जी भाई साहब जी: एक कदम आगे, दो कदम पीछे ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया

मध्‍य प्रदेश में केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया की राजनीति को लेकर इन दिनों एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली कहावत का प्रयोग किया जा रहा है। भोपाल में सिंधिया का बंगला बना तो उनकी न्‍यारी राजनीति चर्चा में आ गई। मगर अपने ही क्षेत्र में वे कमजोर दिखाई देने लगे। इतना की बीजेपी केंद्रीय नेतृत्‍व को उनकी सहायता में आगे आना पड़ा। चेहरा चमकाने की राजनीति में सिंधिया एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो बीजेपी की अंदरूनी राजनीति उन्‍हें दो कदम पीछे धकेल देती है। 

Updated: May 25, 2022, 05:42 AM IST

फोटो: साभार एचटी
फोटो: साभार एचटी

एक प्रख्‍यात कहावत है, एक कदम आगे, दो कदम पीछे। मध्‍यप्रदेश की राजनीति में केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया को लेकर इन दिनों इसी कहावत का प्रयोग किया जा रहा है। भोपाल में सिंधिया का बंगला बना तो उनकी न्‍यारी राजनीति चर्चा में आ गई। वह राजनीति जिसे मध्‍य प्रदेश में मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के समानांतर माना जा रहा है। इस राजनीति के मैदान में सिंधिया एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो बीजेपी की अंदरूनी राजनीति उन्‍हें दो कदम पीछे धकेल देती है। 

सिंधिया के बीजेपी में शामिल होते ही माना गया कि बीजेपी के पास एक और चमकीला चेहरा आया है। इसे अब तक लोकप्रिय मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मुकाबले पार्टी में एक नेता की आमद के रूप में देखा गया। ऐसा हुआ भी। सिंधिया ने आते ही अपनी महाराज जैसी एटीट्यूड वाली छवि को तोड़ कर सहज नेता की छवि बनानी शुरू की। कार्यकर्ताओं से संवाद में वे अपने ही बंधन तोड़ने को आतुर दिखाई दिए। 

महाराज की जगह भाई साहब कहलाने को तत्‍पर सिंधिया के समर्थकों को जब ग्‍वालियर क्षेत्र में ज्‍यादा तवज्‍जो मिलनी शुरू हुई तो बीजेपी के क्षत्रप परेशान हो गए। जो सिंधिया में शिवराज सिंह का विकल्‍प देख रहे थे उन्‍हें ग्‍वालियर चंबल क्षेत्र में अपनी राजनीति खटाई में पड़ती दिखाई दी। बरसों की राजनीतिक मेहनत को यूं जाया होता देख स्‍थानीय नेता सिंधिया के विरोध में खड़े हो गए। इस तरह, बीजेपी की राजनीति में एक मजबूत कदम रखने वाले सिंधिया को अपने ही गढ़ में दो कदम पीछे जाना पड़ा़। 

स्‍थानीय नेताओं की लामबंदी सिंधिया पर इतनी भारी पड़ती दिखाई दी कि केंद्रीय नेतृत्‍व को हस्‍तक्षेप करना पड़ा। संगठन की जिला बैठकों में शिवपुरी जिला इकाई सहित क्षेत्र के अन्‍य नेताओं से कहा गया कि कांग्रेस से मुकाबले में सिंधिया अकेले पड़ रहे हैं। बीजेपी नेता उनका साथ छोड़ कर अकेला न करें। बैठक में नाम भले कांग्रेस का लिया गया मगर संकेत ग्‍वालियर क्षेत्र के बीजेपी के क्षत्रप नेताओं की ओर था। 

स्‍थानीय ही क्‍यों, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से भी ऐसा ही हुआ। जब सिंधिया सपरिवार प्रधानमंत्री मोदी से मिले तो एकाएक पार्टी में उनका कद बढ़ने और बेटे महाआर्यमन के राजनीति में आने की खबरों को बल मिला। मगर अगले ही दिन प्रधानमंत्री मोदी ने गुना में सिंधिया को परंपरागत सीट से हरा कर सांसद बने केपी यादव से मुलाकात कर ली। एक दिन पहले जो समझ रहे थे कि पार्टी में सांसद केपी यादव को सिंधिया के मुकाबले कम तवज्‍जो मिल रही है, वे असमंजस में पड़ गए। प्रधानमंत्री मोदी ने सांसद केपी यादव से मुलाकात कर सिंधिया की राजनीति को बैलेंस कर दिया। फिर वही हुआ, एक कदम आगे बढ़े सिंधिया, दो कदम पीछे हो गए। 

बुंदेलखंड में पहुंचे सिंधिया ने जब सार्वजनिक मंच पर कद्दावर ब्राह्मण नेता गोपाल भार्गव के कंधे पर हाथ रख कर साथ देने का वादा किया तो माना गया कि सिंधिया बीजेपी के उन नेताओं का जवाब बन रहे हैं जो गोपाल भार्गव जैसे नेता को साइड लाइन कर रहे हैं। फिर जब भोपाल में बंगला मिला और यहां जनता से मिल कर सिंधिया ने उनकी समस्‍या सुनी तो संदेश गया कि भोपाल में बीजेपी का एक पॉवर सेंटर बन गया है। यह राजनीति में एक कदम आगे बढ़ना हुआ। 

इधर, सिंधिया ने एक कदम आगे बढ़ाया, उधर, गुना में सांसद केपी यादव और सिंधिया समर्थक पंचायत मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया में बयान युद्ध छिड़ गया। दरअसल, महेंद्र सिंह सिसोदिया ने एक कार्यक्रम के दौरान कह दिया था कि 2019 में गुना की जनता से गलती हुई जो सिंधिया को हरा कर बीजेपी के केपी यादव को सांसद चुना। इस पर केपी यादव ने सिसोदिया को नसीहत देते हुए कहा कि "कार्यकर्ताओं के फोन आए थे कि हमारे जो प्रदेश के मंत्री हैं महेंद्र सिंह सिसोदिया, वह बार-बार कहते हैं कि हमसे गलती हुई है. इसे उनकी नासमझी कहूं या बेवकूफी क्योंकि अब वह भारतीय जनता पार्टी के मंत्री हैं! मंत्री ऐसे बयानों से बाज आएं नहीं तो 2023 में जनता सुधार देगी।"

मंत्री सिसोदिया क्षेत्र में सिंधिया के वर्चस्‍व को बनाए रखने का जतन कर रहे हैं तो केपी यादव बार-बार उन्‍हें जवाब दे रहे हैं। केपी यादव का मजबूत बने रहना सिंधिया खेमे की आंख की किरकिरी बना हुआ। इसके पीछे भी बीजेपी की राजनीति ही है। बयान को लेकर बीजेपी ने केपी यादव और मंत्री सिसोदिया को नसीहत भले ही दे है, मगर कोई तो ताकतवर नेता है जो संगठन में केपी यादव की ‘शक्ति’ बना हुआ है। वह नेता केपी यादव को ताकत दे रहा है ताकि सिंधिया अपने ही घर में कमजोर बने रहें। जो अपने घर में कमजोर होगा वह बाहर ताकतवर हो कर भी क्‍या ही कर लेगा? यह सियासी बाजी एक कदम मजबूत हो रहे सिंधिया को दो कदम पीछे धकेल देती है। 

बीजेपी विधायकों को जनता करेगी सीधा?

मध्यप्रदेश में आखिरकार महापौर और नगरपालिका अध्यक्ष को जनता नहीं, बल्कि पार्षद चुनेंगे। ये करूं या वो करूं के असमंजस में उलझी शिवराज सिंह चौहान सरकार ने अंतत: फैसला कर लिया है कि प्रदेश में 22 साल बाद नगरीय निकाय चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से होने जा रहे हैं। चुनाव का ये तरीका कांग्रेस शासनकाल में 1999 तक लागू रहा, लेकिन तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने इसे बदला। तब से अब तक हुए चुनावों में महापौर-अध्यक्ष को जनता ही चुनती आ रही थी। 

15 साल बाद 2018 में कांग्रेस सत्ता में लौटी तब कमलनाथ सरकार ने अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव करवाने का निर्णय किया। इसकी वजह वह आकलन माना गया जो कहता है कि अप्रत्‍यक्ष प्रणाली का लाभ बीजेपी को ज्‍यादा हुआ है। उस समय बीजेपी ने इसका विरोध किया था। तभी तो जब शिवराज सिंह चौहान मार्च 2020 में फिर मुख्‍यमंत्री बने तो उन्‍होंने कमलनाथ सरकार के इस फैसले को बदलने का निर्णय लिया था। अब नगरीय निकाय चुनाव के ठीक पहले शिवराज सरकार फिर पलट गई है और उसने सीधे जनता द्वारा महापौर व नगरपालिका अध्‍यक्ष को चुना जाएगा। 

महापौर व अध्यक्ष को सीधे जनता से चुनवाने का फैसला करने के पीछे बीजेपी की अंदरूनी राजनीति है। खबर हैं कि बीजेपी संगठन ने यह फैसला करवाया है। महापौर वास्‍तव में विधायक से अधिक प्रभावशाली होते हैं। इस पद पर विधायक अपने व्‍यक्ति को बैठाना चाहते हैं ताकि क्षेत्र में उनका वर्चस्‍व बना रहे। अपने व्‍यक्ति को बैठाने में पार्षद बहुत काम आते हैं। पार्टी का आकलन है कि पार्षदों द्वारा चुने जाने पर महापौर का कद विधायकों की अपेक्षा कम हो जाता है। पार्षद बहुमत से महापौर को अपने या अपने आका विधायक की मंशा अनुसार काम करने पर मजबूर भी सकते हैं। 

शिवराज सिंह सरकार ने नगरीय निकाय चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने का निर्णय विधायकों के दबाव में लिया। पार्टी का आकलन है कि महापौर के सूत्र विधायकों के हाथ में रहेंगे तो वे और मजबूत होंगे। इसी कारण शिवराज सरकार पर दबाव बनाया गया और विधायकों की राजनीति पर संगठन को भारी करने के लिए महापौर व अध्‍यक्ष का चुनाव जनता के हाथ में दिया गया। 

ओमकार सिंह मरकाम के जरिए नया मकाम पाने की जुगत 

मिशन 2023 के लिए संगठन के स्‍तर पर बदलाव कर रह मध्य प्रदेश कांग्रेस ने एक और फैसला लिया है। तीन बार के कांग्रेस विधायक ओमकार सिंह मरकाम को आदिवासी कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। उनके साथ तीन उपाध्यक्ष भी बनाए गए हैं। मरकाम चर्चित आदिवासी चेहरा हैं जबकि तीन उपाध्‍यक्ष अपेक्षाकृत रूप से कम ख्‍यात हैं। पहले युवा कांग्रेस के अध्‍यक्ष के रूप में झाबुआ से विक्रांत भूरिया व आदिवासी कांग्रेस के अध्‍यक्ष के रूप में डिंडौरी से ओमकार सिंह मरकाम को चुनना दो क्षेत्रों के नेता के रूप में आदिवासी वोट बैंक को अपने खाते में बनाए रखने की जुगत है। 

आदिवासी कांग्रेस के प्रदेश अध्‍यक्ष की जिम्मेदारी अब तक अजय शाह संभाल रहे थे। ओमकार सिंह मरकाम को कमान दे कर कांग्रेस आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाने की बीजेपी की कोशिशों पर पानी फेरना चाहती है। ओमकार सिंह मरकाम 2008 में पहली बार विधायक बने थे। 2013 के बाद 2018 का चुनाव जीते तो कमलनाथ ने अपनी सरकार में मंत्री बना कर उन्‍हें आदिवासी राजनीति का प्रमुख चेहरा बना दिया था। 

मध्यप्रदेश में सत्ता के लिहाज से अनुसूचित जनजाति वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। वर्ष 2003 में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 41 सीटों में से कांग्रेस को दो सीटें ही मिलीं थीं। 2008 में सुधार हुआ और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 में से कांग्रेस को 17 सीटें मिल गईं। 2013 के विस चुनाव में आरक्षित सीटों पर कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा। अनुसूचित जनजाति वर्ग की सीटें घटकर 15 रह गईं। कांग्रेस ने 2018 के चुनाव की तैयारियों में इस वर्ग पर फोकस किया। जयस जैसे संगठनों को साथ लिया तो अनुसूचित जनजाति वर्ग की 47 में से 30 सीटें जीतने में कामयाब रही।

बीजेपी के तमाम बैठकों में यह तथ्‍य रेखांकित किया जाता है कि 2018 में इन सीटों पर प्रभावी जीत के कारण की कांग्रेस की सत्‍ता की राह आसान हुई थी। यही कारण है कि बीजेपी इन सीटों पर कब्‍जा पाने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा रही है। बीजेपी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के आतिथ्‍य में बड़े आयोजन कर अपने रणनीति का अहसास करवा दिया है। अब आदिवासी कांग्रेस के प्रदेश अध्‍यक्ष के रूप में मरकाम पर जिम्‍मा होगा कि वे अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित प्रदेश की 47 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का वर्चस्‍व कायम रखें। यूं भी झाबुआ से डिंडौरी तक युवा नेतृत्‍व पर भरोसा कर कांग्रेस ने नया आदिवासी नेतृत्‍व गढ़ने की कोशिश की है।