अपनी अपनी आजादी और अपनी अपनी गुलामी

गुलामी होती क्या है? और आजादी क्या है? क्या हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दरकिनार करके आजादी की कोई परिभाषा गढ़ सकते हैं? या व्यक्ति को गुलाम रखकर किसी सामुदायिक आजादी की कल्पना की जा सकती है? हमारे स्वधीनता संग्राम में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक प्रमुख आदर्श के रूप में उपस्थित हुई। उसे प्राप्त करने के लिए हमारे नेताओं ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कुरबान कर दी। इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर जिन संस्थाओं की ओर से खतरा उत्पन्न हो सकता है उनमें राज्य की संस्था सबसे प्रमुख है। उसके बाद धर्म की संस्था आती है और फिर जाति की। आज सबसे ज्यादा शक्तिशाली संस्था पूंजी की हो गई है। यह सारी संस्थाएं राज्य की संस्था को अपने हितों के लिहाज से इस्तेमाल करती हैं।

Updated: Aug 15, 2020, 03:19 AM IST

photo courtesy :  mensxp.com
photo courtesy : mensxp.com

स्वतंत्रता दिवस की 74 वीं वर्षगांठ इस मायने में विशिष्ट है कि आज धार्मिक स्वतंत्रता ने ज्यादा प्रमुखता पा ली है। वह भी बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता को ही पूरे देश और समाज की स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित किया जा रहा है और बाकी समुदायों से कहा जा रहा है कि वे उसी में अपनी आजादी देखें। हालांकि आजादी के पूरी और अधूरी होने की बहस तभी से चल रही है जबसे 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के बाद भारत को आजादी मिली। कुछ लोगों ने इसे एक अधूरी आजादी कहा तो टी नागीरेड्डी जैसे मार्क्सवादियों ने भारत को बंधक बनाए जाने का तर्क देते हुए `इंडिया मार्टगेज्ड’ जैसा ग्रंथ लिखा। लेकिन इस 5 अगस्त को अयोध्या में राममंदिर के भूमि पूजन के साथ भारत सरकार और उसके प्रतिनिधियों की ओर से यही घोषणा की गई कि आजादी की जो लड़ाई पांच सौ साल से चल रही थी उसमें विजय हासिल हुई।

इसी के साथ बहुजन समाज के बौद्धिकों ने अपनी ओर से घोषणा की है कि वे 7 अगस्त को अपनी मुक्ति का दिवस मनाएंगे क्योंकि उस दिन मंडल आयोग की रपट लागू हुई थी और शूद्रों को केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण मिला था। उन्होंने `समृद्ध अयोध्या’ की अवधारणा पर टिप्पणी करते हुए यह भी कहा है कि इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए कोई स्थान नहीं होगा। इसलिए शूद्रों और अतिशूद्रों की मुक्ति तो तब तक नहीं होगी जब तक सत्ता और संपत्ति के साधनों में उनकी आबादी के लिहाज से भागीदारी नहीं होगी। उधर कश्मीर के लोग अपने यहां लोकतंत्र की बहाली के इंतजार में है और नागरिक अधिकारों के संगठन कह रहे हैं कि आजादी का दायरा लगातार कम होता जा रहा है। 

दरअसल गुलामी और आजादी के अपने अपने आख्यान हैं और समाज में सक्रिय राजनीतिक और सामाजिक संगठन उसे अपने ढंग से परिभाषित करते हैं। अगर आज के संदर्भ में आजादी का अर्थ देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र ने 10 दिसंबर 1948 को मानवाधिकार का जो चार्टर जारी किया है और जिसका समय समय पर विस्तार होता रहा है उसे हर देश में सच्चे अर्थों में अपनाया जाना वास्तविक अर्थों में आजादी का अवतरण होगा। भारत ने भी उसे अपने संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल किया है और इसीलिए संविधान के मौलिक अधिकारों की रक्षा आजादी की रक्षा मानी जाएगी। संविधान का एक हिस्सा देश की एकता और अखंडता के लिए राज्य की संस्थाओं को आपातकाल तक के अधिकार देता है और दूसरा हिस्सा शक्तिशाली राज्य के समक्ष आम आदमी को मौलिक अधिकार देता है। विडंबना यह है कि आज राज्य की संस्थाओं, बहुसंख्यक धार्मिक संस्थाओं और पूंजी के प्रतिष्ठानों की रक्षा को आजादी की रक्षा मान लिया गया है। एक तरफ राज्य को अवतारवाद से जोड़ा जा रहा है तो दूसरी ओर पूंजी के प्रतिष्ठानों को आर्थिक तरक्की की गारंटी माना जा रहा है। 

लेकिन विडंबना यह है कि आज के संदर्भ में नागरिकों को आजादी देने और उसे सुरक्षित करने का प्रयास करने की बजाय कुछ संगठन इतिहास में आजादी की लड़ाई लड़ते रहते हैं। इसमें सबसे प्रमुख लड़ाई एक हजार साल की मुस्लिम गुलामी से मुक्ति की लड़ाई है। यह आख्यान बहुत तैयारी के साथ रचा गया है कि भारत पर एक हजार वर्ष पहले इस्लाम के मानने वालों ने जो आक्रमण शुरू किया था और उसके चलते जो भारतीय समाज पर जो गुलामी थोपी वह अंग्रेजों के आने तक जारी रही। आज उससे आजाद होने का समय आ गया है। उसके लिए पूरे देश में बिखरे इस्लामी स्मारकों और प्रतीकों को मिटाया जाना चाहिए तभी भारत वास्तविक अर्थो में आजाद होगा। सोमनाथ से अयोध्या तक का आख्यान इसीलिए रचा गया और भविष्य में उसे नए रूप में विस्तार भी दिया जा सकता है।

आजादी का दूसरा आख्यान उन आदिवासियों, शूद्रों और अतिशूद्रों की ओर से चलाया जाता है जो मानते हैं कि तकरीबन तीन हजार साल पहले आर्यों के आक्रमण के साथ भारत के मूल निवासियों को गुलाम बनाया गया और उन्हें आज भी आजादी हासिल नहीं हो पाई है। इसलिए कभी आदिवासी बनाम गैर आदिवासी, कभी दलित बनाम सवर्ण तो कभी शूद्र बनाम ब्राह्मण के रूप में वह लड़ाई जारी है। इसलिए अगर इस्लाम से आजादी का आख्यान एक हजार साल पुराना है तो आर्यों से मुक्ति का आख्यान तीन हजार साल पुराना है।

आजादी का एक तीसरा आख्यान पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के आगमन से जुड़ता है। आधुनिक भारत में सबसे सघन रूप से चले स्वतंत्रता संग्राम की विरासत का दावा करने वालों का मानना है कि औपनिवेशिक मानसिकता और उससे जुड़े अर्थतंत्र और राजनीतिक तंत्र से मुक्त हुए बिना भारत सही मायने में आजाद नहीं हो सकता। एक चौथा आख्यान उन लोगों का है जो उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया को गुलामी का नया खतरा मानते हैं। उनका कहना है कि इस प्रक्रिया को अगर रोका नहीं गया तो सारा भारत फिर से गुलाम हो जाएगा। इससे लड़ने के लिए जहां गांधीवादियों की ओर से आजादी बचाओ आंदोलन खड़ा हुआ वहीं संघ की ओर से स्वदेशी जागरण मंच बना। उधर कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने भी अपने ढंग से अभियान चलाए।

इसलिए यह सवाल उठता है कि आखिर कितने वर्षों की गुलामी से लड़ा जाए? इसी के साथ सवाल यह उठता है कि गुलामी होती क्या है? और आजादी क्या है? क्या हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दरकिनार करके आजादी की कोई परिभाषा गढ़ सकते हैं? या व्यक्ति को गुलाम रखकर किसी सामुदायिक आजादी की कल्पना की जा सकती है? हमारे स्वधीनता संग्राम में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक प्रमुख आदर्श के रूप में उपस्थित हुई। उसे प्राप्त करने के लिए हमारे नेताओं ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कुरबान कर दी। इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर जिन संस्थाओं की ओर से खतरा उत्पन्न हो सकता है उनमें राज्य की संस्था सबसे प्रमुख है। उसके बाद धर्म की संस्था आती है और फिर जाति की। आज सबसे ज्यादा शक्तिशाली संस्था पूंजी की हो गई है। यह सारी संस्थाएं राज्य की संस्था को अपने हितों के लिहाज से इस्तेमाल करती हैं।

यही कारण है कि गांधी स्वतंत्रता को परिभाषित करते हुए न सिर्फ जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव से परहेज करते हैं बल्कि वे यह भी कहते हैं कि भारत की आजादी तभी आएगी जब उसे ब्रिटिश पूंजीपतियों के साथ भारतीय पूंजीपतियों के आधिपत्य से छूट मिले। वे चाहते थे अंग्रेजी सेना तो यहां से जाए ही और भारतीय सेना भी नागरिकों पर शासन न करे। वे आजादी की परिभाषा को एक जाति और धर्म पर लागू करने की बजाय पूरी कौम पर लागू करते थे और उनके लिए उसकी सबसे छोटी इकाई व्यक्ति थी। उनके लिए आजादी तभी जाती है जब व्यक्ति के भीतर लालच आए या भय आए। 

कौन सी आजादी जरूरी है और कौन सी नहीं, कौन सी गुलामी से पहले लड़ा जाए और किससे बाद में, इसके भी आख्यान अपने समय और हित के लिहाज से राजनीतिक दल और नेता रचते रहते हैं। जिन नेताओं का आख्यान समावेशी होता है वे युगप्रवर्तक होते हैं और जिनका एकांगी होता है वे किसी को शत्रु बताकर अपना कद बढ़ाते हैं। हालांकि एकांगी आख्यान ज्यादा तेजी से परवान चढ़ते हैं और समावेशी आख्यान धरे रह जाते हैं। यह प्रक्रिया आज भी चल रही है और उसके अपने अपने परिणाम हैं। उसकी एक झलक हम स्वाधीनता संग्राम में भी गांधी और आंबेडकर विवाद में देख सकते हैं। तमाम आंबेडकरवादी आज भी मानते हैं कि आजादी की जिस लड़ाई में हजारों लाखों लोगों ने यातनाएं सहीं और सैकड़ों लोग फांसी के तख्ते पर झूले वह गैर जरूरी थी। भारत को डोमिनियन दर्जा तो मिलने ही वाला था और गांधी व उनके अनुयादी बेवजह लड़ाई लड़ रहे थे। उनका मानना था कि भारत के आजाद होने के बाद जाति का सवाल आधुनिकीकरण के साथ अपने आप हल हो जाएगा। वैसे ही जिन्ना मानते थे कि मुस्लिमों को हिंदुओं के आधिपत्य से आजाद होना चाहिए जैसे कि सावरकर और संघ के लोग मानते थे कि अंग्रेजों से ज्यादा मुसलमानों से लड़ना जरूरी है। 

वास्तव में आजादी का अर्थ तभी है जब कोई व्यक्ति अपने विचार व्यक्त करने और उसके मुताबिक कार्य करने के लिए उस सीमा तक स्वतंत्र है जहां तक वह किसी के साथ हिंसा नहीं करता। लेकिन उसके लिए पहले उस व्यक्ति को राज्य, धर्म, जाति और पूंजी की संस्था से स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए। यह तभी मिल सकती है जब स्वतंत्रता के साथ समता और बंधुत्व का साझा हो। स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व सगी बहने हैं। उनका विवाह लोकतंत्र के साथ हुआ है। उनमें परस्पर समभाव रहेगा तब तो लोकतंत्र का घर चलेगा नहीं तो बिखर जाएगा। स्वतंत्रता तभी कायम रह सकती है जब उसके भीतर एक प्रकार का समभाव हो। वह समभाव सभी जातियों के लिए हो तो सभी धर्मों के लिए भी हो। सभी वर्गों के लिए हो तो सभी नागरिकों के लिए हो। ऐसा वे लोग नहीं कर सकते जो अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं या वे जो अपनी जाति को श्रेष्ठ मानते हैं या वे जो अपने धन के बूते पर लोगों की सेवा करने की बजाय दूसरों का शोषण करते हैं। इसलिए अगर आजादी के आगामी दिवस को सार्थक बनाना है तो उन आख्यानों को पहचानना होगा जो हमें अपने और पराए के विग्रह में फंसा कर अतीत के स्मारकों और कहानियों में उलझाते हैं और नाम बदल कर या नया निर्माण करके आजादी की घोषणा करते हैं। इसी के साथ स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के बीच जो गर्भनाल का रिश्ता है उसे भी पहचान कर आगे बढ़ाना होगा।