Shri Ram Charitra : श्रीराम का चरित्र आदर्श मानव का चरित्र

आंतरिक सद्गुणों के विकास के लिए किसी महापुरुष के चरित्र का अनुशीलन और ध्यान आवश्यक, श्री राम से पाएं प्रेरणा

Publish: Jul 07, 2020, 10:02 PM IST

यादृशै: सन्निविशते,   यादृशांश्चोपसेवते।

 यादृगिच्छेच्च भवितुं, तादृग्भवति पूरुष:।।

अर्थात् मनुष्य जैसे लोगों के बीच में रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है वैसा ही हो जाता है। जिस प्रकार अपनी मुखाकृति सुधारने के लिए मनुष्य को दर्पण (आदर्श) का सहारा लेना पड़ता है, उसी प्रकार आंतरिक सद्गुणों के विकास के लिए किसी आदर्श चरित्र महापुरुष के चरित्र का अनुशीलन और ध्यान आवश्यक होता है। भगवान श्रीराम का चरित्र आदर्श मानव का चरित्र है। योगवशिष्ठ के अनुसार उन्हें जीवन के प्रारंभ में ही तीव्र वैराग्य हो गया था जिससे महाराज दशरथ चिंतित हो उठे और उनको वशिष्ठ से प्रबोधित कराया। वशिष्ठ जी के द्वारा उपदिष्ट ज्ञान से उनका हृदय परिपक्व हो गया। बाल्यावस्था से ही उनमें दिव्य सद्गुणों का आविर्भाव हो गया था, जिससे समस्त प्रजाजन उनसे संतुष्ट रहते थे। महर्षि वाल्मीकि ने उनके कतिपय गुणों का वर्णन किया है। वे शांत चित्त रहते, सदा मधुर वाणी बोलते, यदि किसी की वाणी उनके प्रति कठोर भी होती तो वे उसका उत्तर नहीं देते थे। उनका मन सदा उनके अधीन रहता था, जिससे वे किसी के कभी किए गए छोटे से उपकार से भी संतुष्ट हो जाते थे और दूसरे लोगों के साथ शास्त्र सम्मत चर्चा करते थे, अवकाश के समय तो करते ही थे।

वे बड़े बुद्धिमान, मधुर भाषी, पूर्व भाषी अर्थात् समागतों के प्रति प्रथम भाषण के द्वारा अपनी अभियुक्तता दिखलाते थे, उनके शब्दों के अर्थ भी प्रेरित होते थे, असाधारण बलवान होने पर भी उन्हें अपने बल का गर्व नहीं होता था। वे सत्य वक्ता और गुरु जनों के उपासक थे, प्रजा उनमें अनुराग रखती थी और वे भी प्रजा को प्रसन्न रखते थे, वे दु:खी जनों के प्रति दया रखते, क्रोध को उन्होंने जीत लिया था। धर्मज्ञ ब्राह्मण भक्त थे। दीनों के हितकारी और इन्द्रियों का दमन करने वाले थे।वे कुलोचित धर्म,दया, दाक्षिण्य, शरणागत रक्षण आदि के पालन में तत्पर रहते थे।स्वधर्माचरण को सर्वविध श्रेय का मूल मानते थे। कभी किसी बुरी बात की ओर उनका मन नहीं जाता था। और वे धर्म के विरुद्ध कोई बात सुनते भी नहीं थे।विवाद के समय वे बृहस्पति के समान अपनी युक्ति पूर्ण बात का पोषण करते थे। वे नीरोग, तरुण,देश काल के ज्ञाता,सब लोगों के बलाबल को जानने में निपुण एवं साधु पुरुष थे। वे सब विद्याओं के पारंगत तथा अंगों सहित वेदों का रहस्य जानते थे। अस्त्र विद्या में तो भरताग्रज श्रीराम अपने पिता दशरथ से भी आगे बढ़ चुके थे। ऐसे महान आदर्शवान् श्रीराम को हम अपने जीवन का आदर्श मानकर ही निर्विघ्नता पूर्वक जीवन पथ पर अग्रसर हो सकते हैं।