसौटी हुई थी। परन्तु एक अर्थ में तो वह कसौटी ही नहीं थी। अब आपकी अपार कसौटियां होंगी। संपत्ति के मोह में न पड़ना और याद रखना कि आप गावों तथा गरीबों के लिए सत्ता ग्रहण कर रहे हो। भगवान आपकी सहायता करें।
हम आज आजादी के 75वें वर्ष में हैं। आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और संसद का यह सत्र जो 18 जुलाई से 13 अगस्त तक चलेगा, में जो कुछ भी घटित हुआ है, हो रहा है, और जो संभाव्य नजर आ रहा है, वह वास्तव में बेहद विचलित कर देने वाला है। विपक्ष के साथ जैसा व्यवहार हो रहा है, वह सर्वथा अकल्पनीय है। आजादी के 75वें वर्ष में आहूत संसद के सत्र में दो दर्जन सांसदों का निलंबन स्पष्ट कर रहा है कि भारतीय लोकतंत्र को किस ओर ले जाया जा रहा है । महात्मा अपने संदेश में सत्यनिष्ठ, अहिंसक, नम्र, धैर्यवान, ईमानदार होने और गांव और गरीबों के प्रति संवेदनशील होने की बात कर रहे हैं और आज दिखाई तो इसके ठीक उलट दे रहा है। विपक्षी सांसद लगातार बढ़ रही मंहगाई पर बहस की मांग कर रहे हैं और सरकार व आसंदी इससे सहमत नहीं है। क्या किसी मंत्री के अस्वस्थ्य होने से देश की सबसे प्रमुख समस्या पर चर्चा नहीं कराई जा सकती है?
होना तो यह चाहिए था कि इस महत्वपूर्ण अवसर पर संसद का विशेष सत्र बुलाकर भारत की वर्तमान समस्याओं, उनके समाधान और भविष्य की परिस्थितियों पर विस्तृत चर्चा होती। परंतु ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है। बल्कि सारा भारत प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की गतिविधियों के इर्द-गिर्द स्वयं को संचालित करता प्रतीत हो रहा है। नए राष्ट्रपति के संबंध में प्रयुक्त शब्द को लेकर जो बवाल मचा है, वह समझा रहा है कि भारत में लोकतंत्रात्मक प्रक्रिया कमोवेश खोखली हो चुकी है। अच्छा तो यह होता कि स्वयं राष्ट्रपति इस विवाद का पटाक्षेप कर नए माहौल का सृजन करतीं, परंतु ऐसा नहीं हो पाया। बापू का आजादी के बाद का पहला संदेश जिसे कलकत्ता (अब कोलकाता) में दिया गया था वहां की नवीनतम घटना, जिसने पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी की परिचिता अभिनेत्री के यहां 50 करोड़ से ज्यादा की बरामदगी दर्शा रही है कि आजादी के सपने कैसे चूर-चूर हो रहे हैं। 15 अगस्त 1947 को देश में सांप्रदायिक तनाव कमोवेश चरम पर था। 15 अगस्त 2022 के अमृत काल में हम दुआ कर रहे हैं कि सद्भाव बना रहे। या क्या हम उन्हीं वैमनस्यपूर्ण दिनों की और लौट रहे हैं।
नए किस्म के राष्ट्रवाद ने जिस तरह का वातावरण देश में तैयार किया है, उसमें समुदायों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। कर्नाटक में सांप्रदायिक हत्याओं का जैसे दौर ही प्रारंभ हो गया है। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गोवा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि की सांप्रदायिक स्थिति किसी से छिपी नहीं है। पूंजी और बाजार पर बढ़ता एकाधिकार आम व्यक्ति के लिए फांसी का फंदा साबित हो रहा है। सरकारी कर्मचारी आत्महत्या कर रहे हैं, निजी क्षेत्र के कर्मचारी आत्महत्या कर रहे हैं, छोटे व्यापारी आत्महत्या कर रहे हैं, छोटे उद्योगपति आत्महत्या कर रहे हैं, युवा आत्महत्या कर रहे हैं साथ ही सामुदायिक आत्महत्याओं का दौर भी शुरू है और अब तो बड़ी संख्या में विद्यालयीन छात्र आत्महत्याएं कर रहे हैं। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, मध्य, उत्तरपूर्व भारत में हर जगह आत्महत्याओं की निराशा कैसे थमेगी?
बेरोजगारी, चरम पर है। मंहगाई चरम पर है, सांप्रदायिक विद्वेष चरम पर है। सर्वोच्च् न्यायालय, सी.बी.आई., ईडी, रिजर्व बैंक जैसे तमाम संस्थानों की ओर जनता अपेक्षा भरी नजरों से देख रही है। नकारात्मक आंकड़ों के डर से भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं, बच्चों, उद्योग, पर्यावरण की स्थितियों से संबंधित आंकड़े अब कमोबेश दिखना बंद से हो गए हैं। गैर सरकारी संगठनों व संस्थाओं पर सरकारी शिकंजा लगातार कठोर होता जा रहा है।
स्वतंत्रता की परिपक्वता का एक पैमाना तो यह भी है कि नागरिकों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित सभी मौलिक अधिकारों का पूरा सम्मान हो। परंतु अब तो कानूनों को कठोर से भी कठोरतम किया जा रहा है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर इतनी आशंकाएं तो पहले कभी नहीं थीं। आजादी के 75वें वर्ष में इन सब बातों पर संसद और विधानसभाओं में चर्चा ही नहीं हो रही है। उम्मीद तो यह थी कि केन्द्र व राज्य सरकारें, आजादी के इस महोत्सव के मद्देनजर, जेल में बंद तमाम असहमत लोग, जो कि सीधे-सीधे सशस्त्र संघर्ष से जुड़े नहीं हैं, को असीमित पेरोल पर रिहा करके भारत में मेल-जोल के नए युग की शुरूआत करेंगी, लेकिन यहां तो संसद में ही गतिरोध है। स्मृति ईरानी का सोनिया गांधी के प्रति जिस तरह के आक्रोष का विस्फोट हुआ उसने एक नई तरह के संसदीय आचरण को हम सबके सामने उजागर किया है।
भारतीय संसद के इस सत्र के पहले 15 दिन इस विवाद में नष्ट हो गए क्योंकि विपक्ष दल, मंहगाई व जीएसटी पर तुरंत चर्चा करना चाह रहे थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस मांग को तुरंत स्वीकार नहीं किया गया। अब सोमवार को इस पर चर्चा होने की संभावना है। यही निर्णय 15 दिन पूर्व भी लिया जा सकता था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। क्यों? यह हम सब अच्छे से जानते हैं कि ऐसा क्यों नहीं किया गया। सखाराम गणेश देउस्कर ने सन 1904 इस्वी में बंग्ला में एक पुस्तक लिखी थी, “देश की बात”। उस पुस्तक की इन पंक्तियों पर गौर करिए। सन् 1898 में रायबरेली के डिप्टी कमिश्नर मि. आरविन अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, (वहां के निवासियों के लिए) Hunger is very much a matter of habitat यानी भूख अब एक आदत बन गई है। इसी दौरान में ऐटा जिले के तत्कालीन कलेक्टर क्रूक की भी एक रिपोर्ट है। उनका निष्कर्ष है कि जिस किसान के पास 16.5 बीघा जमीन, एक हल और एक जोड़ा बैल व जमीन सींचने लायक कुंआ है, उसकी फसल खरीफ से 129.5 रूपये की आय होती है और फसल रबी से 84.5 रूपये। इन 214 रूपये में से वो 75 रूपये सरकार को कर देता है, 13.5 रूपये बीज खरीदने में और 79.37 रूपये खेती के ऊपर अन्य खर्च करता है। किसान को लाभ होता है 45.87 रूपये। फिर व्यक्तिगत खर्च- चार आदमियों के लिए दो दिन में कम से कम 3 सेर चावल व अन्य खाद्य पदार्थ। 7 रूपये में 25 सेर के हिसाब से कुल 43 रूपये का अनाज और कपड़े पर आठ रूपये का खर्च। यानी चार लोगों के लिए न्यूनतम 51 रूपये जीवनयापन को चाहिए। इसका अर्थ है हर साल किसान 5 रूपये का कर्ज लेता है।
आज 130 साल बाद और आजादी के 75 वर्ष बाद किसानों की ऋण-ग्रस्तता में कितना परिवर्तन आया? वे स्थायी कर्ज में हैं। जीएसटी की दरें 28 प्रतिशत तक हैं। तमाम अन्य कर व शुल्क अलग से हैं। तब 1 रूपये में 25 सेर चावल आता था। आज 40 रूपये में एक किलो चावल आता है और भारतीय किसान परिवार की वर्तमान में औसत आय उत्तरप्रदेश में प्रतिमाह 4923 रूपये है और खर्च 6230 रूपये। बिहार में आय 3558 रूपये प्रति माह है और खर्च 5485 रूपये। मध्यप्रदेश में स्थिति थोड़ी बेहतर है यहां मासिक आय 6210 रूपये है और खर्च 5019 रूपये। यानि करीब 1000 रूपये प्रति माह की बचत। परंतु वास्तविक स्थिति कुछ और ही बता रही है। संसद को न तो किसानों की स्थिति पर चर्चा का समय है और न मंहगाई पर। वस्तुतः आवश्यकता तो यह है कि किसानों की स्थिति पर संसद के दोनों सदनों का एक विशेष सम्मिलित सत्र हो और इसमें दलगत राजनीति से ऊपर उठकर किसानों की समस्याओं पर विस्तृत चर्चा हो। इस विशेष सत्र में कृषि वैज्ञानिकों व कृषकों को भी संसद में आमंत्रित कर उनसे सुझाव लिए जाएं।
भारत की संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति अविश्वास फैलाने के सायास प्रयास हो रहे हैं। देश को राष्ट्रपति प्रणाली की ओर ले जाने के जतन जोर-शोर से किए जा रहे हैं। ऐसे प्रयास पिछली एनडीए सरकार के कार्यकाल में भी हुए थे। तब यह साफ सामने आया था कि संविधान के मूल स्वरूप से किसी भी प्रकार की छेड़छाड नहीं की जा सकती है। वर्तमान परिस्थितियां पुनः उसी ओर इशारा कर रही हैं। हम सबको यह विचार करना ही होगा कि भारतीय लोकतंत्र को क्या महज राजनीतिक दलों की दया पर निर्भर कर दिया जाए? यदि ऐसा नहीं चाहते हैं तो आम नागरिकों को लोकतंत्र में अपनी भूमिका का विस्तार करना होगा। उसमें हस्तक्षेप के अपने अधिकार का ठीक इस्तेमाल करना होगा।
आजादी के 75वें वर्ष में अभी तक ऐसा कोई राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम प्रकाश में नहीं आया है, जिसमें भारत के सभी राजनीतिक दलों की समान भूमिका और महत्व हो। ऐन वक्त पर राष्ट्रीय झंडे के पालियस्टर स्वरूप की स्वीकृति से समझ में आ रहा है कि भारत का वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य, उन मूल्यों को भुला देना चाहता है, जिनके माध्यम से और जिनके लिए हमने आजादी हासिल की थी। इतना ही नहीं, मूल्यहीनता इसका अलंकार बनती जा रही है। दिल्ली स्थिति गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, जो कि मूलतः एक सरकारी संस्थान है और प्रधानमंत्री, उसके अध्यक्ष हैं, ने अपनी आधिकारिक पत्रिका “अंतिम जन” का नवीनतम अंक विनायक दामोदर सावरकर पर केन्द्रित किया है। गौरतलब है कि सावरकर महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में संदेह के लाभ के आधार पर छोड़ दिए गए थे, परन्तु बाद में गठित “कपूर आयोग” ने तो उन्हें इसमें संलिप्त पाया था। दोषी या दोषमुक्त के विवाद में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि महात्मा गांधी पूरी तरह से अहिंसा के पैरोकार थे और विनायक सावरकर का इसमें यकीन नहीं था। इस तरह के घटनाक्रम बता रहे हैं कि सर्वोच्च स्तर पर किस तरह की सोच काम कर रही है।
“मजाज” लखनवी की नज्म “पहला जश्ने आजादी,” जो उन्होंने सन् 1947 में लिखी थी की अंतिम पंक्तियां हैं, -
ये इंकलाब का मुजदा (शुभ संदेश) है इंकलाब नहीं,
ये आफताब (सूरज) का परतौ (आभास) है, आफताब नहीं,
वे जिसकी ताबों-तवाई (चमक और ऊर्जा) का जवाब नहीं,
अभी तो सई-ए-जुनंखेजं (जुनूनभरी कोशिश) कामयाब नहीं,
ये इंतिहा नहीं आगाजे-कारे-मरदां (व्यक्ति के काम का आरंभ) है।
क्या आजादी 75 साल बाद भी वहीं पर कदमताल कर रही है ?
((चिन्मय मिश्र गांधीवादी विचारधारा के स्वतंत्र लेखक हैं))