खनन से संकट में वन्यजीव, जंगल और आदिवासी जीवन, गढ़चिरौली और अरावली में पर्यावरणीय त्रासदी की आहट
खनन परियोजनाओं से भूजल स्तर गिर रहा है, मृदा अपरदन और बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है, नदियों में रासायनिक अपशिष्ट घुल रहा है, जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। इसके कारण क्षेत्र में सिलिकोसिस, निर्जलीकरण, पेट संबंधी बीमारियां फैलने की आशंका है।

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में खनन गतिविधियों के चलते वन, वन्यजीव और आदिवासी जीवन गहरे संकट में हैं। सरकार द्वारा 1.23 लाख पेड़ों की कटाई को हरी झंडी देने के निर्णय के बाद पर्यावरणविद्, आदिवासी संगठन और नागरिक समाज गहरी चिंता में हैं। गढ़चिरौली, जो राज्य के 70% से अधिक वन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है, आज खनन और औद्योगीकरण की अंधाधुंध नीतियों का शिकार बनता जा रहा है। यह इलाका गोंड और माड़िया जनजातियों सहित अनेक आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक और आर्थिक जीवनरेखा है।
ओम साईं स्टील्स एंड अलॉयज़, जेएसडब्ल्यू स्टील्स लिमिटेड, सनफ्लैग आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड जैसी बड़ी कंपनियों को राजनीतिक समर्थन प्राप्त है। हाल ही में लॉयड्स मेटल्स एंड एनर्जी को 937 हेक्टेयर रिजर्व फॉरेस्ट में खनन और लौह अयस्क प्रसंस्करण संयंत्र के लिए पर्यावरणीय मंज़ूरी दी गई है। यह क्षेत्र भारत के प्रमुख बाघ गलियारों में आता है, जिससे वन्यजीवों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
ग्राम सभाओं की सहमति के बिना दी गई मंज़ूरी पेसा कानून (1996) और वन अधिकार अधिनियम (2006) का स्पष्ट उल्लंघन है। गढ़चिरौली के 1,567 गांवों में से 1,311 गांव पेसा क्षेत्र में आते हैं, फिर भी जन सुनवाई की प्रक्रियाएं पारदर्शी नहीं होतीं। प्रभावित ग्रामीणों को परामर्श बैठकों से वंचित कर दिया जाता है या उन्हें धमकाया जाता है।
खनन ने महुआ-तेंदू संग्राहकों, निर्वाह कृषकों और वन-निर्भर समुदायों की आजीविका को संकट में डाल दिया है। कंपनियों द्वारा नौकरियों के झूठे वादे कर लोगों को सुरक्षा गार्ड या खनन मज़दूर बना दिया जाता है। साथ ही, बाहरी लोगों के आगमन से लिंग आधारित हिंसा और महिलाओं की असुरक्षा भी बढ़ी है। 2023 की रिपोर्ट "खनन, दमन और प्रतिरोध" के अनुसार, महिलाओं की स्वायत्तता, सुरक्षा और पारंपरिक जीवनशैली धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है।
खनन परियोजनाओं से भूजल स्तर गिर रहा है, मृदा अपरदन और बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है, नदियों में रासायनिक अपशिष्ट घुल रहा है, जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। इसके कारण क्षेत्र में सिलिकोसिस, निर्जलीकरण, पेट संबंधी बीमारियां फैलने की आशंका है। यह क्षेत्र ताडोबा और इंद्रावती टाइगर रिजर्व को जोड़ने वाला बाघ गलियारा है। वन्यजीवों का आवास नष्ट होने से बाघों और तेंदुओं का गांवों की ओर आना आम होता जा रहा है। चंद्रपुर में मई 2025 में ही 11 लोगों की जान बाघों के हमलों में जा चुकी है।
गढ़चिरौली की तरह अरावली पहाड़ियों में भी खनन को बढ़ावा देने की तैयारी हो रही है। सरिस्का बाघ अभयारण्य (एसटीआर) की सीमाओं में बदलाव कर 50 खनन परियोजनाओं को फिर से अनुमति देने का प्रस्ताव है। "पीपुल फॉर अरावली" नामक संगठन ने केंद्र सरकार, राजस्थान सरकार और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) से इस निर्णय पर पुनर्विचार की मांग की है। यह कदम वन्यजीव संरक्षण के राष्ट्रीय प्रयासों को कमजोर कर सकता है।
गढ़चिरौली और अरावली में हो रही घटनाएं इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे लाभ के लिए प्रकृति और परंपरा की बलि दी जा रही है। जंगलों का सफाया, नदियों का ज़हरीला होना, आदिवासी जीवनशैली का खात्मा और वन्यजीवों का संकट – यह सब एकतरफा विकास की त्रासदी को दर्शाता है।
समाधान की मांग है कि सभी खनन परियोजनाओं पर तत्काल रोक लगे, ग्राम सभाओं की पारदर्शी जनसुनवाई हो, ईआईए और डीपीआर सहित वैज्ञानिक पुन: मूल्यांकन हो, बाघ गलियारों और पवित्र वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाए और पेसा व वन अधिकार अधिनियम का पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित हो। गढ़चिरौली की जंगल ज़मीनें केवल खनिज भंडार नहीं हैं, बल्कि संस्कृति, प्रकृति और जीवंत परंपराओं का केंद्र हैं, जिनका संरक्षण हम सबकी जिम्मेदारी है।
(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।)