जी भाईसाहब जी: महाकौशल में कैबिनेट लोकसभा चुनाव की नेट प्रैक्टिस
MP Cabinet Meeting: विधानसभा चुनाव में 48 फीसदी वोट पा कर 163 सीट जीत चुकी बीजेपी नई रणनीति पर काम कर रही है। यह रणनीति अगले लोकसभा चुनाव को लेकर है। सवाल यह है कि वह कौन सा भय है जिसके कारण बीजेपी को यह रणनीति बनाने पर विवश होना पड़ा है।
मुख्यमंत्री मोहन यादव 3 जनवरी को जबलपुर में कैबिनेट बैठक रखी है। इसके पहले फरवरी 2019 में कांग्रेस सरकार के दौरान मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पहली बार जबलपुर में कैबिनेट बैठक की थी। अब मोहन यादव सरकार ने तय किया है कि जबलपुर के बाद मालवा, ग्वालियर-चंबल, विंध्य क्षेत्र में भी कैबिनेट बैठक होगी। संभागीय समीक्षा बैठकों के साथ ही यह क्षेत्रीय कैबिनेट बैठक वास्तव में लोकसभा चुनाव की नेट प्रैक्टिस है।
मंत्रियों को विभागों के वितरण के बाद मोहन सरकार की पहली बैठक जबलपुर में करने के भी राजनीतिक कारण हैं। महाकौशल क्षेत्र की जनता तो ठीक राजनेताओं को भी हमेशा शिकायत रही है कि सत्ता केंद्र उनकी हमेशा अनदेखी करता है। कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में महाकौशल के पिछड़ने को कांग्रेस ने मुद्दा बनाया था। 2020 में जब बीजेपी फिर सत्ता में लौटी तो मंत्रिमंडल में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलने से पूर्व मंत्री व कद्दावर नेता अजय विश्नोई नाराज हो गए थे। विश्नोई सहित कई बीजेपी नेताओं ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।
2023 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 48 फीसदी वोट जरूर पाए हैं। महाकौशल क्षेत्र में अंतर्गत आने वाली 38 विधानसभा सीट में से भाजपा ने 21 सीट तथा कांग्रेस ने 17 सीट पर जीत हासिल की है। लेकिन आकलन है कि ऐसी स्थिति में भी लोकसभा चुनाव में बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। जैसे, आदिवासी बाहुल्य मंडला जिले की तीन विधानसभा सीट में कांग्रेस ने दो तथा भाजपा ने एक सीट जीती है। बालाघाट की 6 विधानसभा सीट में से कांग्रेस ने चार सीटों पर जीत दर्ज की।
इस स्थिति को देखते हुए मुख्यमंत्री मोहन यादव ने संभागीय समीक्षा बैठकों का आयोजन शुरू किया है ताकि शिवराज सिंह चौहान के न होने की क्षतिपूर्ति हो तथा क्षेत्रीय नाराजगी से भी निपटा जा सके। इसी क्रम में कैबिनेट बैठक को भोपाल के बाहर करने का निर्णय लिया गया है। कैबिनेट बैठक को जबलपुर में करने पर पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री प्रह्लाद पटेल ही नहीं, कांग्रेस सांसद विवेक तन्खा भी प्रसन्नता जता चुके हैं। ये दोनों प्रतिक्रियाएं कैबिनेट बैठक के स्थल परिवर्तन के राजनीतिक महत्व को दर्शा रही हैं।
पीएम मोदी से बड़ा शिव ‘राज’ का काम
विधानसभा चुनाव परिणाम आए एक माह का समय हो गया है। नई सरकार तेज गति से अपना काम शुरू कर चुकी है लेकिन अब तक इस बात पर असमंजस खत्म नहीं हुआ है कि बीजेपी की इस बड़ी जीत का शिल्पकार कौन है? बीजेपी ने पीएम नरेंद्र मोदी का चेहरा आगे कर मोदी की गांरटी को चुनाव का नारा बनाया था तो अंतिम चरण में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना योजना चर्चा में आ गई थी।
बीजेपी की बड़ी जीत के बाद शिवराज सिंह चौहान को न केवल मुख्यमंत्री पद से हटाया गया बल्कि उन्हें अब तक कोई जिम्मेदारी भी नहीं दी गई है। बीजेपी ने प्रचारित किया कि उसकी बड़ी जीत का श्रेय पीएम मोदी को ही है। कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल जैसे प्रदेश के बड़े नेताओं ने बयान से यह स्थापित करने की कोशिश की कि केवल लाड़ली बहना योजना के कारण ही बीजेपी सत्ता में नहीं आई है। जबकि शिवराज के समर्थक लगातार लाड़ली बहना को जीत का श्रेय देते हुए शिवराज सिंह चौहान के साथ पार्टी के सलूक को नाजायज बता रहे हैं। न केवल समर्थक बल्कि गाहे बगाहे खुद शिवराज सिंह चौहान की यह पीड़ा व्यक्त हो रही है।
नव वर्ष पर जारी उनका वीडियो ऐसी ही पीड़ा की अभिव्यक्ति है। वे कह जरूर रहे हैं कि संतोष और आनंद से भरा हुआ हूं लेकिन उनकी भावभंगिमा में आंतरिक पीड़ा उजागर हो रही है। इस संदेश में वे एक बार फिर केंद्र को चुनौती देते नजर आ रहे हैं। इसमें शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि नव वर्ष का स्वागत, लेकिन 2023 मेरे लिए विशेष अर्थ रखता है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता, कर्मचारियों का परिश्रम, समविचारी संगठनों के प्रयास, लेकिन सरकार के काम। क्योंकि अगर राज्य सरकार के काम अच्छे नहीं होते तो जनता इतना विशाल बहुमत नहीं देती। अब तक के सबसे ज्यादा वोट बीजेपी को मिले। लाड़ली बहना योजना ने चमत्कार किया है। इस योजना को बनाकर मैं अपने जीवन को धन्य मानता हूं। मन संतोष व आनंद से भरा है।
दर्द यह नहीं है कि उन्हें मुख्यमंत्री पद हटाया गया बल्कि व्यथा यह भी है कि जीत का श्रेय भी उन्हें नहीं दिया गया। किसी तरह अपना वजूद बचाने की जुगत में लगे पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जनता से जुड़े रहने के लिए अपने निवास पर जनता दरबार शुरू कर दिया है। उधर, केंद्रीय नेतृत्व शिवराज सिंह चौहान को प्रदेश के बाहर भेजने की तैयारी कर चुका है जबकि शिवराज बार-बार कह रहे हैं कि मैं प्रदेश छोड़ कर नहीं जाऊंगा। शिवराज सिंह चौहान और उनके समर्थकों के लिए यह ‘राजनीतिक वनवास’ हजम नहीं हो रहा है।
नौ बार का विधायक अब सांसद के बराबर
एक तरफ शिवराज सिंह चौहान की पीड़ा है तो दूसरी तरफ सबसे ज्यादा 9 बार चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे बुंदलेखंड के जमीनी नेता गोपाल भार्गव की अपनी व्यथा है। जब उम्र का हवाला देकर उनके टिकट कटने की बात चली थी तब उन्होंने क्षेत्र में सक्रियता बढ़ा कर जवाब दिया था। विधानसभा चुनाव में तो उनकी बहू ने यह कह कर प्रचार किया था कि इसबार जनता विधायक नहीं मुख्यमंत्री चुनेगी। खुद गोपाल भार्गव ने भी ऐस ही संकेत दिया था।
जब सरकार बनी तो कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल जैसे वरिष्ठ नेता मंत्री बनाए गए हैं, नरेंद्र सिंह तोमर को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया है लेकिन गोपाल भार्गव को अनेदखा कर दिया गया। बीते दिनों जब वे अपने क्षेत्र में पहुंचे तो एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने अपना महत्व बताते हुए कहा कि औरों को प्रशासनिक अधिकारियों के सामने अपना परिचय देने की जरूरत पड़ती होगी, गोपाल भार्गव तो सिर्फ नाम ही काफी है। उन्होंने कहा कि नौ बार का विधायक तो मुख्यमंत्री के बराबर होता है।
इससे पहले मंत्रिमंडल के विस्तार के समय भी गोपाल भार्गव ने सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट की थी जिसे बाद में संपादित कर दिया गया। गोपाल भार्गव जैसे अविजित नेता के ये बयान वास्तव में उस पार्टी में हाशिए पर धकेल दिए जाने की पीड़ा है जिसे उन्होंने प्राणप्रण से सींचा है। नई पीढ़ी को आगे लाने के लिए वरिष्ठ नेताओं को नजरअंदाज करने का राजनीति का यह तरीका क्रूर है। हालांकि, इस पीड़ा से उबरने के लिए अब कहा जा रहा है कि जनाधार को देखते हुए गोपाल भार्गव को लोकसभा चुनाव लड़वाया जाएगा। यानी नौ बार के विधायक मुख्यमंत्री तो नहीं हुए सांसद हो सकते हैं।
हिट एंड रन कानून: ... तो जनता यूं परेशान न होती
हिट एंड रन मामले में सजा के नए प्रावधानों के विरोध में देश भर में हुई वाहन चालकों की हड़ताल ने सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। यह एकता की ताकत है मगर अब बीजेपी सरकार आरोप झेल रही है कि उसकी संवादहीनता के कारण जनता को इतनी परेशानी झेलनी पड़ी।
संसद में हाल में लाई गई भारतीय न्याय संहिता के तहत आपराधिक मामलों में सजा के नए प्रावधान किए गए हैं। इस कानून के तहत 'हिट एंड रन' केस में ड्राइवरों को दस साल की कैद और सात लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान किया गया है। अभी तक ट्रक या डंपर से कुचलकर किसी की मृत्यु पर लापरवाही से गाड़ी चलाने का आरोप लगता था और ड्राइवर को जमानत मिल जाती थी।
नए कानून के वजूद में आने के बाद ट्रक, टैक्सी और बस चालाकों का गुस्सा सड़कों पर दिखाई दिया। सभी राज्यों में हड़ताल का ऐसा असर दिखाई दिया कि सबकुछ ठप हो गया। नए कानून के बारे में संगठनों का कहना है कि कानून बगैर सोचे-समझे ट्रांसपोर्टरों की रजामंदी के बगैर लाया गया। जिन लोगों पर ये कानून लागू किया जाना है उनकी राय भी नहीं पूछी गई। संसद में भी इस पर बहस नहीं हुई।
आखिर हड़ताल के बाद सरकार झुकी और संगठनों से बात करने के बाद फिलहाल कानून लागू नहीं करने का फैसला किया। विपक्ष ने आरोप लगाया कि जो संवाद अब हुआ वह तीन दिन पहले भी हो सकता था। सरकार ने अपनी हठधर्मिता के कारण जनता को इतना परेशान किया। सांसद विवेक तन्खा ने इस बारे में एक्स पर पोस्ट किया कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी आपके रहते लोगों को इतना कष्ट क्यों पहुंचाया गया? हमें नहीं भूलना चाहिए की जनता ने हमे संसद कष्ट निवारण के लिए भेजा है।
इसतरह, राजनीतिक प्रयोगशाला में सरकार का दांव विफल हुआ। किसानों के बाद वाहन चालकों की एकता के आगे मोदी सरकार को झुकना पड़ा है। हालांकि, जनता ने परेशानी के रूप में बड़ी कीमत चुकाई है।