Nehru death anniversary: जानिए जवाहरलाल नेहरू ने अपनी वसीयत में क्या लिखा

मेरे भस्म को भारत के खेतों में बिखेर देना.. जहां किसान मेहनत करते हैं। ताकि वह देश की मिट्टी में मिल जाए और उसी का अंग बन जाए

Publish: May 27, 2020, 09:37 PM IST

मुझे भारत के लोगों ने इतना प्रेम और इतनी मोहब्बत दिया है कि मैं चाहे जो करूं, इसके एक छोटे से हिस्से को भी मैं लौटा नहीं सकता। सच तो यह है कि यह प्रेम इतना बहुमूल्य है कि इसके बदले कुछ भी देना मुमकिन नहीं। बहुत से ऐसे लोग हुए जिन्हें अच्छा माना गया। कुछ को आदर मिला और पूजा गया लेकिन भारत के सभी वर्गों के लोगों ने मुझे इतना प्यार किया कि मैं इससे अभिभूत हो गया। मैं सिर्फ आशा करता हूं कि मैं अपने जीवन के बाकी बरसों में अपने देशवासियों की सेवा करता रहूंगा और उनके प्रेम के योग्य साबित हो पाउंगा।

मेरी इच्छा है कि जब मैं मर जाऊं तो मेरा दाह-संस्कार कर दिया जाए। अगर मैं विदेश में मरूं तो मेरे शरीर को वहीं जला दिया जाए और मेरी अस्थियां इलाहाबाद भेज दी जाएं। उनमें से मुट्ठी भर गंगा में डाल दी जाएं और उनके बड़े हिस्से के साथ क्या किया जाए, यह मैं आगे बता रहा हूं। उनका कुछ भी हिस्सा किसी हालत में बचाकर न रखा जाए।

गंगा में अस्थियों का कुछ हिस्सा डलवाने के पीछे जहां तक मेरा ताल्लुक है, यह कोई धार्मिक खयाल नहीं है। इसके बारे में मेरी कोई धार्मिक भावना नहीं है। मुझे बचपन से गंगा और यमुना से लगाव रहा है और जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ यह लगाव बढ़ता रहा। मैंने मौसमों के बदलने के साथ इनमें बदलते हुए रंग और रूप को देखा है। कई बार मुझे याद याद आई इतिहास की उन परंपराओं की, पौराणिक गाथाओं की, उन गीतों और कहानियों की, जो कि कई युगों से उनके साथ जुड़ गई और उनके बहते हुए पानी का हिस्सा बन गईं।

गंगा तो विशेषकर भारत की पवित्र नदी है। जिससे लिपटी हुई हैं भारत की जातीय स्मृतियां, उसकी आशाएं और उसके भय, उसके विजयगान, उसकी विजय और पराजय। गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता की प्रतीक रही है, निशानी रही है, सदा बदलती, फिर वही गंगा की गंगा। वह मुझे याद दिलाती है हिमालय की बर्फ से ढंकी चोटियों और गहरी घाटियों की, जिन्हें मैंने बहुत प्रेम किया है। गंगा मुझे याद दिलाती है उन विशाल और उपजाऊ मैदानों की, जहां काम करते-करते मैंने जिंदगी गुजरी है। मैंने सुबह की रोशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है और देखा है शाम के साये में उदास, रहस्य से भरी काली चादर ओढ़े हुए.. जाड़ों में सिमटी सी आहिस्ते-आहिस्ते बहती सुंदर धारा, और बरसात में दौड़ती हुई, समुद्र की तरह चौड़ा सीना लिए और उसी की तरह प्रचंड शक्ति लिए हुए। यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की.. यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर।

भले ही मैंने पुरानी परंपराओं, रीति-रिवाजों और रस्मों को छोड़ दिया हो और मैं चाहता भी हूं कि हिंदुस्तान इन सब जंजीरों को तोड़ दे। जिनमें वह जकड़ा है और जो उसको आगे बढ़ने से रोकती है और लोगों में फूट डालती है। जो बेशुमार लोगों को दबाए रखती है और जो शरीर और आत्मा के विकास को रोकती है। यह सब मैं चाहता हूं। फिर भी मैं यह नहीं चाहता कि मैं खुद को इन पुरानी बातों से बिलकुल अलग कर लूं।

मुझे गर्व है इस शानदार उत्तराधिकार का.. इस विरासत का, जो हमारी रही है और हमारी है। और मुझे यह भी अच्छी तरह से मालूम है कि मैं भी, हम सबों की तरह, इस जंजीर की एक कड़ी हूं। जोकि कभी नहीं और कहीं नहीं टूटी है और जिसका सिलसिला हिंदुस्तान के अतीत के इतिहास के प्रारंभ से चला आता है। यह सिलसिला मैं कभी नहीं तोड़ सकता। क्योंकि मैं उसकी बेहद कद्र करता हूं और इससे मुझे प्रेरणा, हिम्मत और हौसला मिलता है। मेरी इस आकांक्षा की पुष्टि के लिए और भारत की संस्कृति को श्रद्धांजलि भेंट करने के लिए मैं यह दरख्वास्त करता हूं कि मेरी भस्म की एक मुट्ठी इलाहाबाद के पास गंगा में डाल दी जाए। जिससे कि वह उस महासागर में पहुंचे जो हिंदुस्तान को घेरे हुए है। मेरे भस्म के बाकी हिस्से का क्या किया जाए? मैं चाहता हूं कि इसे हवाई जहाज में ऊंचाई पर ले जाकर बिखेर दिया जाए, उन खेतों पर, जहां भारत के किसान मेहनत करते हैं, ताकि वह भारत की मिट्टी में मिल जाए और उसी का अंग बन जाए।