World Environment Day: बिगड़ते पर्यावरण के कारण गहराता संकट

हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मांं स्वरूप माना गया है। परन्तु पश्चिम के औधौगिक विकास के बाद विश्व में पर्यावरणीय हानि चरम पर पहुंच गया है।

Updated: Jun 05, 2025, 10:37 AM IST

Photo Courtesy: Green initiative
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हमारे ऋषि- मुनि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- 'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव: ' अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है। जंगल को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं- 'अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु।' यही कारण है कि हिन्दू जीवन के चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है।

भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है। लेकिन, यह भी सच है कि यदि हमारे ऋषि-मुनियों की परमपराएं न होती तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती। हिन्दू परंपराओं ने कहीं न कहीं प्रकृति का संरक्षण किया है। हिन्दू धर्म का प्रकृति के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है।

हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मांं स्वरूप माना गया है। परन्तु पश्चिम के औधौगिक विकास के बाद विश्व में पर्यावरणीय हानि चरम पर पहुंच गया है। हम प्रकृति में खतरनाक गिरावट का अनुभव कर रहे हैं और इसका कारण मनुष्य है।

हम अपनी वर्तमान जीवनशैली को बनाए रखने के लिए अत्यधिक ऊर्जा का उपयोग कर रहे हैं और पारिस्थितिकी तंत्र हमारी मांगों को पूरा नहीं कर पा रहा है। विश्व में पौधों और जानवरों की अनुमानित 8 मिलियन प्रजातियों में से 1 मिलियन विलुप्त होने के खतरे में हैं। पृथ्वी की 75 प्रतिशत भूमि सतह मानवीय गतिविधियों के कारण महत्वपूर्ण रूप से परिवर्तित हो चुकी है, जिसमें 85 प्रतिशत आर्द्रभूमि क्षेत्र भी शामिल हैं। महासागर क्षेत्र का 66 प्रतिशत हिस्सा मानवीय गतिविधियों से प्रभावित है, जिसमें मत्स्य पालन और प्रदूषण भी शामिल है। 

विश्व के लगभग 90% समुद्री मछली भंडार का पूर्णतः दोहन हो चुका है, या उनका अत्यधिक दोहन हो चुका है या वे समाप्त हो चुके हैं। हमारी वैश्विक खाद्य प्रणाली जैव विविधता के नुकसान का मुख्य कारण है, जिसमें अकेले कृषि ही सबसे बड़ा खतरा है। 28,000 प्रजातियों में से 24,000 विलुप्त होने के खतरे में हैं। ऐसा कहा जाता है कि स्थलीय जैवविविधता की अनुमानित हानि का 70% हिस्सा कृषि विस्तार के कारण होता है। वर्ष 2001 से 2020 के बीच भारत में 1.93 मिलियन हेक्टेयर वृक्ष आवरण की कमी हुई है, जो वर्ष 2000 से 5.2% की कमी के बराबर है। पिछले तीस वर्षों में भारत ने 6,68,400 हेक्टेयर जंगल गंवा दिया है। 

वर्ष 1990 से 2020 के बीच वनों की कटाई की दर में भारत दुनिया के दूसरे सबसे बङे देश के रूप में उभरा है। ‘ग्लोबल फारेस्ट वाच’ ने यह भी बताया है कि 2013 से 2023 तक 95 प्रतिशत वनों की कटाई प्राकृतिक वनों में हुई है। पर्यावरण दिवस के मौके पर जारी स्टेट ऑफ एनवायरमेंट(एसओई) रिपोर्ट 2023 के मुताबिक, देश की कुल 603 नदियों में से 279 यानी 46 फीसद नदियाँ प्रदूषित हैं। राज्यों में महाराष्ट्र में सर्वाधिक 55 नदियाँ तथा मध्यप्रदेश में 19 नदियाँ प्रदूषित हैं। वहीं बिहार और केरल में 18-18 नदियाँ प्रदूषित हैं।

उद्योगों द्वारा छोड़े जाने वाले रसायन और भारी धातु जल के प्रदूषण का कारण बन रहे हैं। इससे मछलियों की सेहत खराब हो रही है और उनकी संख्या कम हो रही है। जल प्रदूषण के कारण मछलियों की खाद्य श्रृंखला प्रभावित होती है, जिससे उनकी संख्या कम होती जा रही है। जिस पानी में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है। वैज्ञानिकों द्वारा मछली को जीवन सूचक (बायोइंडीकेटर) माना गया है। दूसरी ओर विश्व के 10 सबसे प्रदुषित शहरों में 09 हमारे देश के हैं तथा सबसे ज्यादा प्रदुषित 10 देशों में भारत तीसरे स्थान पर है। 

जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में तापमान बढ़ोतरी, बारिश के पेटर्न में बदलाव, सुखे की स्थिति में बढ़ोतरी, भूजल स्तर का गिरना, ग्लेशियर का पिघलना, तीव्र चक्रवात, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, राज्यों में भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं आदि प्रमुख है। जलवायु संकट की वैश्विक घटना पूंजीवाद के कारण पैदा हुई है, और अब यह भारत में भी साफ तौर पर दिखाई देने लगी है, जिसका खामियाजा प्रकृति निर्भर समुदाय सूखा, गर्मी, अनियमित वर्षा, बाढ़ और समुद्र के स्तर में वृद्धि के रूप में भुगत रहे हैं। जबकि इस संकट के लिए प्रकृति निर्भर समुदाय का योगदान नगण्य है। 

वैश्विक प्रकृति संरक्षण सूचकांक 2024’ की रिपोर्ट में 180 देशों में भारत को 176 वें स्थान पर रखा गया है। जीवनशैली की प्रवृत्तियों ने प्रकृति के साथ हमारे संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे स्थिरता में कमी आई है। यह समस्या अब गंभीर हो चुकी है और इसका समाधान यही है कि हम प्रकृति के साथ ऐसा संबंध स्थापित करें जो उसके सम्मान, संरक्षण एवं संतुलन को बनाए रखे। हमें प्रकृति के साथ शांतिपूर्ण व्यवहार करते हुए ऐसे रहना होगा जैसा कि हम उसका एक साधारण अंश मात्र हैं। मनुष्य के सहयोग से उपभोग की बढ़ती लालसाओं का ही परिणाम है कि जल, जंगल और जमीन की समस्या आज सभी समस्याओं में केंद्रीय समस्या बनकर उभर रही है।मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का साथ और सहयोग ही पृथ्वी को हरा-भरा और खूबसूरत बना सकता है। लेकिन हम सभी इस पूरकता को भूलते जा रहे हैं।

(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं)