राहुल गांधी: पहाड़ को हटाने का जुनून

भारत वर्तमान में दूसरी आजादी की राह पर है जो मूलतः संविधान की रक्षा को लेकर है। यह नए सिरे से सत्याग्रह में उतरने का समयकाल है। वैसे महात्मा गाँधी ने कहा है, सत्याग्रह की खूबी यही है कि वह स्वयं हमारे पास चला आता है, हमें उसे खोजने नहीं जाना पड़ता।

Updated: Nov 09, 2025, 12:32 PM IST

मच जाए जिनसे देश में हर सू उथल पुथल,
उन शक्तियों की फिर से जगाने को जी करे। 
क्या वलवले हैं दिल में हमारे न पूछिये,
है सामने पहाड़, हटाने को जी करे।
हंसराज “रहबर”

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कर्नाटक में हुई चुनावी हेराफेरी को सामने लाकर एक महत्वपूर्ण पहल की थी। परंतु भारतीय जनमानस पर उसका बहुत कम प्रभाव पड़ा। इसके बाद वे बिहार की सड़कों पर ही सक्रिय रहे। उसका प्रभाव बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे बताएंगे। नतीजे चाहे जो आएं परंतु यह निर्विवाद है कि बिहार में कांग्रेस का संगठन नई प्राणवायु के साथ सक्रिय हो गया है। यह भी कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। अभी 5 नवंबर को राहुल गांधी ने दिल्ली में हरियाणा में हुई “वोट चोरी” को लेकर बेहद संवेदनशील पत्रकार वार्ता की है। जो तथ्य उसमे सामने आये वह बेहद भयावह और डरावने हैं। वहां के मुख्यमंत्री ने “व्यवस्था” की बात भी की थी, चुनाव नतीजों के तुरंत पहले। यानी व्यवस्था तो “भरपूर” थी। वहीं राहुल गांधी ने जो कहा वह तथ्यों के साथ कहा और उस पर शंका करने की न्यूनतम गुंजाइश है। 

पंरतु न तो केंद्रीय चुनाव आयोग और न ही हरियाणा के मुख्यमंत्री, सरकार और भाजपा इसे लेकर गंभीर और चिंतित दिखे। जो जवाब आये वे भी बचकाने और ऊलजलूल ही थे। अखबारों खासकर हिंदी अखबारों को तो जैसे साँप सूंघ गया और वे इस मुद्दे को जितना “बौना” बना सकते थे, बनाने में लग गए। जबकि यह महज “मुद्दा” नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र पर छा गया “संकट” और “गहन अंधकार” है। जैसी कि उम्मीद थी प्रतिक्रियाएं भी मध्यम ही सामने आई। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि उस पत्रकार वार्ता में मौजूद पत्रकारों ने जो सवाल पूछे उसमें से अधिकांश हरियाणा चुनावों में हुई अनिमितताओं की अनदेखी सी कर रहे थे। 

हंसराज “रहबर” लिखते हैं
“ये चेहरे हैं इंसानों के कुछ अर्थ है इस खामोशी का,
जब सुनने वाले बहरे हों तो बेकार का शिकवा कौन करे।”

भारतीय मीडिया और अधिकांश समाज बहरा ही नहीं अंधा भी हो चुका है। वह करीब 200 वर्षों के संघर्ष से अर्जित अपनी और अपने देश की "स्वतंत्रता” के मूल तत्वों से ही स्वयं को अलग कर चुका है। अधिकांश विपक्षी राजनीतिक दल भी इस बहरेपन और अंधेपन का शिकार होते नजर आ रहे हैं। चूंकि मुद्‌दा कांग्रेस के राहुल गाँधी ने उठाया है, इसलिये वे इस मामले पर किसी गंभीर कार्यवाही या दमदार प्रतिक्रिया से बचते नजर आ रहे हैं। राहुल गाँधी ने अपनी प्रेसवार्ता में हरियाणा जैसी स्थिति के महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में भी होने की बात कही थी, परंतु उपरोक्त में से किसी भी राज्य में उनका अपना दल इस मुद्दे पर सड़कों पर नहीं उतरा। इससे निराश होने की जरुरत भी नहीं है। 

भारत वर्तमान में "दूसरी आजादी” की राह पर है जो मूलतः “संविधान की रक्षा" को लेकर है। यह नए सिरे से सत्याग्रह में उतरने का समयकाल है। वैसे महात्मा गाँधी ने कहा है, “सत्याग्रह की खूबी यही है कि वह स्वयं हमारे पास चला आता है; हमें उसे खोजने नहीं जाना पड़ता। यह गुण सत्याग्रह के सिद्धांत में ही निहित है। जिसमें कुछ भी गुप्त नहीं है, जिसमें कोई चालाकी की बात नहीं है और जिसमें असत्य तो हो ही नहीं सकता। ऐसा धर्मयुद्ध अनायास ही आता है; और धर्मी (धर्म-परायण) मनुष्य उसके लिये सदा तैयार रहता है। जिस युद्ध की योजना पहले से करनी पड़े वह धर्मयुद्ध नहीं है।” राहुल गांधी ने चुनावी सत्य को बाहर ले जाने का जो बीड़ा उठाया है वह आसान नहीं है और तत्काल सकारात्मक परिणाम निकलने की कोई उम्मीद भी नहीं है। ऐसा इसलिये कि सामने वाले पक्ष को यह असाधारण विश्वास हो गया है कि " कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़‌ सकता।“ और फिलहाल वे इसी अमरबेल में बंधे नजर आ रहे हैं। 

पिछले करीब डेढ़ दशक में पत्रकारिता की जो दुर्दशा हुई है वह भी मौजूदा संविधान विरोधी वातावरण के लिये काफी हद तक जिम्मेदार है। अधिकांश मीडिया का किसी प्रोपेगंडा तंत्र में परिवर्तित हो जाना इक्कीसवीं सदी की अब तक की सबसे संगीन घटना है। बिहार सरकार या किसी अन्य सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार की खबर और साक्षात्कार मिनटों में प्रचलन से बाहर कर दिये जाते हैं। एकबार फिर गांधी की ओर मुड़ते हैं। वे कहते हैं, "मैं आपसे (पत्रकारों से) कहूंगा कि आप उन जंजीरों को तोड़ डालिये जिनमें आप जकड़े हुए हैं। समाचार पत्रों (तब अन्य मीडिया नहीं थे) को आजादी का रास्ता दिखाने और आजादी के लिये जान देने का गौरवमय उदाहरण प्रस्तुत करने का गौरवमय सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए। आपके हाथ में कलम है, जिसे सरकार नहीं रोक सकती।" 

आज हम सेना, पुलिस, शासन, प्रशासन, शिक्षक आदि सभी से यह उम्मीद करते और रखते हैं कि वे वही कार्य करें जिसके लिये उन्हें अधिकृत किया गया है। वे अपना कार्य पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करें। और ऐसा न करने पर पत्रकार और समाचार-पत्र उनके खिलाफ खूब लिखते हैं। परन्तु जो बेइमानी वे अपने पेशे के साथ कर रहे हैं, उसके लिये वे स्वयं को जवाबदेह नहीं मानते हैं। पत्रकार प्रबंधन को, प्रबंधन मालिक को और मालिक अपने निवेश का हवाला देकर बच निकल रहे हैं।

जो काम पहले पत्रकार और प्रकाशन संस्थान करते थे वही काम आज राहुल गाँधी को और अन्य गैर पत्रकारों को करना पड़ रहा है। यह स्थिति बेहद शर्मनाक और लिजलिजी है। संस्थान जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसका लिजलिजापन भी बढ़‌ता जाता है। फिर टीवी एंकरों और एंकरनियों का तो कहना ही क्या? जितने अपढ़, असंवेदनशील, अनैतिक और अतिरेक का यह वर्ग शिकार है, वैसा कोई अन्य वर्ग नहीं है। 

सागर सिद्धिकी ने लिखा है,
“जिस अहद (काल-समय) में लुट जाए फकीरों की कमाई,
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है।”

वर्तमान में पूरा भारत जिस संकट से गुजर रहा है वह स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अकल्पनीय था। महात्मा गांधी ने संभवतः जो सबसे बड़ा योगदान तत्कालीन समाज को दिया वह था उन्हें “भयमुक्त” होना सिखाया। आज भारतीय समाज को पुनः भय ने अपने आगोश में ले लिया है। ऐसे में भारतीय राजनीतिक फलक पर सिर्फ राहुल गाँधी ही एक ऐसे नेता के रूप में सक्रिय नजर आ रहे हैं जो वर्तमान सत्ता से "भयमुक्त" है। उनकी यही खूबी उन्हें लगातार नई पह‌चान और लोकप्रियता भी दे रही है। उनकी तीन यात्राएं और चुनाव आयोग को लेकर किये जा रहे रहस्योद्‌घाटन उन्हें भारतीय राजनीति में " अपरिहार्य” बना रहे हैं। प्रसिद्ध गाँधीवादी और पर्यावरणविद स्व. अनुपम मिश्र की एक पुस्तक का शीर्षक है, "अच्छे विचारों का अकाल।” आज भारत भी विचारहीनता के दौर से गुजर रहा है। आजादी के बाद संभवतः सर्वाधिक बेरोजगारी और अपने इतिहास की सबसे भयावह आर्थिक असमानता के बावजूद भारतीय समाज ने भविष्य और भविष्य की संरचना के बारे में विचार करना ही जैसे बंद कर दिया है। हर व्यक्ति लुटा हुआ सा महसूस कर रहा है लेकिन मुंह खोलने या सड़क पर सत्याग्रह के लिये तैयार नहीं है। इसी पुस्तक में वे समझाते हैं, “अगर साध्य ऊंचा हो और उसके पीछे साधना हो तो सब साधन जुट जाते हैं।" राहुल गांधी का साध्य ऊँचा है और उसके पीछे उनकी आसाधारण साधना भी है, तो भी बदलाव के लिये जो साधन यानी जनसमूह अपने घरों से निकल क्यों नहीं रहा है? 

महात्मा गांधी समझाते हैं, “मनुष्य की बनाई कोई भी संस्था ऐसी नहीं है, जिसमें खतरा न हो। संस्था जितनी बड़ी होगी, उसके दुरूपयोग की संभावनायें भी उतनी ही बड़ी होंगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है, इसलिये उसका दुरूपयोग भी, बहुत हो सकता है। लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं, बल्कि दुरूपयोग की संभावना को कम से कम करना है।” 

आज भारतीय लोकतंत्र घनघोर दुरूपयोग का शिकार हो गया है। गांधी के उपरोक्त कथन को विस्तारित कर वर्तमान परिपेक्ष्य में इसके माध्यम से स्थितियों को परखते और आकलन करते हैं। भारतीय लोकतंत्र के दुरूपयोग के उदाहरण सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा मात्र दो उद्योगपतियों की हथेली पर धर देना इसका सबसे जीवंत उदहारण है। आज जो भी हो रहा है, वह लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से हो रहा है। चुनाव आयोग के आयुक्तों को संविधान और क़ानून से ऊपर कर लोकतंत्र और संविधान दोनों को, हाशिये पर रख दिया गया है। राज्यपालों के उपयोग और दुरूपयोग पर तो सर्वोच्च न्यायालय ही विपरीत टिप्पणी कर चुका है। वैसे सर्वोच्च न्यायालय भी सवालों के घेरे में है ही। इसी के साथ सी ए जी, सी बी आई, ईडी आदि संस्थाओं पर भी प्रश्नचिन्ह लग गए हैं। रिजर्व बैंक की स्वायत्तता भी कमोवेश शून्य होती जा रही है।

ऐसी विपरीत परिस्थिति में राहुल गांधी के प्रयासों को नजर-अंदाज नही किया जा सकता। चुनावी हार-जीत महत्वपूर्ण है लेकिन उसी के समानांतर चुनाव प्रणाली को अर्थपूर्ण बनाये रखना भी अनिवार्य है। और राहुल गांधी उसी में जुटे हैं। यह भी तय है कि उनके पास वैसे सक्रिय लोग नहीं है जैसे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय दृष्यपटल पर थे। परंतु याद रखना होगा कि महात्मा गांधी ने न केवल उन्हें प्रशिक्षित किया बल्कि उन्हें एकजुट भी रखा। राहुल गांधी और वर्तमान कांग्रेस को आजादी से पहले की कांग्रेस की आधारभूत संरचना को समझना और अपनाना चाहिए।

अंत में पुनः हंसराज रहबर, 
“उनकी फितरत है वे धोखा करें,
हम पे लाजिम है हम सोचा करें।
बज्म का माहौल कुछ ऐसा है आज,
हर कोई पूछता “क्या करें”।।”