जी भाईसाहब जी: नाराज़गी का विष पीने के लिए शिवराज सिंह चौहान का राग विदाई

मामा तो गयो...मध्‍य प्रदेश की राजनीति में यह वाक्‍य कई-कई तरह से उपयोग किया जा रहा है। कोई मजे लेकर कह रहा है तो कोई सियासत के गुणा-भाग बताने के लिए। मगर जानने वाले जानते हैं कि जीत की रणनीति में शिवराज सिंह चौहान के हिस्‍से नाराज़गी का हलाहल आया है।  

Updated: Oct 03, 2023, 06:43 PM IST

मिशन 2023 को फतह करने के लिए कुछ दिनों पहले तक हर तरफ सीएम शिवराज सिंह चौहान का नाम और चेहरा दिखाई दे रहा था। समूचा प्रचार तंत्र घोषित कर रहा था कि ‘आएगा तो मामा ही’। फिर राजनीतिक बाज़ी बदली और अब हर तरफ संकेत हैं कि ‘मामा तो गयो।’ खास बात यह है कि मामा यानी मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ‘राजनीतिक युग’ समाप्‍त होने की यह घोषणा केवल कांग्रेस नहीं कर रही है बल्कि बीजेपी के खेमे से यह संकेत ज्‍यादा ताकत से दिया जा रहा है। खुद शिवराज सिंह चौहान ऐसे संकेत पर मोहर लगा रहे हैं। 

कैबिनेट बैठक में अफसरों के साथ औपचारिक चर्चा में उनका स्‍वर विदाई भाषण जैसा था तो बीते सप्‍ताह दो सभाओं में उन्‍हें ऐसी ही बातें कही है। खरगोन में एक सभा में मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि ‘मुझे किसी पद का कोई लालच नहीं है’ । फिर रविवार को सीहोर में कहा कि अब तुम्हें मेरे जैसा भाई नहीं मिलेगा. जब मैं चला जाऊंगा तो आप मुझे याद करेंगे। 

शिवराज की विदाई की यह इबारत खुद बीजेपी ने तैयार की है। सबसे पहले पीएम नरेंद्र मोदी को चुनाव में पार्टी का चेहरा बनाकर तथा सीएम दावेदार नेताओं को मैदान में उतारकर बीजेपी ने माहौल बनाया कि शिवराज सिंह चौहान की विदाई तय है। राजनीतिक आंकलन यह है कि यह सब प्रदेश में फैली सत्‍ता विरोधी लहर को शांत करने का उपक्रम है।

विरोध और नाराजगी का फोकस बीजेपी से हटाकर एक व्‍यक्ति यानी मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक लाने के लिए यह तरीका आज़माया गया है। शिवराज सिंह चौहान के हटने की बातों से नाराजगी का बल कुछ कम हो सके और पार्टी को नुकसान न हो। यानी चुनाव मंथन में हलाहल शिवराज के हिस्‍से में आए और अमृत पार्टी के हिस्‍से में। 

बसपा जीजीपी (और बीजेपी) गठबंधन, कुछ जाहिर कुछ छुपा-छुपा

मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के सीधे मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश करते हुए बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी) ने गठबंधन कर लिया है। सीटों का बंटवारा भी हो गया है। 230 सीटों में से बसपा 178 सीटों पर और जीजीपी 52 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। यह गठबंधन आदिवासी और दलित वोटों को साधने और बांटने की राजनीति के हिसाब से महत्‍वपूर्ण है। इस लिहाज से यह वास्‍तव में बसपा और जीजीपी गठबंधन बीजेपी की ही मदद करते दिख रहे हैं।  

इसके पीछे के कारण भी हैं। इसे वोट प्रतिशत और सीटों के गणित से समझना चाहिए। प्रदेश में आदिवासी जनसंख्या 22 फीसदी है और अनुसूचित जातियों की संख्या 16 प्रतिशत। विधानसभा के लिए आदिवासियों की 47 और अजा की 35 सीट आरक्षित हैं। 2023 के चुनाव में इन सीटों पर वर्चस्‍व के लिए बीजेपी और कांग्रेस में संघर्ष चल रहा है। ऐसे में बीएसपी ने जीजीपी से गठबंधन कर वोट का गणित बिगाड़ने की कोशिश जाहिर दिख रही है।

पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 1 करोड़ 56 लाख, 42 हजार 980 वोट मिले थे जबकि 5 सीट ज्‍यादा जीतने वाली कांग्रेस को 1 करोड़ 55 लाख 95 हजार 153 वोट मिले थे। बीएसपी को 19 लाख 11 हजार 648 और जीजीपी को 6 लाख 75 हजार 648 वोट मिले थे। बीएसपी और जीजीपी का गठबंधन उस वोट को बांटेगा जो बीजेपी से छिटककर कांग्रेस के पाले में जा सकता था। यही कारण है कि आदिवासियों में प्रभाव को देखते हुए जीजीपी को महाकौशल और मालवा की आदिवासी सीटें दी गई हैं जबकि विंध्य-बुंदेलखंड में बीएसपी मजबूत रही है, इसलिए इन क्षेत्रों में वह चुनाव लड़ेगी। 

जीजीपी और बीएसपी भले ही कहें कि वे बीजेपी और कांग्रेस दोनों के विरूद्ध मैदान में उतरी हैं लेकिन इतिहास बताता है कि दोनों दलों का अटूट रिश्ता कहां है। 2018 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने दो सीटें जीती थीं। बाद में बसपा का एक विधायक बीजेपी में शामिल हो गया था। पहले जीजीपी से अलग हो चुके बट्टी गुट की अध्यक्ष मोनिका शाह हाल में बीजेपी चली गई हैं। इसतरह गठबंधन भले ही बीएसपी और जीजीपी के बीच हुआ है लेकिन राजनीतिक लाभ के गणित में इस गठबंधन का तीसरा चेहरा बीजेपी भी है, जो छुपकर खेल कर रहा है। जिसे इस वोट बंटने का फायदा मिल सकता है। इन बदली हुई परिस्थितियों में अब जयस जैसे आदिवासी संगठन और कांग्रेस के बीच एकता की संभावना बढ़ गई है ताकि आदिवासी वोटबैंक में सेंध का असर कांग्रेस के परिणाम को प्रभावित न करे।  

दिल्‍ली के प्रयोग से सांसत में सांसद-गण 

दिल्‍ली ने एक राजनीतिक प्रयोग किया और बीजेपी के सांसद-गण सांसत में आ गए। वे इत्‍मीनान में थे कि जिस तरह मोदी के चेहरे के दम पर 2019 का चुनाव जीते थे वैसे ही 2024 की नैया भी पार हो जाएगी। लेकिन अब उन्‍हें बीजेपी सरकार से नाराजगीवाले माहौल में विधानसभा चुनाव लड़ना है। तीन सूची आ चुकी है। जिन सांसदों को टिकट मिल गया है वे अपना माहौल बनाने में जुटे हैं और जिनका नाम नहीं आया है वे प्रार्थना कर रहे हैं कि इस आफत से बचे रहें। 

बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय जैसा दिग्‍गज नेता 10 साल बाद चुनाव मैदान में हैं जबकि केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर तो 15 साल बाद विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। एक अन्‍य केंद्रीय मंत्री फग्‍गन सिंह कुलस्‍ते 33 साल बाद विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल, पूर्व प्रदेश अध्‍यक्ष और जबलपुर से सांसद राकेश सिंह व सीधी से सांसद रीति पाठक के लिए यह पहला विधानसभा चुनाव होगा।  

बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को इंदौर एक नंबर विधानसभा सीट से मैदान में उतारा गया है जहां कांग्रेस के संजय शुक्‍ला विधायक हैं और क्षेत्र में उनका दबदबा है। कैलाश विजयवर्गीय एक नहीं कई सभाओं में कह चुके हैं कि पार्टी का निर्णय है वरना वे विधानसभा चुनाव लड़ना नहीं चाहते हैं। वे तो चाहते थे कि दूसरों को जिताने के लिए रोज आठ-आठ सभाएं करते लेकिन अब जनता के सामने हाथ जोड़ना पड़ रहा है। कैलाश विजयवर्गीय को कहना पड़ रहा है कि उनका चुनाव तो कार्यकर्ता लड़ेंगे। विजयवर्गीय के समर्थन में सभा करने गए मुख्‍यमंत्री चौहान ने भी कहा कि कार्यकर्ता ही पार्टी में सबकुछ हैं।  

सीधी में बीजेपी से बगावतकर मौजूदा विधायक केदारनाथ शुक्‍ल ने रीति पाठक के खिलाफ मैदान में उतरने की घोषणा कर दी है। अब तक का अनुभव है कि बीजेपी सांसदों ने विधायकों और कार्यकर्ताओं पर कभी ध्‍यान दिया नहीं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मुद्दे व समीकरण अलग होते हैं। बीजेपी सांसद मान कर चलते रहे कि विधायक और कुछ क्षेत्रों के कार्यकर्ता साथ नहीं भी देंगे तब भी लोकसभा चुनाव तो जीत ही जाएंगे। 

लेकिन दिल्‍ली के निर्णय से अब सांसदों के सामने संकट खड़ा हो गया है। उन्‍हें पहले नाराज कार्यकर्ताओं की जय-जय कर उन्‍हें मनाना पड़ रहा है। आखिर कार्यकर्ता मानेंगे तभी तो मैदान में प्रचार गति पकड़ेगा अन्‍यथा तो मंत्री तुलसीराम सिलावट को भी अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना करना पड़ा है। चुनावी मैदान में उतरे सांसद कार्यकर्ताओं को प्रथम पूज्‍य बनाकर मान मनोव्‍वल कर रहे हैं फिर क्षेत्र में प्रचार की रणनीति बना रहे हैं!

हिंदुत्‍व के बरअक़्स ओबीसी की राजनीति, क्‍या बदलेगी सियासी बिसात

हिंदुत्‍व को मुख्‍य चुनावी मुद्दा बनाकर आगे रखनेवाली बीजेपी को जातीय समीकरण के मोर्चे पर कांग्रेस से पहली बार चुनौती मिलने जा रही है। बनिया, ठाकुर, ब्राह्मण की पार्टी कही जानेवाली बीजेपी मध्‍य प्रदेश में ओबीसी राजनीति के दम पर बीते दो दशक से राज कर रही है। लेकिन कालापीपल आए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हिंदुत्‍व के बरअक्‍स ओबीसी के मुद्दे को खड़ा कर दिया है। सार्वजनिक मंच से राहुल गांधी ने जीतने के बाद जातीय जनगणना की बात कहकर बीजेपी की ओबीसी राजनीति को चुनौती दी है। 

प्रदेश में 51 फीसदी से ज्‍यादा ओबीसी आबादी है। बीजेपी के लिए ओबीसी बड़ा वोट बैंक है और इस वर्ग को बीजेपी अपना इतना बड़ा आधार मानती है। लेकिन ओबीसी पर कांग्रेस की दृढ़ता और उसके द्वारा प्रदेश में ओबीसी आरक्षण 14 फीसदी से बढ़ाकर 27 फीसदी करना, पदोन्‍नति में आरक्षण पर ढुलमुल रवैया रखनेवाली बीजेपी जातीय जनगणना के मुद्दे पर संकट में आ गई है। वह जातिगत जनगणना का पुरजोर विरोध कर रही है क्‍योंकि इससे उसके सारे समीकरण बदलने की आशंका है। 

कांग्रेस पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि वह बीजेपी के मैदान पर उसके मुद्दों पर खेलती है और मुंह की खाती है। लेकिन बीते दो दशकों में यह पहली बार ही कहा जाएगा कि कांग्रेस ने बीजेपी को अपनी गेंद पर खेलने के लिए अपने मैदान में ललकारा है। पहले जब भी जातिगत जनगणना का मुद्दा उठता था, कांग्रेस मौन हो जाया करती थी। लेकिन तमाम प्रयोग के बाद इस बार राहुल गांधी ने जाति जनगणना का खतरा मोल लिया है। वे संसद से लेकर सड़क तक महिला आरक्षण में पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस की राजनीति में यह रणनीतिक बदलाव है, जो इन दिनों राजनीतिक विमर्श में छाया हुआ है। इसके परिणाम देखने के लिए कुछ समय इंतजार करना होगा।