नूर को अपने ही देश में क्यों सहनी पड़ी विदेशी होने की ज़िल्लत और डिटेंशन सेंटर की क़ैद

सारे ज़रूरी दस्तावेज़ों के बावजूद असम के नूर हुसैन, उनकी पत्नी और दो अबोध बच्चे डेढ़ साल तक डिटेंशन कैम्प में रहे, मानवाधिकार संगठनों की मदद से उनकी सुनवाई हुई और तब जाकर नागरिकता साबित हो सकी

Updated: Jan 01, 2021, 10:50 PM IST

Photo Courtesy : The Indian Express
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गुवाहाटी। असम के एक भारतीय परिवार को बिना किसी गुनाह के डेढ़ साल तक गुवाहाटी के पास एक डिटेंशन सेंटर में कैद रहने की मानसिक-शारीरिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी। इस दौरान यह परिवार तमाम ज़रूरी शर्तें पूरी करने के बावजूद अपनी उस नागरिकता को साबित किए जाने का इंतज़ार करता रहा, जो उसका पैदायशी हक़ है। अंग्रेज़ी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में छपी ये सच्ची कहानी रिक्शा चलाने वाले मेहनतकश नूर और उसके परिवार की है। जिन्हें कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों की मदद से नए साल में अपने खो गए नागरिक अधिकार बड़ी मुश्किल से हासिल हुए हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक असम निवासी 34 वर्षीय मोहम्मद नूर हुसैन और उनकी पत्नी सेहरा बेगम को जून 2019 में उदलगुड़ी जिले के लाउडोंग गांव से गिरफ्तार कर गोआलपाड़ा जिले के डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया था। दरअसल साल 2017 में जब गुवाहाटी पुलिस दोनों की नागरिकता जांचने आई तो पुरखों के सारे प्रमाण मौजूद होने के बावजूद उन्हें भारतीय नहीं माना गया। हुसैन के दादा का नाम 1951 के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में शामिल था। 1965 की वोटर लिस्ट में उनके दादा और पिता दोनों ही शामिल थे। सेहरा के पिता का नाम भी 1951 के नागरिकता रजिस्टर और 1966 की वोटर लिस्ट में पाया गया।

हुसैन और सेहरा ने 1958–59 तक के सारे कागजात पुलिस को दिखाए। लेकिन शायद अपनी अशिक्षा की वजह से वे अफसरों के आगे अपनी बातें सही ढंग से पेश नहीं कर पाए और कमज़ोर आर्थिक हैसियत की वजह से वकील करना उनके लिए मुश्किल था। इन हालात में सरकार की नज़र में उनकी भारतीय नागरिकता साबित नहीं हो सकी। जबकि कानूनन असम में भारतीय नागरिक होने के मार्च 24, 1971 तक के कागजी प्रमाण मान्य हैं। सेहरा के केस को उसी साल अगस्त में और हुसैन के केस को अगले साल जनवरी में फॉरेन ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया।

नूर हुसैन ने अंग्रेज़ी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के साथ बातचीत के दौरान कहा, 'हम दोनों पति-पत्नी सरकार के लिए एक लुप्त कागज़ हो चुके थे। क्या करना है, कहां से कौन से कागज़ लाने हैं हमें कोई जानकारी नहीं थी। यह कैसे मुमकिन हो सकता है कि हम अवैध रूप से बॉर्डर लांघ कर यहां आए हैं? असम हमारा घर है, यहीं हमारा जन्म हुआ है तो आखिर कैसे हम बांग्लादेशी हो गए?'

जानकारी के अभाव में किसी तरह हाथ–पैर मार कर नूर ने 4000 रुपए फीस देकर एक वकील किया। जबकि  उनकी पत्नी के लिए कोई वकील नहीं मिला। लेकिन  28 अगस्त 2018 को हुसैन के वकील ने भी उनका केस ये कहते हुए छोड़ दिया कि वे उनकी फीस औऱ केस के दूसरे खर्च नहीं दे पाएंगे। वकील न होने की वजह से नूर हुसैन ट्रिब्यूनल की कार्रवाई को न ठीक से समझ पाए और न ही अगली कई सुनवाइयों में हाज़िर हो पाए। वे बताते हैं कि केस छोड़ते वक़्त वकील ने उन्हें कहा था कि वे गुवाहाटी छोड़ कर भाग जाएं, वरना पुलिस उन्हें गिरफ्तार कार लेगी। लेकिन हुसैन और उनकी पत्नी ने कहा कि जब हम गलत नहीं है तो अपने ही घर से क्यों भागें?

लेकिन अपनी धरती, अपने देश पर नूर हुसैन का ये भरोसा फॉरेनर्स एक्ट की लाठी से उन्हें बचा नहीं सका। फॉरेनर्स एक्ट का सेक्शन 19 कहता है कि अपनी नागरिकता साबित करना लोगों की जिम्मेदारी है। और अगर कोई शख्स ऐसा न कर पाए या ट्रिब्यूनल की कार्रवाई में सही ढंग से शामिल न हो पाए तो ट्रिब्यूनल उनके खिलाफ एकतरफा फैसला सुना सकता है। किसी प्रतिनिधित्व के अभाव में पुलिस ने दोनों को जून 2019 में गिरफ्तार कर डिटेंशन सेंटर में भेज दिया। कोई और सहारा न होने के कारण उनके 5 और 7 साल के दो मासूम बच्चों को भी सेहरा और नूर हुसैन की तरह ही डिटेंशन सेंटर में ही रहना पड़ा। 7 वर्षीय शाह को इसी वजह से अपना स्कूल भी छोड़ना पड़ा। सेहरा कहती हैं कि डिटेंशन सेंटर की कैद में बच्चे पूरे समय घर जाने की रट लगाए रहते थे। 

आखिरकार नूर हुसैन और सेहरा की किस्मत ने साथ दिया और उनके किसी रिश्तेदार ने गुवाहाटी के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील अमन वदूद से संपर्क करके पूरी कहानी बताई। अमन और उनके साथी वकील, सैय्यद बुरहनुर रहमान और ज़ाकिर हुसैन ने गुवाहाटी हाई कोर्ट में हुसैन और सेहरा का केस लड़ा। अमन बताते हैं कि कई पीड़ित तो केवल इसलिए अवैध घुसपैठिए घोषित हो जाते हैं क्योंकि उन्हें कोई वकील ही नहीं मिलता। 

9 अक्टूबर को हाई कोर्ट ने ट्रिब्यूनल के फैसले को दरकिनार कर दोबारा सुनवाई का फैसला सुनाया। इसके बाद हुसैन और सेहरा ज़मानत पर रिहा हुए। कई सुनवाइयों के बाद आखिरकार 16 दिसंबर को ट्रिब्यूनल ने हुसैन को भारतीय नागरिक घोषित कर दिया। अभी बीते बुधवार को सेहरा को भी भारतीय नागरिक घोषित किया गया है।  कोर्ट के फैसले के बाद वकील अमन वदूद ने जब नूर हुसैन के सात साल के बेटे से पूछा कि वो बड़ा होकर क्या बनना चाहता है तो उसका जवाब था ‘वकील’।

यह कहानी सिर्फ एक अकेले नूर हुसैन की नहीं है। असम के डिटेंशन कैम्प में ऐसे और भी लोगों की मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता। अशिक्षा, गरीबी या किसी और वजह से अपनी नागरिकता का सबूत न दे पाने के कारण या वकील के अभाव में अपनी बात ठीक से पेश नहीं कर पाने की वजह से विदेशी होने का दंश झेलने वाले इन लोगों की पीड़ा वाकई दिल दुखाने वाली है। और ऐसे हर व्यक्ति को अमन जैसे मददगार वकील मिल जाएं यह भी ज़रूरी नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह से लेकर बीजेपी के तमाम नेता-मंत्री दावे करते हैं कि देश के नागरिकों को NRC और CAA से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे बार-बार दोहराते हैं कि नया नागरिकता कानून किसी की नागरिकता छीनने का कानून नहीं है, बल्कि पड़ोसी देशों के पीड़ित गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने का कानून है। लेकिन अगर देश के गृह मंत्री की बताई क्रोनोलॉजी के हिसाब से पहले नागरिकता रजिस्टर और फिर नए नागरिकता कानून को लागू करने की प्रक्रिया चली, तो नूर हुसैन जैसी दास्तानें देश के हर इलाके में सुनने को मिल सकती हैं। NRC और CAA की क्रोनोलॉजी का ये रोड रोलर देश भर में चला तो कितनी ज़िंदगियां उसके नीचे पिस सकती हैं, फिलहाल अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल है।