ये वो गांधी तो नहीं है, पर कुछ तो है जो जोड़ने के लिए कठिन रास्ते पर निकला है

दांडी यात्रा के बाद 17 वर्ष लगे भारत को आजाद होने में। दांडी यात्रा करीब 390 किलोमीटर की थी और भारत जोड़ो यात्रा करीब 3,500 किलोमीटर की। यानी उससे करीब 10 गुनी लंबी। परंतु यहीं बापू के इस अमरवाक्य को ध्यान में रखना होगा।’’ वे कहते थे, ‘‘आजादी के बाद के हमारे संघर्ष और भी कठिन होंगे, क्योंकि तब हमारे सामने, हमारे द्वारा ही चुनी गई सरकार होगी। वे जानते थे, आजादी के बाद संघर्ष और टकराव की स्थितियां समाप्त नहीं होंगी। राहुल गांधी भी सत्य और  निर्भय होने की बात कर रहे हैं। यह संघर्ष चुनाव जीतने पर भी खत्म नहीं होगा। लोकतंत्र में विपक्ष स्थायी होता है, अतएव यह ज्यादा जरूरी है कि विपक्ष से सहिष्णु बने रहना सीखा जाए

Updated: Dec 09, 2022, 01:08 AM IST

‘‘हम क्या करते किस राह चलते/हर राह पर काँटे बिखरे थे, उन रिश्तों के जो छूट गए। उन सदियों के यारानों के जो इक-इक करके टूट गए।’’

फैज,(पाँवों से लहू को धो डालो)

भारत जोड़ो यात्रा जारी है। तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, और मध्यप्रदेश को सहलाते, समझाते, गुदगुदाते और नई उम्मीद जगाते राहुल गांधी और उनके तमाम साथी, राजस्थान में अपना सफर बदस्तूर जारी रखे हुए हैं। यात्राओं से क्या हासिल होना है, यह बेहद जाटिल प्रश्न है। वैसे दुनिया तो फैली ही यात्राओं की वजह से। कभी कोई पहला सेपियन अफ्रीका से चला और.....! दुनिया बसती चली गई। यात्रा से क्या हासिल होता है, यह जानने समझने के लिए व्हेनसांग से अलबरुनी से बर्नियर तक आइये। या गुरुनानक से महात्मा गांधी और राहुल तक की यात्राओं को जानिये समझिए। यात्राएं यात्री के पैरों की छाप छोड़ती जाती हैं और बदले में तमाम खट्टे-मीठे अनुभव से यात्री को सरोबार कर देती हैं।

राहुल गांधी की तीन हजार पाँच सौ किलोमिटर की यह यात्रा ऐसे समय हो रही है, जबकि भारत सरीखा सांस्कृतिक देश एक किस्म की अपसंस्कृति के वश में जाता चला जा रहा है। राहुल गांधी को सिर्फ अपना नहीं बल्कि दो वंशों का बोझ भी साथ उठाकर चलना पड़ रहा है। वे कह जरुर रहे हैं कि राहुल गांधी कहीं छूट गया है, अतीत हो गया है.. परन्तु इतिहास में कुछ भी अतीत नहीं होता। यदि होता तो सांप्रदायिकता का वर्तमान स्वरूप इस तरह का नहीं होता। पिछले 1200 वर्षों को वर्तमान नही बनाया जाता। परंतु इतिहास को वर्तमान बनाया जा रहा है, और वर्तमान को? वर्तमान को खूंखार, जहरीला और असहिष्णु वनाने की कोशिश हो रही है। विरासत के साथ जीना बड़ा कठिन होता है। व्यक्ति की जवाबदेही पिछली पीढ़ियों से भी जोड़ दी जाती है। प्रेमचंद जन्म शताब्दी पर इन्दौर में एक व्याख्यान में उनके पुत्र अमृत राय ने कहा था, ‘‘मैं यह समझता हूँ कि बड़े बाप का बेटा होना एक दुधारी तलवार है। यह किसी को शायद अच्छा भी लग सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता। बुरा इस मायने में लगता है कि हर आदमी, आदमी को उसी शख्स से तौलना चाहता है, भला यह भी कोई न्याय है, और आज उसी बोझ को ढोते-ढोंते मैं मुंशीजी की उम्र को पार कर आया हॅू।’’ तो राहुल गांधी भी इस तराजू पर तूल रहे हैं, रोज उनका मूल्यांकन होता है। बहुत से इस यात्रा से भारत के समकालीन इतिहास का पुनरावलोकन कर रहे है और बहुत से भविष्य की भारतीय राजनीति की नई संकल्पना को खोजने की कोशिश कर रहे है।

गौर करिए राहुल गांधी, तमाम तात्कालिक समस्याओं, जैसे बेरोजगारी, स्वास्थ्य, आर्थिक असमानता, सांप्रदायिकता आदि की बात करते हुए, समाधान के लिए दो मूल्यों की बात करते हैं। पहला सत्य का साथ और दूसरा निडरता या डर को छोड़ना ! महात्मा गांधी ने आम भारतीयों के मन से अंग्रेजों को लेकर जो डर बैठा था, वह समाप्त कर दिया था। लाखों- लाख लोग घर- व्यापार छोड़कर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। उनका डर इसलिए खत्म हुआ था क्योंकि उनके साथ सत्य था। बापू ने भारतीयों को कभी भुलावे में नहीं रखा। उन्होंने आजादी का कोई दिन नियत नहीं किया। उन्होंने कभी इस बात के लिए अनशन नही किया ‘‘अंग्रेजों भारत को स्वतंत्र करो’’। ऐसा इसलिए कि वे जानते थे कि आजादी पाने के उपकरण या उपाय कुछ और हैं। दांडी यात्रा के बाद 17 वर्ष लगे भारत को आजाद होने में। दांडी यात्रा करीब 390 किलोमीटर की थी और भारत जोड़ो यात्रा करीब 3,500 किलोमीटर की। यानी उससे करीब 10 गुनी लंबी। परंतु यहीं बापू के इस अमरवाक्य को ध्यान में रखना होगा।’’ वे कहते थे, ‘‘आजादी के बाद के हमारे संघर्ष और भी कठिन होंगे, क्योंकि तब हमारे सामने, हमारे द्वारा ही चुनी गई सरकार होगी। वे जानते थे, आजादी के बाद संघर्ष और टकराव की स्थितियां समाप्त नहीं होंगी। राहुल गांधी भी सत्य और  निर्भय होने की बात कर रहे हैं। यह संघर्ष चुनाव जीतने पर भी खत्म नहीं होगा। लोकतंत्र में विपक्ष स्थायी होता है, अतएव यह ज्यादा जरूरी है कि विपक्ष से सहिष्णु बने रहना सीखा जाए।

बापू से किसी ने तीन सवाल किए

आप किस धर्म के अनुयायी हैं ?

आप इसके अनुयायी कैंसे बने?

जीवन से इस धर्म का किस प्रकार संबंध बनता है?

उनका संक्षिप्त उत्तर थाए ‘‘मैं कहा करता था, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूँ अब मैं कहता हूँ । मैं सत्य में विश्वास रखता हूँ । पहले मैं, ईश्वर सत्य है, ऐसा कहा करता था अब मैं कहता हूँ सत्य ईश्वर है। ऐसे लोग तो हैं जो ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार करते है, किन्तु ऐसा कोई नहीं है, जो सत्य के अस्तित्व से इंकार करता हो सत्य को तो नास्तिक भी मानता है।’’ तो क्या अभी हमारा विश्वास पूरी तरह से सत्य में हो गया है? याद रखिए गांधी जी के आश्रम में रोज सुबह व शाम सर्वधर्म प्रार्थना होती थी। परंतु उनके किसी भी आश्रम मे मंदिर नहीं था

फैज नज्म में आगे लिखते है, ‘‘यूँ पाँव लहुलुहान हुए सब देखने वाले कहते थे ये कैंसी रीत रचाई है ये मेंहदी क्यों लगवाई है गौरतलब है इस यात्रा के समानान्तर भी यात्राऐं चलीं । गुजरात में विधानसभा चुनाव को लेकर अहमदाबद में 35 किलोमिटर का ‘‘रोड़ शो’’ हुआ। मतदान के दिन भी आचार संहिता के चलते मत डालने के लिए 3 किलोमीटर की यात्रा हुई। इसलिए यात्रा और यात्रा में फक करना आवश्यक है। राहुल गांधी की यात्रा की सफलता का आंकलन करने का पैमाना या मापदंड अभी भी तय नहीं हो पाया है। इक्कीसवीं शताब्दी में जब पैतीस सौ किलोमीटर की दूरी 5 घंटे से कम में तय की जा सकती है तो 5 महीने लगाने का क्या औचित्य है ? बहुत से लोग इसे समय की बार्बादी और अपरिपक्वता कहेंगे । इतना तो तय है कि यह यात्रा गिनीज बुक रिकार्ड में स्थान पाने के लिए तो नहीं ही की जा रही है। इसका मकसद, जो अभी नजर आ रहा है, वह तो यही है कि भारतीय नागरिक समाज के भीतर का डर निकले ।

एक और बात पर गौर करना जरूरी है इस यात्रा का भारतीय मीडिया ने कमोवेश बहिष्कार सा कर रखा है। प्रिंट मीडिया में कभी -कबार कुछ लिख दिया जाता है। वह भी सामान्यतया वहीं के आखबारों में होता है, जहाँ से यह यात्रा गुजरती है। इन्दौर से जब यात्रा गुजरी तो यहाँ सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार के प्रथम पृष्ठ पर इस यात्रा की न तो कोई खबर थी न एक भी चित्र! वास्तव में यह चकित से ज्यादा दुखी और भयभीत करने वाला वाक्या था, क्योंकि यदि मीडिया इतना डरा और एक पक्षीय हो जाएगा तो लोकतंत्र की राह और भी कठिन होती चली जाएगी। इसके बावजूद यात्रा में व सभा में बड़ी संख्या में इन्दौर के निवासी आए । अगले दिन अखबार का कलेवर एकदम बदला हुआ था। जाहिर है इलेक्ट्रानिक मीडिया तो अब समीक्षा का पात्र ही नहीं रह गया है। राहुल गांधी इस यात्रा के दौरान लगातार मीडिया को आड़े हाथ ले रहे हैं, परन्तु इसका ज्यादा असर दिखाई नहीं दे रहा है। मीडिया अब दर्शक या पाठक के लिए नहीं विज्ञापनदाताओं और मालिकों के लिए सक्रिय है। महात्मा गांधी के लिए पत्रकारिता भी सत्य की खोज का माध्यम ही थी। ऐसा नहीं है कि आजादी के पहले मीडिया में सरकारी या अंग्रेजों के खिदमतगार नहीं थे। परंतु राष्ट्रीय आंदोलन के पक्षधर भी थे। गांधी मानते थें, ‘‘शब्द का सही उपयोग योग है और कल्याणकारी है योग की तरह/शब्द का गलत उपयोग भोग है। भोग की तरह’’ जनता के लिए और भस्मासूर है स्वयं के लिए वस्तुस्थिति यह है कि थोडे समय में लोग इसके बिना सहज महसूस करने लगेंगे। वैसे युवा वर्ग तो अब मीडिया से करीब- करीब अलग ही हो गया है, क्योंकि वहां उसके लिए कुछ भी नहीं है। इस यात्रा ने मीडिया को और भी बेनकाब कर दिया।

हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र एक निश्चित दिशा में धीमे- धीमे बढते जाने का साधन है, और इसका अंतिम ध्येय प्रत्येक व्यक्ति की आजादी है। आजादी हर दौर में मनुष्य को प्यारी रही है। इतिहासकार हैरी  कामेगर के अनुसार प्रजातंत्र में प्रतिप्रश्न, छानबीन, विरोध, इन्कार, मिलना- जुलना, शिक्षण, विज्ञान, राजनीति अर्थात स्वातंत्रय को सार्थक और सिद्ध करने वाली प्रत्येक बात शामिल है। वे कहते हैं कि विरोध को बढावा देना महज वाणी विलास नहीं हैं। यह एकतरह से जीवन मरण का प्रश्न है। साहस एक निजी, नितांत व्यक्तिगत चीज है इसमें भी विचार को व्यक्त करने का व्यक्तिगत साहस। अंत में सारे साहस इसमे जनमते, फूटते और छूटते हैं। क्या आज राहुल गांधी और उनके सभी सहयोगी व्यक्तिगत साहस के प्रतीक नहीं बनते जा रहे हैं? अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सन् 1941 के एटलान्टिक चार्टर में चार आजादी गिनाई थीं, फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन एण्ड स्पीच, फ्रीडम ऑफ वर्शिप, फ्रीडम ऑफ वान्ट एण्ड फ्रीडम फ्राम फियर यानी वाणी और अभिव्यक्ति पर पाबंदी न हो, अपने धार्मिक विश्वास पर अडिग रह सकें, कोई भयग्रस्त न हो। गौरतलब है महात्मा गांधी तो इस घोषणा के तीन दशक पहले से इन सब पर अमल कर रहे थे और भारतीय आजादी को इसी परिपेक्ष्य में आकल्पित भी कर रहे थे। भारत का संविधान भले ही उनके सामने न तैयार हो पाया हो, परंतु वह इन मूलभूत स्वतंत्रता का जीवंत प्रतीक तो है ही।

यात्रा अभी जारी है। इस यात्रा ने भारत के सामाजिक व राजनीतिक संसार को नई प्राणवायु दी है। यह अब भविष्य बताएगा कि इस यात्रा से क्या- क्या उभरकर आता है। वैसे इतना असर हो गया है कि कई दक्षिणपंथी राज्य सरकारों की एकाएक ग्रामीण, गरीब, आदिवासी वगैरह दिखाई देने लगे हैं। तमाम तरह की यात्राएं निकलने लगी है। परंतु समस्या यह है कि पिछले एक दशक में जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक वातावरण बना है, उसके चलते देश के एक कल्याणकारी राज्य के रूप में परिवर्तित होने की संभावनाएं कमोवेश नष्ट होती जा रही हैं। सबसे खतरनाक यह है कि पूरे देश को हमेशा ‘‘चुनावी मोड’’ में डाले रखा जा रहा है। उत्तेजना इतना स्थायी भाव हो गया है कि सहजता अब डराती है। भारत जोड़ो यात्रा सहजता को लौटा लाने का एक उपक्रम भी साबित हो सकती हैै।

फैज अहमद फैज नज्म के अंत मे कहते हैं,

‘‘वो कहते थे क्यूं कहत-ए-वफा (वफादारी का अकाल)

का ना हक चर्चा करते हो पाँवों से लहू को धो डालो

ये राहें जब अट जायेंगी सौ रास्ते इनसे फूटेंगे।

उस दिल को संभालों जिसमें अभी। सौ तरह के नश्तर टूटेंगे।’’

भारत जोड़ो यात्रा का समापन महज एक पड़ाव भर है। भारत में लोकतंत्र की बहाली बेहद कठिन काम है। चुनाव का जीतना और हारना तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक कि उसमें सबकी राय शामिल न हो। उम्मीद है यात्रा का अंत भारतीय लोकतंत्र में एक नई शुरूआत साबित होगा ।

(गांधीवादी चिन्मय मिश्र एक स्वतंत्र लेखक हैं)