आध्यात्मिक यात्रा में आहार का योगदान

शरीर की ही शुद्धि के लिए नहीं मन की शुद्धि के लिए भी आहार-शुद्धि आवश्यक है, हमारा मन, प्राण और वाणी स्वस्थ रहेंगे तभी हमारा आध्यात्मिक विकास होगा

Updated: Aug 19, 2020, 12:59 PM IST

photo courtesy: Hindi Varta
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चौरासी लाख योनियों में मानव शरीर मुक्ति का द्वार माना जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से मुक्ति की उपमा स्वस्थता से दी गई है। योग बन्धन है, रोगों से मुक्ति ही मुक्ति है।

स्वाभाविक रूप से जन्म से मनुष्य स्वस्थ ही रहता है। उसके शरीर में रोग बाहर से आता है। प्रारंभ में वह मां का दूध पीता है, यदि मां के शरीर में किसी प्रकार का रोग हो,तो वह मां के दूध को प्रभावित करता है। ऐसी अवस्था में बालक को स्वस्थ रखने के लिए माता को पथ्य सेवन कराया जाता है। और जब उसका अन्नप्राशन हो जाता है। तब वह स्वयं ही आहार ग्रहण करने लगता है। उस समय उसके द्वारा स्वीकृत आहार यदि समुचित हुआ (हित-मित-पथ्य हुआ) तो शरीर का विकास होता है, अन्यथा शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। जिससे उसका मन भी प्रभावित होता है।

आहार में अन्न जल का उपयोग होता है, इसका प्रभाव मन और वाणी पर भी पड़ता है। इसके सम्बन्ध में उपनिषद् कहते हैं कि-

अन्नमशितं त्रेधा विधीयते

तस्य य: स्थविष्ठो धातुस्तत्पुरीषं भवति

यो मध्यम:तन्मांसं

योSणिष्ठस्तन्मन:

आप:प्रीता स्त्रेधा: विधीयन्ते

तासां य: स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्र: भवति

यो मध्यमस्तल्लोहितं

योSणिष्ठ: स प्राण:

तेजोSशितं त्रेधा विधीयते

तस्य य: स्थविष्ठो धातुस्तदस्थि भवति

यो मध्यम: स मज्जा

योSणिष्ठ: सा वाक्

अन्नमयं हि सोम्य मन

आपोमय: प्राणस्तेजोमयी वागिति। (छान्दोग्योपनिषद्)

खाया हुआ अन्न जठराग्नि द्वारा पच कर तीन भागों में विभाजित होता है। अन्न का स्थूल भाग मल बनता है,मध्यम भाग रुधिरादि क्रम से परिवर्तित होकर मांस बनता है और अणुतम भाग मन के रूप में परिवर्तित होता है अर्थात् मन की अभिवृद्धि करता है।

इसी प्रकार पिया हुआ जल भी तीन रूपों में परिणत होता है। उसकी जो स्थूल धातु है,वह मूत्र, मध्यम धातु रुधिर और सूक्ष्म धातु प्राण के रुप में परिणत होती हैं। इसीलिए प्राण को जल का विकार कहा गया है। अत:एव जल का ग्रहण करते रहने से उसके कार्य प्राण का विच्छेद नहीं होता।

अन्न-जल की तरह उपयुक्त तेज (तेल-घृत आदि) भी तीन भागों में विभक्त होता है। उसकी स्थूल धातु अस्थि, मध्यम धातु मज्जा और सूक्ष्म धातु वाणी के रूप में परिवर्तित होती है। लोक व्यवहार में सिद्ध ही है कि घृत आदि के सेवन से वाणी विशद और भाषण करने में समर्थ होती है।

तात्पर्य यह है कि मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमयी है। इसलिए

आहारशुद्धौ सत्व शुद्धि:

आहार की शुद्धि से मन की शुद्धि होती है। लोक में कहावत है कि- 

जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन

इसलिए शरीर की ही शुद्धि के लिए नहीं मन की शुद्धि के लिए भी आहार-शुद्धि की आवश्यकता है। इसी प्रकार जल और तेज की शुद्धि भी आवश्यक है। जब हमारा मन प्राण और वाणी स्वस्थ और संयमित रहेंगे तभी हमारा आध्यात्मिक विकास होगा और हम मुक्ति की ओर अग्रसर होंगे।