धर्म और मोक्ष के लिए ही करना चाहिए पुरुषार्थ

आज भी शास्त्र और धर्म को सरपंच मानकर, शास्त्र और धर्म का प्रसार करते हुए, उसी के आधार पर संगठन किया जाए तो दूर हो सकता है सम्पूर्ण अनर्थ

Updated: Sep 30, 2020, 07:41 AM IST

मनुष्य के चार पुरुषार्थ बताए गए हैं। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। जिसमें अर्थ और काम प्रारब्ध के अधीन तथा धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ के अधीन हैं। हमारे प्रारब्ध में जितना अर्थ है और जो सांसारिक भोग हमें प्राप्त होना है वह हमें मिल कर रहेगा। उसमें  न्यूनाधिक्य करने का सामर्थ्य किसी के अन्दर नहीं है। इसलिए अर्थ और काम को प्रारब्ध पर छोड़कर हमें धर्म और मोक्ष के लिए ही पुरुषार्थ करना चाहिए।

लेकिन उल्टा हो रहा है, सम्पूर्ण सावधानी और चतुरता अर्थ काम में ही प्रयुक्त हो रही है। बात वैसी ही है कि एक राजा के दो मंत्री थे। एक व्यापार में दक्ष, और दूसरा संग्राम में दक्ष था। परन्तु अनभिज्ञता वश राजा ने उनका विपरीत प्रयोग किया। व्यापार निपुण को संग्राम में, और संग्राम निपुण को व्यापार में लगा दिया।जिसके परिणाम स्वरूप व्यापार में हानि और संग्राम में पराजय हुई। हमारे पूज्य गुरुदेव भगवान कहते हैं कि

अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्त्यमूलमनौषधम्।

अयोग्य: पुरुषो नास्ति, प्रयोक्ता तत्र दुर्लभ:।।

अर्थात् कोई ऐसा अक्षर नहीं है जो मंत्र न हो, पृथ्वी पर किसी भी वृक्ष की ऐसी जड़ नहीं है जो औषधि न हो अर्थात् सभी वृक्षों की जड़ औषधि है सारे अक्षर मंत्र हैं, और अयोग्य: पुरुषो नास्ति संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके अंदर कोई न कोई गुण न हो,सबके अंदर कोई न कोई योग्यता होती ही है परन्तु उपयोग करने वाला होना चाहिए। प्रयोक्ता तत्र दुर्लभ।

इसी प्रकार अर्थ-काम-सम्पादन में चतुर प्रारब्ध को धर्म, मोक्ष में लगा दिया, और धर्म, मोक्ष सम्पादन में चतुर पुरुषार्थ को अर्थ, काम में नियुक्त कर दिया। इसलिए दोनों के विषय में गड़बड़ी हो रही है। वस्तु और अवसर का दुरुपयोग होने से हानियों का ठिकाना नहीं रहता।

ज्ञान, विज्ञान, धर्म और ईश्वर बड़ी उत्तम चीज़ है, परन्तु इन्हीं का दुरुपयोग होने से अनर्थ हो सकता है। ईश्वर और धर्म के सहारे सामाजिक, लौकिक विचारणीय स्थिति की उपेक्षा बुरी है। समाज-राष्ट्र के हित का प्रश्न आने पर वैराग्य और विश्व मिथ्यात्व भावना का प्राधान्य खतरनाक है। जबकि भोजन-पानादि से वैसा उत्कट वैराग्य नहीं है। विशेषतः गृहस्थों और युवकों का कार्यकाल में वैराग्य और असमर्थों का कार्य में राग होना हानिकारक है।

आज भी शास्त्र और धर्म को सरपंच मानकर, शास्त्र और धर्म का प्रसार करते हुए, उसी के आधार पर संगठन किया जाए तो सम्पूर्ण अनर्थ दूर हो सकता है। परन्तु शास्त्र जानने वाले और धर्म में प्रेम रखने वाले इस ओर से अत्यंत अपरिचित और विमुख हो रहे हैं।

शास्त्र और धर्म से अपरिचित ही उच्छृंखल मार्ग से संघटन और विश्व की समस्या हल करना चाहते हैं। दूसरे के गुणों को न देखकर दोषों का ही दर्शन करते हैं और अपने दोषों का बिल्कुल चिंतन न करके गुण ही देखना चाहते हैं। शास्त्रज्ञ धार्मिक जन शास्त्रोक्त-मार्ग के अनुसार चलकर राष्ट्र या संसार का पथ प्रदर्शन नहीं करना चाहते। शास्त्र और धर्म के रहस्य और महत्व को न समझने वाले लोग धर्मों और शास्त्रों में आमूलचूल परिवर्तन चाहते हैं।

यदि आस्तिक अपनी माता बहनों को सीता, सावित्री बनाने का प्रयत्न नहीं करते, तो दूसरे लोग विलायती लेडी बनाने में सफल हो ही जाएंगे। इसलिए समय रहते ही हमें सावधान हो जाना चाहिए। प्रारब्ध और पुरुषार्थ के बलाबल को भली-भांति समझ कर अपने जीवन को सही दिशा में ले जाना चाहिए।