मीठा कफ सिरप का जहरीला कारोबार
यूनिसेफ़ ने अपने बाल स्वास्थ्य दिशा-निर्देशों में कहा है कि कफ सिरप बच्चों के उपचार में अनुशंसित नहीं हैं। इसके स्थान पर गुनगुने तरल पदार्थ, एक वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों के लिए शहद, और लक्षणों की निगरानी जैसी सुरक्षित विधियों की सलाह दी गई है।

मध्य प्रदेश में जहरीले कफ सिरप से मरने वाले बच्चों की संख्या 16 हो गया है। हाल ही में राजस्थान के भरतपुर और सीकर ज़िले में भी बच्चों को कप सिरप पिलाने से मौत हुई है। बच्चों को दिए गए सिरप में डाय- एथिलीन ग्लाइकोल (डीईजी) एवं एथिलीन ग्लाइकोल (ईजी) जैसे कूलेंट(ठंडा रखने वाला तरल पदार्थ) के लिए उपयोग होने वाले घातक रसायन पाए गए हैं, जो अत्यंत विषैले हैं। यह गुर्दे, लीवर और मस्तिष्क पर घातक असर डालता है। दवाओं में इनका प्रयोग पूर्णतः गैरकानूनी है।
डीईजी ग्लिसरीन में पाया जाने वाला सबसे आम संदूषक( कंटेमीनेशन ) है। इसमें ग्लिसरीन की तरह ही गाढ़ा करने और आराम देने वाले गुण होते हैं। डीईजी एक औद्योगिक विलायक(सोल्वेंट) है जिसका उपयोग "एंटीफ्रीज़ और पॉलिएस्टर फाइबर बनाने के लिए कच्चे माल के रूप में" किया जाता है। कंपनियां कभी-कभी तरल दवाओं, जैसे कि कफ सिरप, में अवैध मिलावट के रूप में डीईजी का इस्तेमाल करती हैं, क्योंकि यह ग्लिसरीन जैसे गैर-विषैले विलायकों का एक सस्ता विकल्प है।
संदूषण के माध्यम से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए निर्माताओं या आपूर्तिकर्ताओं द्वारा जानबूझकर मिलावट किया जाता है। मेडिसिन के जानकार डाक्टर अनंत फङके, पुणे बताते हैं कि बाजार में उपलब्ध अधिकांश कफ सिरप अविवेकपूर्ण (इरेशनल) हैं, परंतु कुछ कफ सिरप अविवेकपूर्ण नहीं हैं।अविवेकपूर्ण कफ सिरप वे होते हैं जिनमें एक साथ दो परस्पर विरोधी तत्व मिलाए जाते हैं। एक कफ दबाने वाला पदार्थ और दूसरा बलगम निकालने वाला जो एक-दूसरे के कार्य को निष्फल कर देते हैं।
इनके साथ अक्सर कुछ बेकार या अप्रभावी तत्व भी मिलाए जाते हैं। यदि किसी कफ सिरप में केवल एम्ब्रोक्सोल हो, तो वह अविवेकपूर्ण कफ सिरप नहीं माना जाता। हाल के वर्षों में भारत के कई राज्यों में विशेषतः मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और बिहार में कफ सिरप के दुरुपयोग व काला कारोबार के मामले तेजी से बढ़े हैं। कफ सिरप का काला कारोबार केवल कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा का सवाल है। यह न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है बल्कि दवा नियमन, कानून और उद्योग एवं प्रशासन तीनों की नैतिक विफलता का संकेत भी है।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे. पी.नड्डा ने एडवाइजरी किया है कि दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों को कफ सिरप (खांसी की दवा) नहीं दी जानी चाहिए, और दो वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को केवल डॉक्टर की सलाह पर ही कफ सिरप दी जाए। यह बाल स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए एक अत्यंत आवश्यक कदम है। जन स्वास्थ्य अभियान, इंडिया के अमुल्य निधि ने कहा कि हाथी समिति रिपोर्ट (1975) ने अनुशंसा की थी कि अविवेकपूर्ण और अनावश्यक औषधि संयोजन, जैसे कि कफ सिरप, को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाना चाहिए। समिति ने स्पष्ट कहा था कि कफ सिरप का कोई सिद्ध चिकित्सीय लाभ नहीं है और इससे प्रतिकूल प्रभावों का खतरा बढ़ जाता है।
2022 में, कई देशों ने बच्चों के लिए ओवर-द-काउंटर कफ सिरप के डीईजी और एथिलीन ग्लाइकॉल (ईजी) के विषाक्त स्तर से दूषित होने की घटनाओं की सूचना दी थी, जिसके परिणामस्वरूप गाम्बिया, इंडोनेशिया और उज्बेकिस्तान में 300 से अधिक बच्चों की मौत हो गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रभावित देशों में इन घटनाओं से निपटने के लिए 2022 के अंत तक और 2023 के मध्य तक 5 चिकित्सा उत्पाद अलर्ट जारी किए थे।
इंडोनेशिया में स्वास्थ्य अधिकारियों ने 144 बच्चों की मौत के बाद कुछ कफ सिरप-आधारित दवाओं की बिक्री अस्थायी रूप से रोक दी थी ।विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बार-बार कहा है कि खांसी और सर्दी की दवाएं पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में उपयोग नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि इनका प्रभाव बहुत कम होता है और गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
यूनिसेफ़ ने अपने बाल स्वास्थ्य दिशा-निर्देशों में कहा है कि कफ सिरप बच्चों के उपचार में अनुशंसित नहीं हैं। इसके स्थान पर गुनगुने तरल पदार्थ, एक वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों के लिए शहद, और लक्षणों की निगरानी जैसी सुरक्षित विधियों की सलाह दी गई है।भारत में इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (आईएपी) भी चार वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कफ सिरप के नियमित उपयोग के विरुद्ध सलाह देती है, यह कहते हुए कि इसकी प्रभावशीलता का कोई प्रमाण नहीं है और यह बच्चों के लिए नुकसानदायक हो सकता है। अब आवश्यक है कि औषधि नियंत्रण व्यवस्था को सुदृढ़ किया जाए। दवाओं के निर्माण, वितरण और गुणवत्ता नियंत्रण पर कड़ी निगरानी तत्काल सुनिश्चित की जाए।
मशेलकर समिति (2004) की सिफारिश के अनुसार, औषधि प्रशासन (एफडीए) को सुदृढ़ किया जाए। पर्याप्त संख्या में औषधि निरीक्षकों की नियुक्ति की जाए और उनकी कार्यप्रणाली को पारदर्शी व जवाबदेह बनाया जाए।जन स्वास्थ्य अभियान इंडिया ने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को पत्र लिखकर मांग किया है कि सरकारी आपूर्ति श्रृंखलाओं (राज्य स्वास्थ्य विभागों और केंद्रीय एजेंसियों) से सभी कफ सिरप को तुरंत हटाया जाए।
राजस्थान और मध्य प्रदेश में कफ सिरप से हुई मौतों के लिए जिम्मेदार निर्माताओं और अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई की जाए। इन घटनाओं ने दिखाया है कि राज्य और केंद्र के ड्रग कंट्रोलर तंत्र में निगरानी की गंभीर कमी है। यदि नियमित सैंपल टेस्टिंग, निरीक्षण और “ट्रैक एंड ट्रेस सिस्टम” ठीक से लागू होते, तो ऐसी त्रासदी टाली जा सकती थी। जबकि
ड्रग कंट्रोलर” अधिकारी का पद भारत में दवाओं की गुणवत्ता, विनियमन, निरीक्षण और अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार होता है। जिसमें यदि कोई शिकायत आती है कि किसी दवा में अशुद्धियां या विषाक्तता हो सकती है, तो तुरन्त उस दवा के सैंपल लेना, दवा को बाजार से हटाने की कार्रवाई करना। जिम्मेदारों (निर्माता, वितरक, विक्रेता) के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना।
यदि किसी दवा की गुणवत्ता मानकों को पूरा न करती हो या वह जोखिमपूर्ण पाई जाए, तो उससे संबंधित लाइसेंस रद्द करना, या उस दवा के निर्माण एवं बिक्री पर प्रतिबंध लगाना। राजस्थान सरकार ने राज्य स्तर के ड्रग कंट्रोलर “राजाराम शर्मा” को निलंबित कर दिया है।यह संकेत है कि प्रशासन ने मान लिया कि ड्रग कंट्रोलर की कार्यप्रणाली में गंभीर चूक हुई है। केवल दवा कंपनी को दोषी ठहराना पर्याप्त नहीं है। निरीक्षण अधिकारियों, आपूर्ति अधिकारियों, और नियामक निकायों की भी जवाबदेही तय करनी होगी। “सिस्टम की चूक” पर संस्थागत जवाबदेही तय की जाए, ताकि अगली बार कोई अधिकारी निरीक्षण में लापरवाही न करे।
(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।)