रतन थियाम: नए जन्म के लिए नई कोख की तलाश

रतन थियाम तो एक उम्मीद हैं। सब ख़त्म हो जाने के बावजूद नई शुरुआत तो उम्मीद से ही होती है। रतन थियाम कोई साधारण व्यक्ति, साधारण कलाकार नहीं थे। वे अपने आप में एक विचार थे, दर्शन थे, नाट्य निर्देशक थे, नाट्य लेखक थे, कवि थे, चित्रकार थे, दर्शक थे, अभिनेता थे, वे एक संत भी थे और गृहस्थ भी। वे सब कुछ थे और शायद कुछ भी नहीं।

Updated: Jul 25, 2025, 03:12 PM IST

समय को चौबीस घण्टों ने,
जकड़ रखा है,
सुकून से बात करना है तो,
चौबीस घण्टों के बाहर के, 
समय में तुम आओ,
मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा।
रतन थियाम

रतन थियाम तो एक उम्मीद हैं। सब ख़त्म हो जाने के बावजूद नई शुरुआत तो उम्मीद से ही होती है। रतन थियाम कोई साधारण व्यक्ति, साधारण कलाकार नहीं थे। वे अपने आप में एक विचार थे, दर्शन थे, नाट्य निर्देशक थे, नाट्य लेखक थे, कवि थे, चित्रकार थे, दर्शक थे, अभिनेता थे, वे एक संत भी थे और गृहस्थ भी। वे सब कुछ थे और शायद कुछ भी नहीं। वे हरबार एक नए अवतार नए कलेवर में होते थे। उनका प्रत्येक नाटक निरंतरता का नहीं नयेपन का प्रतीक बनकर सामने आता था।

उन्होंने कहा था, “मेरा प्रत्येक नाटक (Production) मेरे लिए एक तीर्थयात्रा की मानिंद है और पहले प्रदर्शन के बाद वह मेरे लिए कतई महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। मैं एक नये जीवन के लिए हमेशा एक नये गर्भ से जन्म लेना चाहता हूँ। पहला प्रदर्शन हो जाने के बाद मैं उस प्रोडक्शन के साथ अगले ही दिन नहीं रह पाता।” वे हमेशा ही अपने लिये नए प्रतिमान तय करते रहे। हिन्दुस्तान के संभवतः सबसे छोटे लेकिन हाल फिलहाल सबसे अशांत प्रदेश मणिपुर से निकलकर पूरी दुनिया को चकाचौंध कर देने के बाद वे फिर मणिपुर लौट आए। उस अशांति में वे धैर्य की परीक्षा दे रहे थे और परीक्षा ले भी रहे थे। नाटक को लेकर और उससे भी आगे बढ़कर जीवन के प्रति उनका एक मौलिक दर्शन भी था। तभी तो वे कह पाए कि, “समानता किसी मनुष्य की अवधारणा या संकल्पना नहीं है। यह तो प्रकृति का कानून है। हम तो बस इसका उल्लंघन ही करते रहते हैं।”

वे इसी समग्रता के साथ अपने कार्य को परिणिति की ओर ले जाते थे। नाटक उनके लिए महज एक कलारूप तक सीमित नहीं था। वे तो इसे तपस्या और साधना की तरह ग्रहण करते थे। उनका मानना था कि, “नाटक सत्य की खोज का माध्यम है।” गौरतलब है गांधी सत्य तक पहुँचने के लिए “शांति” को मार्ग बनाते हैं और रतन थियाम “थियेटर-नाटक” को। सत्य तक पहुँचने के लिए उन्होंने एक कलारूप को क्यों चुना? इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं, कि “लोग मानते हैं कि नाटक करने वाले अनपढ़ गंवार हैं। इसीलिये नाटक करते हैं, पागल हैं। लेकिन नाटक करना उतना आसान नहीं क्योंकि आपको दुनियाभर की किताबें पढना होंगी। ब्रिटिश शेक्सपियर से लेकर मिस्त्र की सभ्यता, स्पेनिश नाटककार, सोफोक्लीज से लेकर आज तक के सभी नाट्यकार। आपको पूरी दुनिया को समझना होगा। पूरी दुनिया की कलाकारी पेंटिंग को समझना होगा। जितने आकल्पन (आर्किटेक्चर) बने हैं, बड़े-बड़े आकल्पन को समझना होगा। कितने केथेड्रल, कितने चर्च, कितने धर्म ग्रंथ पढ़ना जरुरी होता है। चाहे वह कुरान शरीफ हो या रामायण – महाभारत हो, गीता हो। दिसंबर महीने में चर्च में जाकर कोरल भी सुनना होता है। आप ईद में शामिल हो जाते हैं। दिमाग हमेशा सक्रिय रखना होता है। आप इंसान हो तो पूरी दुनिया में आपको लाया गया है, कुछ करने के लिए। आप क्या करना चाहते हैं? मतलब, सौंदर्य बोध (Asthetic) के साथ आपको यह करना है कि जैसे मंदिर के अंदर से उठती सुगंध। उसमें आप तुलसी के पत्ते, धूप के, चंदन के और प्रदीप के साथ मंदिर के अंदर जो भी चीजे हैं, आप मंदिर के अंदर जाकर उसी से नहा लेते हो और उसके बाद जब आप बाहर निकलते हो तो अलग ढंग के आदमी होते हो।”

उनके लिए नाटक और मंदिर दो अलग-अलग स्थितियां नहीं थीं। उन्होंने अपना रास्ता खुद ही गढ़ा और इतना ही नहीं उन्होंने भारतीय नाट्य जगत को एकतरह से पुर्नपरिभाषित भी किया। उनकी अपनी कथा कहने की अनूठी शैली रही, जो पुरातन से लेकर समकालीनता को अपने में समेटे रहती थी। उनकी प्रस्तुतियों में अनुष्ठानों, लय, ताल, मौन और दर्शन (फिलासफी) का बेहद अनूठा और संतुलित मेल दिखाई पड़ता है। उनका शिल्प गढ़ने का तरीका सबसे अलग था। जो नाटक वह खेलते थे उसके नए अर्थ निकालने की क्षमता उनमें थी। नाटक की “पंचलाइन” का निर्धारण भी उनकी मर्जी से ही होता था। उनके नाटकों में प्रकृति के साथ संतुलन, जीवन से जुड़ी एकात्मकता और असाधारण मानवता जैसे सतत प्रवाहित होती रहती थी। उनके नाटकों में हमें, हमारी सभ्यता पर छाये संकट की गहरी चेतना भी परिलक्षित होती दिखती है।

वे अपनी मातृभाषा मणिपुरी के माध्यम से वैश्विक संस्कृति को व्याख्यायित करते हैं। नाटक के माध्यम से वह जो रच रहे थे, उसमें भाषा तो जैसे नया अवतार ग्रहण कर लेती है। वह अपने नाटक के माध्यम से एक “विश्व भाषा” रचते हैं जो प्रत्येक प्राणी को संप्रेषणीय होती है। इस कठोर से कठोरतम की ओर अग्रसर समय काल में वे “कोमल से कोमलतम” की ओर यात्रा कराते हैं। उनके नाटकों को देखते हुए लगता है जैसे आप एक अद्भुत सजीवता का साक्षात्कार कर रहे हैं। उनके मंच पर सिर्फ कलाकार ही गतिमान नहीं होते बल्कि पूरा मंच, पार्श्व संगीत, प्रकाश, सबकुछ जैसे जीवंत-प्राणवान नजर आते हैं।

जीवन और कला भी उनके लिए कमोवेश समानार्थी ही थे। उनका मानना था “कला को हम जीवन से अलग नहीं कर सकते। हम जब भी इसे जीवन की वास्तविकताओं से पृथक करने की कोशिश करेंगे तो यह कमोवेश मृत हो जाएगी। ऐसा इसलिए क्योंकि तब यह प्रसांगिक नहीं रह पाएगी। और नाटक हमेशा जीवन के समकालीन आयाम से ही वास्ता रखता है। अतएव यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम मानवता और सभ्यता से संबंधित सारे विषयों का अध्ययन करें। सभ्यता की यात्रा और सभ्यता का धराशायी होना, दोनों जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयामों में से हैं, जिससे कि नाटक समकालीन मंच पर प्रकट होता है।”

रतन थियाम ने समकालीन विषमताओं से कभी नाता नहीं तोड़ा। मणिपुर की वर्तमान अराजक स्थिति को लेकर वह बेहद चिंतित थे और उन्होंने अपने तई समाधान के लिए जैसे भी और जितने प्रयास हो सकते थे सभी किये। परंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के सामने तो हम सभी हतप्रभ ही हैं। अपने नाटकों के माध्यम से वे बेहद स्पष्ट संकेत देते थे। जैसे “अंधायुग” में सभी कलाकारों का मंच पर प्रवेश गहरे काला चश्मा पहने हुए होता है। इस तरह वे अंधत्व से हमारा शुरुआती साक्षात्कार कराते हैं। धीरे-धीरे हम भी उस अंधकार में प्रवेश करते जाते हैं और अपना स्वयं का अंधत्व भी महसूस करने लगते हैं। आज सारी दुनिया जिस तरह युद्ध के अंधकार में प्रवेश करती जा रही हैं उस दौर में उनकी अंधायुग की प्रस्तुति युद्ध की विभीषिका और दर्शन को जिस कोमलता से अभिव्यक्त करती है, वह वास्तव में एक अनूठा अनुभव है। 

नाटक उत्तर प्रियदर्शी के संबंध में वे कहते हैं, “दुनिया में युद्ध कहीं भी हो युद्ध ही होता है। जब तक वह चलता है, उसका परिणाम किसी को पता नहीं होता। पर यह जान लेना चाहिए कि युद्ध का परिणाम विभीषिका ही होता है। तभी पता चलता है कि कितनी हानि हुई है। उस हानि की कभी भरपाई नहीं हो पाई। यह भरपाई इतिहास में या किसी भी सभ्यता में कभी नहीं हो पाई।” वहीं यदि ऋतुसंहार की बात करें तो यह नाटक बेहद गरिमामय ढंग से हम सबकी असंवेदनशीलता को प्रकट करता है। उनका अनुपम सौंदर्यबोध आलोचकों को यह कहने को बाध्य कर देता है कि “यह दुनिया रतन थियाम के नाटकों जितनी सुंदर क्यों नहीं है या फिर यह कि दुनिया को रतन थियाम के नाटकों जितनी ही सुंदर होना चाहिए।” 

हम आज तकनीक के युग में रह रहे हैं और तकनीक और प्रौद्योगिकी हम पर पूरी तरह से हावी होती चली जा रही है। परंतु उनके नाटकों में आधुनिक तकनीक जैसे महज सहायक की भूमिका में ही नजर आती है। प्रत्येक विलक्षणता में रतन थियाम की छवि ही नजर आती है। “ऋतुसंहार” कालिदास खंडकाव्य है या नाटक नहीं है। इसके छ: सर्गो में ग्रीष्म से वसंत तक की ऋतुओं का वर्णन है। इस कविता का अनूठा नाट्य रूपांतर रतन थियाम ने जिस परिपक्वता और कल्पनाशीलता से किया है, वह वास्तव में अन्यत्र दुर्लभ ही है।

रतन थियाम का नाट्यकर्म भारतीय नाट्यशास्त्र, पुरातन ग्रीक नाटकों, जापान का नाट्यरूप “नोह” के समानांतर मणिपुर के लोक, शास्त्रीय व पारंपरिक कलाशैलियों का अनूठा संगम है। वे अपने प्रत्येक नाट्य प्रदर्शन को समकालीन बना देते थे, भले वह नाटक हजारों वर्ष पुराना क्यों न हो। वे समझाते हैं, “प्रत्येक दौर में अत्यंत सौंदर्यबोध के माध्यम संवाद होना चाहिए। साथ ही हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम अभिनय की बीस वर्षों पुरानी शैली का उपयोग अब नहीं कर सकते। दुनिया बहुत तेजी से दौड़ रही है। इसलिए हमें अभिनय की नई तकनीक खोजना ही होगी। इस हेतु हमारा हस्तक्षेप इस विचार के साथ होना कि आज से पचास साल बाद या सौ साल बाद नाटक की दुनिया कैसी होगी? 

भारतीय शास्त्रीय नाट्य में परिवर्तन आया है। स्क्रिप्ट तो वही है लेकिन उसकी व्याख्या या विवेचना (Interpretation) तो बदल गई है। इसीलिए प्रशिक्षण का तरीका, अभिनय का तरीका भी बदलेगा। प्रस्तुतिकरण भी अलग तरह से होगा। प्रस्तुतिकरण की शैली भी बदलेगी। आज गलियों/सड़कों में जिस तरह से लोग चल फिर रहे हैं वैसे बीस साल पहले नहीं चलते थे, अब तो पैदल चलने का तरीका ही बदल गया है। अतएव हमें स्वयं को प्रस्तुत करने की नई पद्धति तैयार करनी होगी और नाटक के अभिनेता को एक प्रक्रिया के तहत स्वयं को एक आधुनिक अभिनेता की तरह प्रस्तुत करना होगा।” वे जानते थे कि यह आसान नहीं है। तभी तो उन्होंने एक साक्षात्कार कि में कहा था, “मेरे मन में एक अजीब सा सवाल पैदा होता है कि नाटक है क्या चीज? मुझे उसका सबसे आसान जवाब यह मिलता है कि जो समावेशी कलारूप आपको निरंतर परेशान किये रहता है, शायद उसी का नाम नाटक हो। उसकी प्यास जितनी बुझाओ बढ़ती चली जाती है। उसकी कोई सीमा नहीं है।” 

नाटक से वे संतुष्टि के भाव की अपेक्षा नहीं करते थे। वे चाहते थे कि उनकी बेचैनी बढ़ती ही जाए। वह जानते थे कि वह क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। उनके माता-पिता प्रसिद्ध नर्तक थे। उनके अनुसार “मैं लगभग पोषाकों के बक्से और ग्रीन रूम में ही पैदा हुआ और पला बड़ा हूँ।“ इसीलिए उनमें इस विधा को लेकर असीम धैर्य था। वह समझते हैं, “नाटक का उत्पादन (Production) आसान है। उसे दो तीन महीनों में किया जा सकता है। पर जब वह तलाश की तरह शुरू होता है तो बहुत दिन लग जाते हैं। यह तलाश दो, तीन या चार साल तक चल सकती है।” तभी तो उत्तर प्रियदर्शी को करने में उन्हें तीन बरस लग गए। 

वह “मैकबेथ” को एक समकालीन नाटक मानते थे और कहते थे कि मैकबेथ एक बीमारी का नाम है। यह भ्रष्ट दिमाग की बीमारी है और यह बहुत तेजी से फैलती हैं। यह कमजोर लोगों में जल्दी फैलती है। मैकबेथ कमजोर है और लेडी मैकबेथ शक्तिशाली।” आज जब हम अपने आसपास टटोलते हैं तो पाते हैं कि दुनिया “मेकबेथों” से भरी पड़ी है और उस बीमारी की व्यापकता भी अकल्पनीय होती जा रही है। एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था, “आज की सबसे बड़ी समस्या है कृत्रिम ऊर्जा का अत्यधिक उपयोग। मानव ऊर्जा का अधिकाधिक उपयोग ही शांति और समृद्धि ला सकता है।” 

समय के पाबंद रतन थियाम रंगमंच के चित्रकार भी थे। उनके द्वारा अकल्पित प्रत्येक दृष्य अंततः एक पेंटिंग एक चित्र में परिवर्तित होता चला जाता है। उदयन वाजपेयी उनके बारे में लिखते हैं, “दरअसल वे अपने नाटक की कल्पना इस तरह करते हैं कि ये सारे तत्व (चित्रकला, संगीत, संवाद/उच्चारण) अपने आप उसे समृद्ध करने भागे चले आते हैं। इन सभी तत्वों में अपने स्वतंत्र होने का भाव नहीं होता। वे अपने रंगकर्म को अवयव की तरह ही बरततें हैं। यह कुछ ऐसा है मानो रंगकर्म के इन तमाम तत्वों को उसी तरह धारण किया हो जैसे आत्मा ने हाथ-पैरों को, आँख-कान को, कंधे पर हिलते सिर और उठते-गिरते विचारों को धारण किया है।” 

रतन थियाम भारतीय नाटक की आत्मा हैं। कलाकार के नाते जितने सम्मान प्राप्त हो सकते हैं, वे सब उनके हिस्से आए मगर वह हमेशा कंधा झटक कर अपनी रेपेटरी में समा गए। वे कब और किसके गर्भ से नया जीवन लेंगे यह तो भविष्य बताएगा। अंत में उनकी कविता की कुछ पंक्तियां : 

“धूल से ढके होने के बावजूद भी
संघ्या के सूर्य की लालिमा
सुंदर बनी रहती है
आँख बचाने की सोचकर उन्हें बंद करने से
वह कैसे दिखाई देगी?
पतझर में गिरे पत्ते और निर्पण
वृक्ष में भी रमणीयता है
क्या होगा हर समय
वसंत चाहने से?”

वस्तुतः नाट्य तो ग्रीष्म की तीव्रता से अभिशाप्त है।
सलाम रतन दा!