दफ्तर दरबारी: सिस्टम तो सही है, चीतों को ही रास नहीं आ रहा जीना
Cheetah in Kuno National Park: साल 2022 में 17 सितंबर को पीएम नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर जश्न के साथ चीतों को अफ़्रीका से लाया गया मगर वे एक एक करके मर रहे हैं। उनकी मौत का दोषी वो ख़ुद हैं क्योंकि सिस्टम तो यही कहता है कि उन्हें जीना चाहिए था, वे मर क्यों रहे हैं.. शायद गर्मी लगी होगी

हम तो जश्न के साथ लाए थे, चीतों को जीना ही नहीं आया !
एमपी के कूनो नेशनल पार्क में बड़ी उम्मीदों से लाए गए चीते मर रह हैं। उनका असमय मरना पूरे देश में मुद्दा बना हुआ है। चीतों को कूनों में बसाने वाली राजनीति के अपने एजेंडे हैं लेकिन चीतों की मौत पर अफसरों के तर्क भी कम दिलचस्प नहीं हैं। वे कहते हैं चीतों को जीना चाहिए था, शायद गर्मी रास नहीं आ रही.. शायद वे खुद ही जीना नहीं चाहते।
आपको याद दिला दूं कि मध्यप्रदेश के कूनो नेशनल पार्क को गुजरात के शेरों के लिए तैयार किया गया था। गुजरात के गिर में शेर की संख्या बढ़ गई तो वन्य प्राणी विशेषज्ञों ने सलाह दी थी कि एक ही जगह शेरों को रखना ठीक नहीं है। कोई महामारी या दुर्घटना घट गई तो सिंह की प्रजाति पर अस्तित्व का संकट होगा, इसके लिए कूनो मुफीद पाया गया। सब कुछ ठीक था मगर 2007 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंह को गुजरात की अस्मिता का मसला बताते हुए एमपी को देने से इंकार कर दिया। तब से बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद भी शेर नहीं लाए जा सके।
शेर न लाने तथा कूनो से गांवों के विस्थापन और करोड़ों खर्च होने का मामला गर्माया तो तय किया गया कि कूनो में नामीबिया और अफ्रीका से चीते लाए जाएंगे। 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर चीतों को फिर देश की धरती पर बसाया गया मगर प्लानिंग की कमी देखिए कि 56 दिन में यहां 6 चीतों की मौत हो चुकी है।
अब कहा जा रहा है कि कूनो चीतो के लिए छोटा है। इन्हें राजस्थान शिफ्ट करने की तैयारी भी चल रही है। चीतों की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फटकारा तो केंद्र सरकार ने चीता एक्शन प्लान को रिव्यू करने के लिए स्टीयरिंग कमेटी भी बना दी है। लेकिन खबरें है कि नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी और मध्यप्रदेश सरकार के बीच प्रोजेक्ट चीता पर शुरू से ही सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। सितंबर 2022 में जब नामीबिया से चीते कूनो पहुंचे, तो केंद्र सरकार ने चीता प्रोजेक्ट के लिए टास्क फोर्स बनाई। मध्यप्रदेश सरकार के पीसीसीएफ वाइल्ड लाइफ चौहान ने इस पर सवाल उठा दिए थे। चौहान ने एनटीसीए को लिखे पत्र में कहा था कि जिस टास्क फोर्स का प्रमुख ही तय नहीं है, वह क्या काम करेगी?
अब चीतों की मौत के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी आपात बैठक बुलाई और एक कमेटी बना दी है। चीतों की मौत के साथ यह सवाल एक बार फिर उठा है कि क्या एमपी की जलवायु और भौगोलिक स्थिति चीतों के रहने लायक है? वन्य प्राणी विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कूनो नेशनल पार्क गिर के शेरों के लिए तैयार हुआ था, वहां चीते नहीं रह सकते।
दो शावकों की मौत के बाद कहा गया कि गर्मी बहुत ज्यादा थी। बच्चे अपनी मां के साथ घूमते घूमते डिहाइड्रेट हो गए। 23 मार्च को चीता साशा की मौत के समय भी कहा गया था कि वह पहले से बीमार थी। 23 अप्रैल को हुई चीता उदय की मौत का कारण भी उसका खराब स्वास्थ्य बताया गया।
अब यह पहली बार तो नहीं है कि कूनो का तापमान ज्यादा हुआ है। वन्य प्राणी विशेषज्ञ अपनी बात कहते रहे, मगर सरकार अपने एजेंडे पर चलती रही। सवाल उठ रहे हैं तो सभी जिम्मेदार घेरे में आएंगे। अब जब चीते मर रहे हैं तो इसकी जिम्मेदारी से मुंह क्यों मोड़ा जा रहा है?
जश्न के सब साथी, दोष किसी का भी नहीं। हर कोई अपने आप को तथा अपने निर्णय को सही बता रहा है। इससे तो यही कहा जा सकता है कि सिस्टम तो बिल्कुल सही है, बस गलती चीते की है कि वह यहां जी नहीं पा रहा है।
ईमान ही अवैध है, बाकी सब वैध है
सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को संबोधित एक चिट्ठी वायरल हो रही है। इस भावुक पत्र में हरेकृष्ण उपाध्याय नामक व्यक्ति लिखते हैं कि मैंने जीवन भर की कमाई लगा कर भोपाल के सरकार वल्लभ भाई पटेल योजना में 3 हजार वर्ग फीट की कीमत से प्लाट खरीदा। जबकि कुछ परिचितों ने अवैध कॉलोनी में 1000-1200 रुपए वर्गफीट में प्लाट खरीदा था। अब दोनों कर सम्पत्ति समान हैसियत की हो गई है, वैध-अवैध कुछ बचा नहीं है। इसे ईमानदार लोगों के साथ धोखा बताते हुए पत्र में लिखा गया है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए अवैध कॉलोनी को वैध किया जा रहा है। इस नीति से ईमानदार लोग खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं।
असल में सीएम शिवराज सिंह चौहान ने प्रशासन द्वारा अवैध घोषित की गई कालोनियों को वैध मान लिया है। उनके इस ऐलान के साथ ही प्रदेश की हजारों अवैध कालोनियां वैध हो जाएंगी। इस निर्णय वे लोग खुश हैं जिन्होंने सरकारी नियमों की अवहेलना कर बिना इजाजत कॉलोनियां बनाई, बिना छानबीन किए जमीनें खरीदी। अवैध कॉलोनियां काटने वाले बिल्डर, इनके प्रति अंधे बने रहे अफसर, दलाल, इन सबके आश्रयदाता नेता खुश हैं।
लेकिन ईमान वाले लोग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। वे अफसर भी जिन्होंने अवैध निर्माण और इसे प्रश्रय देने वाले सिस्टम पर सख्ती की थी। जब यब अवैध ही एक दिन वैध होना है तो शहरों के नियोजन की, टाउन कंट्री प्लानिंग विभाग की, शहरों, गांव-कस्बों के मास्टर प्लान और बिल्डरों के काम की निगरानी करने वाले रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथारिटी (रेरा) की क्या जरूरत है?
परेशान तो वह व्यक्ति हो रहा है जिसने ईमान से अपना काम किया और जो अवैध काम कर गया वह सीना फुलाए घूम रहा है।
यहां सज्जनता नहीं, सख्ती ही चलेगी कलेक्टर साहब
इंदौर ने लगातार छठी बार देश में सबसे स्वच्छ शहर का खिताब जीता है। इस बार स्वच्छता सर्वेक्षण शुरू होने ही वाला है। उम्मीदें लगी हैं कि सातवीं बार इंदौर यह कमाल करके दिखाएगे। सिस्टम पर थोड़ा दबाव भी है क्योंकि नगर निगम आयुक्त और कलेक्टर दोनों ही नए है। कलेक्टर इलैयाराजा तो अपने स्वभाव और संवेदनशीलता के कारण चर्चित हो चुके हैं। सज्जन कलेक्टर को पिछले दिनों मशवरा दिया गया कि कुछ मामलों में सज्जनता से काम नहीं बनने वाला है। लोगों की आदत ऐसे है कि सख्त हटी कि सावधानी भी हटी।
कलेक्टर को यह सलाह एक कार्यक्रम में उनके वक्तव्य के बाद दी गई है। प्रदूषण नियंत्रण मंडल के इस कार्यक्रम में कलेक्टर इलैयाराजा टी. ने कहा कि इंदौर की सड़कों पर प्लास्टिक उड़ते देखता हूं तो दिल धड़कता है, क्योंकि हमें सातवीं बार स्वच्छता में नंबर वन आना है। ऐसा दृश्य नजर नहीं आना चाहिए।
उनके इस भाषण पर सभी ने गौर किया। कलेक्टर इलैयाराजा टी. अपने सौम्य व्यहार के कारण चर्चा में हैं और यही वजह है कि याद दिलाया जा रहा है कि स्वच्छता की आदत डालने के लिए इंदौर के पूर्व अफसरों ने कितनी मेहनत और सख्ती से काम किया है। सलाह देने वाले बता रहे हैं कि कुछ मामलों में सज्जनता भली है। इस मामले में सज्जनता नहीं चलेगी। डंडा चलेगा तो ही नंबर वन का ताज बचेगा।
मनचाहे दरबार की जुगाड़ में अफसर
'दामिनी' फिल्म का प्रख्यात डायलॉग है, 'तारीख पर तारीख मिलती है लेकिन न्याय नहीं मिलता है'। ऐसा ही कुछ मध्य प्रदेश में हो रहा है। तारीख के इंतजार में अफसरों की बेचैनी बढ़ती जा रही है। इस तारीख का इंतजार तो विधायक भी कर रहे हैं मगर अफसरों का दिल ज्यादा धड़क रहा है। वे जानते हैं, तारीख नहीं आई तो विधायकों का काम तो चल जाएगा, अफसरों का जो नुकसान होगा उसकी भरपाई नहीं हो पाएगी।
अफसरों को जिस तारीख का इंतजार है वह है तबादलों से प्रतिबंध हटने की तारीख। चुनाव के पहले अपने पसंदीदा अफसर-कर्मचारी मनचाही जगह पर फिट करवाने के लिए मंत्री और विधायक सरकार पर दबाव बना चुके हैं कि तबादलों से बैन हटना चाहिए और देना चाहिए। अफसर और कर्मचारी भी चाहते हैं कि तीन साल से एक ही जगह पर होने के नियम के कारण चुनाव आयोग उन्हें यहां-वहां पदस्थ करे इसके पहले वे पसंदीदा पोस्ट और स्थान पर चले जाएं।
इस दबाव को देखते हुए अप्रैल अंत में हुई कैबिनेट में तय हुआ है कि मई में 15 दिनों के लिए बैन हटाया जाएगा। लेकिन मई गुजर रहा है और तबादलों से प्रतिबंध हटाया नहीं गया है। विधायकों और अफसरों की बेचैनी बढ़ती जा रही है। मनचाहे पद और स्थान की जुगाड़ कर रहे अफसर परेशान है कि मानसून आने वाला है, फिर स्कूल का सत्र शुरू हो जाएगा। ऐसे समय में जल्द तबादलों से प्रतिबंध नहीं हटा तो उन्हें नई सरकार बनने तक इंतजार करना पड़ेगा।