भारत में चिंता का विषय बना प्रीमैच्योर बर्थ, समय से पहले हो रहा सालाना 30 लाख बच्चों का जन्म

हर साल दुनिया में 1.5 करोड़ बच्चे समय से पहले जन्म लेते हैं, जिनमें से सबसे ज्यादा लगभग 30 लाख भारत में होते हैं। प्रीमैच्योरिटी का मुख्य कारण वायु प्रदूषण, तनाव, संक्रमण और मातृ स्वास्थ्य है। आधुनिक NICU तकनीकों और कंगारू मदर केयर से ऐसे बच्चों की जीवित रहने की दर बढ़ी है।

Updated: Nov 17, 2025, 06:19 PM IST

Photo Courtesy: AI Generated
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दुनियाभर में हर साल लगभग 1.5 करोड़ बच्चों का जन्म समय से पहले हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रीमैच्योरिटी को नवजात मौतों की सबसे बड़ी वैश्विक स्वास्थ्य समस्याओं में गिना है। बॉर्न टू सून: द ग्लोबल एक्शन की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में हर 10 में से 1 बच्चे का जन्म 37 हफ्ते पूरे होने से पहले हो जाता है। इसी वजह से हर साल 17 नवंबर को वर्ल्ड प्रीमैच्योरिटी डे मनाया जाता है ताकि इसके प्रति जागरूकता बढ़ाई जा सके।

भारत इस चुनौती में सबसे आगे है। साल 2020 के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया में सबसे अधिक लगभग 30 लाख प्रीमैच्योर बच्चों का जन्म भारत में हुआ है। जो कि कुल वैश्विक आंकड़ों का एक बड़ा हिस्सा है। अध्ययनों में पाया गया कि गर्भावस्था के दौरान संक्रमण, उच्च रक्तचाप, गर्भकालीन डायबिटीज, वायु प्रदूषण और माताओं के पोषण स्तर का निम्न होना समय से पहले जन्म के मुख्य जोखिम कारण हैं।

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साल 2019 में द लैंसेट में प्रकाशित एक वैश्विक रिपोर्ट ने खुलासा किया कि अकेले वायु प्रदूषण दुनिया में लगभग 30 लाख प्रीमैच्योर डिलीवरी से जुड़ा है। वहीं, अन्य शोधों में यह भी सामने आया कि जिन महिलाओं पर लगातार तनाव बना रहता है उनमें समय से पहले प्रसव का खतरा लगभग 40% तक बढ़ जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि प्रीमैच्योर जन्म केवल उस क्षण का संकट नहीं होता बल्कि यह बच्चों के भविष्य के स्वास्थ्य पर भी भारी असर डालता है। लंबी अवधि के अध्ययन बताते हैं कि ऐसे बच्चों को फेफड़ों की बीमारी, सीखने में कठिनाई, दृष्टि संबंधी समस्याएं और भावनात्मक चुनौतियों का खतरा सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होता है।

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हालांकि, आधुनिक चिकित्सा तकनीक ने प्रीमैच्योर बच्चों की जीवित रहने की संभावना को काफी बढ़ाया है। NICU की उन्नत सुविधाओं ने दुनिया भर में नवजात मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी की है। 2022 में यूरोप में हुए अध्ययन के अनुसार, रेस्पिरेटरी सपोर्ट, माइक्रोसेंसर और AI-आधारित मॉनिटरिंग जैसी तकनीकों ने 28–32 हफ्तों में जन्मे बच्चों की जीवित रहने की दर 20–25% तक बढ़ा दी है।

भविष्य की तकनीकें भी प्रीमैच्योर बच्चों की जीवित रहने की उम्मीद जगा रही है। कोलंबिया और भारत में हुई संयुक्त रिसर्च ने साबित किया कि कंगारू मदर केयर यानी मां का स्किन-टू-स्किन संपर्क प्रीमैच्योर बच्चों में तापमान नियंत्रण बेहतर करता है, संक्रमण कम करता है और मृत्यु का जोखिम 40% तक घटा देता है। इसे दुनिया की सबसे सस्ती और सबसे प्रभावी नवजात देखभाल तकनीकों में गिना जाता है।

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दूसरी ओर अमेरिका के CHOP Fetal Research Center ने आर्टिफिशियल वूम्ब पर शुरुआती सफल परीक्षण किए हैं जिसमें 23–24 हफ्ते के भ्रूण को विशेष तरल वातावरण में सुरक्षित रखा गया। हालांकि, यह तकनीक अभी प्रयोगशाला स्तर पर ही है लेकिन इसे नवजात चिकित्सा में संभावित क्रांति के रूप में देखा जा रहा है। जिसकी वजह से भविष्य में अत्यधिक प्रीमैच्योर बच्चों की जान बचाने की क्षमता बढ़ सकती है।

विशेषज्ञों का मानना है कि प्रीमैच्योरिटी से जुड़ी चुनौतियों को कम करने के लिए चार बातें सबसे अधिक जरूरी हैं। गर्भवती महिलाओं की सही देखभाल, बेहतर मातृ स्वास्थ्य, आधुनिक चिकित्सा तकनीकों की उपलब्धता और समाज में जागरूकता, ये चारों कारक मिलकर लाखों प्रीमैच्योर बच्चों का जीवन बचा सकते हैं और उन्हें स्वस्थ भविष्य दे सकते हैं। वर्ल्ड प्रीमैच्योरिटी डे इसी समझ को दुनिया के सामने लाने का माध्यम है।

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