हमारे हृदय में कैसी हो प्रभु से मिलन की तड़प

जिस समय भक्त भगवान के बिना न रह सके, उस समय भगवान भी भक्त के बिना नहीं रह सकते, हमारे हृदय में किस प्रकार की होनी चाहिए भगवत्सम्मिलन की तड़प

Updated: Oct 02, 2020, 01:01 PM IST

भरि लोचन विलोकि अवधेसा, तब सुनिहउं निर्गुन उपदेसा

श्री कागभुशुण्डि जी के हृदय में भगवद्साक्षात्कार की उत्कट अभिलाषा है। वे अपने गुरु देव महर्षि लोमश से कहते हैं कि एक बार भगवान श्रीराम के दर्शन से हमारे नेत्रों को तृप्ति मिल जाय फिर मैं आपके और सभी उपदेशों को श्रवण करूंगा। यदि हम लोगों के हृदय में भी ऐसी ही उत्कट उत्कंठा हो जाय तो भगवान हमसे दूर नहीं हैं। भगवान को प्रकट होना ही पड़ेगा। यद्यपि आप्तकाम, पूर्ण काम,परम निष्काम भगवान परम स्वतंत्र हैं। लेकिन भक्त प्रेम पराधीन होना उनका स्वभाव है। अनुभवी भक्तों का कथन है कि-

अहो चित्रमहो चित्रं, वन्दे तत्प्रेम बंधनम्।

 यद्बद्धं मुक्तिदं मुक्तं, ब्रह्म क्रीडा मृगीकृतम्।।

कोई निर्गुण निराकार ब्रह्म को, कोई सगुण साकार ब्रह्म को भजते हैं, परन्तु मैं तो उस प्रेम बंधन को भजता हूं। जिससे बंधकर अनंत प्राणियों को मुक्ति देने वाला,स्वयं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रह्म भक्तों के हाथ का खिलौना बन जाता है। जिस समय भक्त भगवान के बिना न रह सके, उस समय भगवान भी भक्त के बिना नहीं रह सकते। हमारे हृदय में भगवत्सम्मिलन की तड़प किस प्रकार की होनी चाहिए? तो श्री मद्भागवत में बड़ा ही सुन्दर उदाहरण दिया गया है कि

अजात पक्षा इव मातरं खगा:, स्तन्यं यथा वत्सतरा क्षुधार्ता:।

प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा, मनोSरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्।।

अर्थात् जैसे पंख रहित पतंग शावक अपनी मां के लिए व्याकुल रहता है, भूखा हुआ छोटा गो वत्स अपनी मां का दूध पीने के लिए व्याकुल रहता है, अथवा अपने परदेश गए हुए प्रियतम से मिलने के लिए प्रेयसी विषण्ण रहती है। हे कमलनयन! मेरा मन भी आपको देखने के लिए वैसे ही उत्कंठित हो रहा है।

ऐसी प्रार्थना से भगवान द्रवीभूत हो जाते हैं। और भक्त से मिलने के लिए दौड़ पड़ते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ऐसी उत्कट उत्कंठा सरल नहीं है। किन्तु जन्मांतरों के पुण्य पुंज से भगवत्प्रीति प्राप्त होती है।