सिंदूर और मंगलसूत्र में नुसरत जहां देश की मिलीजुली संस्कृति के जिंदा होने का सबूत हैं
नुसरत जहां पहली बार लोकसभा की सदस्य निर्वाचित हुईं हैं। उन्होंने हाल ही में निखिल जैन से विवाह किया है। उनके विवाह ने तो लोगों का ध्यान आकर्षित किया ही, उससे भी अधिक चर्चा इसकी हुई कि जब वह लोकसभा में बतौर सदस्य शपथ लेने पहुंचीं तब वह मंगलसूत्र पहने हुईं थीं और उनकी मांग में सिंदूर था।
नुसरत जहां पहली बार लोकसभा की सदस्य निर्वाचित हुईं हैं। उन्होंने हाल ही में निखिल जैन से विवाह किया है। उनके विवाह ने तो लोगों का ध्यान आकर्षित किया ही, उससे भी अधिक चर्चा इसकी हुई कि जब वह लोकसभा में बतौर सदस्य शपथ लेने पहुंचीं तब वह मंगलसूत्र पहने हुईं थीं और उनकी मांग में सिंदूर था। किसी मुस्लिम स्त्री को सिंदूर और मंगलसूत्र पहने देखकर जिन लोगों को आश्चर्य हुआ, वे शायद यह नहीं जानते कि भारत एक मिलीजुली संस्कृति वाला देश है जिसमें विभिन्न धर्म और उनकी संस्कृतियां एक-दूसरे को प्रभावित करती रही हैं और आज भी कर रही हैं।
नुसरत जहां के विवाह से नाराज देवबंद के एक मौलाना ने बयान जारी कर दिया कि कुरान के अनुसार, किसी मुस्लिम का गैर-मुस्लिम से विवाह प्रतिबंधित है। इसके जवाब में साध्वी प्राची ने एक वक्तव्य में नुसरत जहां का बचाव करते हुए कहा कि जब कोई हिन्दू स्त्री किसी मुस्लिम पुरूष से विवाह करती है, तब उसे बुर्का आदि पहनना होता है। इसलिए इसमें क्या गलत है अगर कोई मुस्लिम स्त्री किसी हिंदू पुरूष से विवाह करे तो वह अपनी मांग में सिंदूर भरे या मंगलसूत्र पहने।
इस आलोचना का नुसरत जहां ने ट्विटर के जरिये अत्यंत गरिमापूर्ण जवाब दिया। उन्होंने लिखा, ‘‘मैं एक समावेशी भारत का प्रतिनिधित्व करती हूं जो धर्म, जाति और नस्ल की सीमाओं से ऊपर है।‘‘ उन्होंने आगे लिखा, ‘‘मैं मुसलमान बनी रहूंगी और किसी को इस पर टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है कि मैं क्या पहनती हूं। आस्था, पहनावे से बहुत ऊपर है। आस्था का संबंध विश्वासों से है। शादी एक व्यक्तिगत मसला है और कोई व्यक्ति क्या पहनता है और क्या नहीं, यह भी उसकी व्यक्तिगत पसंद है।”
जहां तक मंगलसूत्र, बिंदी और साड़ी का सवाल है, ये सभी भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं। जो लोग उन्हें पहनते हैं, उनका स्वागत है, लेकिन उन्हें किसी पर लादना निश्चित तौर पर गलत है। सदियों से हिन्दू और मुसलमान इस देश में एक साथ रहते आए हैं और वे एक-दूसरे की प्रथाओें और आचरणों को अपनाते रहे हैं।
परस्पर सम्मान, भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण तत्व रहा है, और है। जहां संप्रदायवादी तत्व दूसरे धर्मों के प्रतीकों के इस्तेमाल का विरोध करते आए हैं, वहीं आम लोगों को एक-दूसरे की परंपराओं को अपनाने से कोई परहेज नहीं रहा है। हममें से जो लोग कट्टरपंथी और संकीर्ण सोच वाले हैं, वे इस तरह की प्रवृत्तियों से विचलित हो जाते हैं और इस पर खूब शोर मचाते हैं। लेकिन जो लोग खुले दिलो-दिमाग वाले हैं वे संस्कृतियों के इस मिलन का स्वागत करते हैं, उसे अपनाते हैं और हमारी विविधता का उत्सव मनाते हैं।
हमारे देश में विभिन्न धर्मों के त्योहारों को मिलजुल कर मनाने की परंपरा भी है। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज‘ में हमारी इस सांझा सांस्कृतिक विरासत का दिलचस्प वर्णन किया है। लेखक सुहेल हाशमी की ‘हिन्दुस्तान की कहानी‘ श्रृंखला भी भारतीय संस्कृति के इसी मर्म को छूती है।
इस पृष्ठभूमि में, नुसरत जहां ने जो करना या जो पहनना तय किया, उसका विरोध चिंता में डालने वाला है। हमें देश की विविधता को स्वीकार करना सीखना होगा। हमें यह सीखना होगा कि समन्वय और सहिष्णुता भारत की आत्मा है। देवबंद के मौलाना के बयान को अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए।
भारतीय संविधान और भारतीय मूल्य हमारे पथप्रदर्शक होने चाहिए। इस मौलाना के विपरीत, कई ऐसे इस्लामिक अध्येता हैं, जिन्हें मुस्लिम महिलाओं के गैर-मुस्लिमों से विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है। ऐसे इस्लामिक अध्येता भी हैं जो अंतरधार्मिक विवाहों के अलावा एक ही लिंग के व्यक्तियों के बीच विवाह-जैसे संबंधों को मान्यता देते हैं। मूल बात यह है कि पिछली कई सदियों में जिन सामाजिक मूल्यों का हमारे देश में विकास हुआ है, वे हमारी बहुमूल्य विरासत हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कई फतवों ने पूरी दुनिया में बवाल मचाया है। इनमें से एक अयातुल्लाह खौमेनी द्वारा सलमान रूश्दी के खिलाफ जारी किया गया फतवा भी था। यह फतवा रूश्दी की पुस्तक ‘सेटेनिक वर्सेस‘ के संदर्भ में जारी किया गया था और एक राजनैतिक खेल का हिस्सा था। परंतु ऐसे सैकड़ों फतवे हैं जो जारी होते रहते हैं और जिनकी न तो कोई चर्चा होती है और जिनकी न कोई परवाह करता है।
साध्वी प्राची ने जो कुछ कहा, वह केवल उनकी पार्टी की राजनीति का हिस्सा है। वे उन अंतर्धार्मिक विवाहों का स्वागत कभी नहीं करेंगीं जिनमें वधू हिन्दू हो और वर किसी अन्य धर्म का। इस तरह के विवाह को सांप्रदायिक तत्वों ने ‘लव जिहाद’ का नाम दिया है। आरोप लगाया जाता है कि मुस्लिम पुरूष, हिन्दू महिलाओं को बहला-फुसलाकर उनसे विवाह कर लेते हैं और उन्हें इस्लाम अपनाने पर मजबूर करते हैं।
इस आरोप को तब चर्चा मिली थी जब केरल की हिन्दू लड़की हादिया ने एक मुस्लिम लड़के से विवाह कर इस्लाम अंगीकार कर लिया था। एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद उसने अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार हासिल किया। इसके अलावा प्रियंका तोड़ी और रिजवान के प्रेम संबंध, रिजवान की मौत से समाप्त हुए। इसी तरह दिल्ली में एक मुस्लिम लड़की के परिवारजनों ने अंकित सक्सेना नामक उस युवक की हत्या कर दी थी, जिससे वह विवाह करना चाहती थी। इस विषय पर बनी फिल्म ‘तुरूप‘ देखने लायक है।
सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ के उभार के साथ, समाज की विभाजक रेखाएं और गहरी हुई हैं। नुसरत जहां ने देवबंद के मौलाना को गंभीरता से लेने से इंकार कर दिया है। यह बिलकुल ठीक है। उन्हें अपने धर्म की व्याख्या करने की पूरी स्वतंत्रता और अधिकार है। उनका ट्वीट, उन सभ्यतागत मूल्यों का अत्यंत सारगर्भित वर्णन करता है, जो भारत में पिछली कई सदियों में विकसित हुए हैं। यह दुःखद है कि पिछले कुछ दशकों में ये मूल्य कमजोर हुए हैं और हिन्दुओं की प्रथाओं और आचरणों को इस देश की प्रथाओं और आचरणों के रूप में प्रचारित करने का प्रयास किया जा रहा है।
अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाह, देश की एकता को मजबूत करते हैं। बाबासाहेब अम्बेडकर मानते थे कि अंतर्जातीय विवाहों से जाति के उन्मूलन में मदद मिलेगी। महात्मा गांधी केवल अंतर्जातीय विवाह समारोहों में शिरकत किया करते थे। क्या कारण है कि हम इतने संकीर्ण हो गए हैं कि एक ओर खाप पंचायतें सगोत्र विवाहों के नाम पर खून-खराबा कर रही हैं तो दूसरी ओर सांप्रदायिक तत्व, अंतर्धार्मिक विवाहों की खिलाफत कर रहे हैं।
हाल में ‘दंगल‘ फिल्म में अपनी भूमिका के लिए चर्चित जायरा वसीम ने यह घोषणा की है कि वे बॉलीवुड को अलविदा कह रही हैं, क्योंकि फिल्मों में अभिनय, उनके धर्म के पालन में आड़े आ रहा है। वे फिल्मों में काम करना चाहती हैं या नहीं, इसका निर्णय उन्हें और केवल उन्हें करना है, लेकिन हम सब जानते हैं कि बॉलीवुड और क्षेत्रीय भाषाओं के फिल्म उद्योग में मुस्लिम अभिनेत्रियों की भरमार रही है, और है। इस तरह, जहां एक ओर नुसरत जहां जैसे लोगों का इसलिए विरोध किया जा रहा है, क्योंकि वे अपनी भारतीयता को सबसे ऊपर बता रहे हैं, वहीं जायरा वसीम की इसलिए आलोचना की जा रही है क्योंकि उन्होंने धार्मिक कारणों से अपना पेशा छोड़ने का निर्णय लिया है।
आज जरुरत इस बात की है कि हम धर्मों के मूल नैतिक संदेशों को समझें और आत्मसात करें और समय के साथ चलें। हमें भारत की सांझा, समावेशी संस्कृति को अपनाना होगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि प्यार करने वालों को कोई डर ना सताए और हर व्यक्ति अपनी पसंद के पेशे को चुनने के लिए स्वतंत्र हो।