साबरमती आश्रम: पर्यटन नहीं तीर्थाटन स्थल है

जलियावालां बाग, साबरमती आश्रम जैसे तमाम स्थल भारतीय आजादी, सभ्यता, संस्कृति, आपसी भाईचारे और विश्वास के प्रतीक हैं, ये कोई पर्यटन स्थल नहीं हैं

Updated: Oct 16, 2021, 02:53 AM IST

Photo courtesy: Indian express
Photo courtesy: Indian express

‘‘मैं तो कहता-कहता चला जाऊंगा, लेकिन किसी दिन मैं याद आऊंगा कि एक मिस्कीन (दीन-हीन, दरिद्र) आदमी जो कहता था, वही ठीक था।’’

गांधी - 16 अक्टूबर - 1947

एक संघर्ष शुरु हुआ है, ‘‘साबरमती आश्रम’’ की पवित्रता, आध्यात्मिकता, और समसामयिकता को बरकरार रखने का। साबरमती आश्रम मूलतः सत्याग्रह आश्रम है। सत्याग्रह आश्रम सिर्फ नाम ही नहीं है, बल्कि गांधी का कर्म ही सत्याग्रह है, अतएव यह आश्रम गांधी की आत्मा का प्रतीक है। आज इस आश्रम को एक विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल बनाने का बेहद अचरज भरा प्रपंच चल रहा है। इसके पहले इस कथित सौंदर्यीकरण का शिकार जलियावालां बाग हो चुका है। जिस शहीद स्थल पर घुसते ही आँखों में आँसू आ जाते हैं। वहां जाने पर सब कुछ धुंधला ही दिखता रहा है, क्योंकि अंदर घुसने का वह गलियारा, जलियांवाला बाग, वह कुंआ जिसमें सैकड़ों लोग जान बचाने के लिए कूद गए थे, बाग की ऊँची दीवारें जिन पर गोलियों के निशान आज भी अंदर तक दहला देते हैं, क्या उसके सामने मुस्कराते, या खीसें निपोरते सेल्फी खींची जा सकती है ? परंतु आज वहां यही हो रहा है। अब यही सब साबरमती आश्रम में भी किए जाने की कोशिश की जा रही है।

गौरतलब है साबरमती सत्याग्रह आश्रम की यथास्थिति बनाए रखने के लिए सर्व सेवा संघ के नेतृत्व में भारत में गांधी के अंतिम निवास सेवाग्राम से भारत में उनके पहले निवास साबरमती आश्रम तक एक कमोवेश घर वापसी जैसी यात्रा का आयोजन किया गया है। यहां इस बात को भी समझ लेना होगा कि न तो जलियावालां बाग महज एक बगीचा या भवन है और न ही साबरमती आश्रम तमाम भवनों का एक समुच्चय। ये दोनों और इस जैसे तमाम स्थल भारतीय आजादी, सभ्यता, संस्कृति, आपसी भाईचारे और विश्वास के प्रतीक हैं। ये कोई पर्यटन स्थल नहीं हैं। महात्मा गांधी ने भारत लौटने के बाद देश में 2000 से भी ज्यादा स्थानों की यात्रा की। पूरा भारत उनके लिए एक तीर्थ ही तो था। वे तीर्थाटन करते थे। पर्यटन नहीं। परंतु यह देश और उससे भी ज्यादा यहां की सरकार पर्यटन व तीर्थाटन का अंतर भूल गई है। उनके लिए दोनों में अंतर ही नहीं बचा। पंरतु हमें यह समझना पड़ेगा। समझाना भी पड़ेगा।

थोड़ी बात साबरमती आश्रम पर करते हैं। गांधी जी ने अपने बारे में एक बेहद मजेदार बात कही है। वे कहते हैं, ‘‘उन्हें कभी दबे पांव याद न करें।’’ सन् 1915 में बंबई पहुंचने के कुछ ही दिन बाद वे अपने जन्मस्थान पोरबंदर पहुंचे। उनके स्वागत समारोह में 5000 से ज्यादा लोग मौजूद थे। गांधी जी एक पुराना शाल पहने थे। उसकी मूल कीमती करीब दो रुपये रही होगी। कट-फट जाने की वजह से उसका वास्तविक मूल्य दो आने से ज्यादा नहीं रह गया था। परंतु उन्होंने उसे नीलाम करने को कहा। नीलामी में उसके सौ रु. मिले। जिसे गांधी जी ने दान कर दिया और अगले ही दिन अहमदाबाद रवाना हो गए। उन्होंने अहमदाबाद के लोगों से उन्हें अपने शहर में बसा लेने को कहा। साथ ही वे गोपालकृष्ण गोरवले से बोले कि वे गुजरात में बसना चाहते हैं और वहां फीनिक्स जैस एक आश्रम स्थापित करना चाहते है।

मई, 1915 के तीसरे सप्ताह में वे अहमदाबाद में थे। यहां बसने की एकवजह यह भी थी कि उन्हें विश्वास था कि स्थानीय हिंदू व जैन व्यापारी उनकी मदद करेंगे। दूसरी वजह यह थी कि उनकी अपनी मातृभाषा गुजराती थी। साथ ही यह शहर यूं तो सीधे ब्रिटिश शासन के आधीन आता था लेकिन यहां ब्रिटिश संस्कृति का बहुत प्रभाव नहीं था। इस सबके अलावा एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि शहर में बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी थी और वे यहां बहुलतावाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का परीक्षण भी कर सकते थे। तब इस शहर की आबादी करीब 2,15,000 थी। आश्रम के वार्षिक खर्चा का हिसाब लगाया गया जो कि करीब 6000 रु. प्रतिवर्ष बैठ रहा था। बहरहाल शुरुआत में कोचराब में जीवनलाल देसाई के बंगले में किराये से आश्रम 20 जुलाई 1915 को प्रारंभ हो गया।

और पढ़ें: गांधी की अहिंसक सत्याग्रही पुलिस बनाम क्रूरता के नए मानदंड बनाती वर्तमान पुलिस

आश्रम की शुरुआत निर्बाध नहीं थी। इसे 23 सितंबर 1915 को उनके द्वारा श्री निवास शास्त्री को लिखे पत्र से जिसमें आश्रम में अछूत परिवार के प्रवेश से मचे घमासान का वर्णन है, से समझा जा सकता है। गांधी ने लिखा, ‘‘आश्रम में काफी सनसनी है। वैसे हड़बड़ाहट अहमदाबाद शहर में भी है। मैंने श्रीमती गांधी (कस्तूरबा) से कह दिया है कि वे मुझे छोड़ सकतीं हैं और हम एक अच्छे मित्र की तरह अलग हो सकते हैं। मेरा यह कदम (अछूतों का आश्रम प्रवेश) महत्वपूर्ण है क्योंकि यह मुझे दबे कुचले वर्ग के उत्थान के मेरे मिशन से जोड़ता है और मेरे पास ज्यादा समय नहीं है जबकि मैं ढेढ घरो में जाने के बारे में सोचूं और अपना जीवन उनके साथ बाटूं।’’ यह गांधी का भारत में सबसे शुरुआत संघर्ष है। जिसमें वे अपना पारिवारिक जीवन भी दांव पर लगाने को तैयार है।

परंतु बात यहीं पर नहीं थमी। इस घटना के मद्देनजर उनके मुख्य दानदाता मंगल दास गिरधर दास ने हाथ खींच लिए। यह सबकुछ पहले तीन महीनों में ही घट रहा था। इसी बीच शेठ आए। बापू ने इन्हें शेठ ही बताया है। कोई नाम नहीं दिया। शायद यह अंबाराम साराभाई थे। उन्होंने गांधी का साथ दिया। मजेदार बात यह है कि उन्होंने अभी तक आश्रम देखा भी नहीं था। पहले दिन आए बाहर से देख कर चले गए। दूसरे दिन आए। कार का हार्न बजाया। एक बच्चा बाहर आया। उन्होंने दो साल के खर्चे के लिए 13000 रु. का लिफाफा बाहर आए बच्चे के हाथ में दिया और बिना भीतर आए रवाना हो गए। बात बन गई। गाड़ी चलने लगी।

और पढ़ें: कुशीनगर को बुद्ध ने महाप्रयाण के लिए चुना था

सन् 1916 में विनोबा आए, जमनालाल बजाज आ गए और महादेव देसाई भी मिल गए। चंपारण से राजकुमार भी आ गए और गांधीजी पहले प्रमुख सत्याग्रह के लिए चंपारण रवाना हो गए। सन् 1917 में कोचरब का आश्रम छोटा पड़ने लगा। तब पंजा भाई हीराचंद ने साबरमती नदी से लगा यह भूखण्ड सत्याग्रह/ साबरमती आश्रम को दिया। यह स्थान जेल के पास में था। जेल से इसकी नजदीकी ने भी गांधीजी को इस स्थान के प्रति लुभाया | वे लिखते हैं, “सत्याग्रहियों के लिए जेल जाना एक साधारण सी व रोजमर्रा की बात है, अतएव यह स्थान मुझे अच्छा लगा।’’ इस भूखंड के एक ओर जेल थी और दूसरी ओर श्मशान था। गांधी कहते हैं कि यह भी एक ऐसा स्थान हैं जहां अंततः प्रत्येक सत्याग्रही को जाना ही है। तो कैद और मोक्ष् के बीच यह आश्रम जीवन में जो कुछ भी सर्वोत्तम हो सकता है, की प्रयोगशाला बन गया। यहीं से उन्होंने सन् 1919 में रोलर एक्ट के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत भी की थी।

साबरमती आश्रम और गांधी जी दोनों की राह आसान नहीं थी। 1922 में असहयोग आंदोलन में हिंसा हुई। चौरी-चौरा में लोग मारे गए। गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया। वैसे इसके पहले में बारडोली में असहयोग आंदोलन की शुरुआत के लिए जाते समय आश्रमवासियों से कह गए थे कि ‘‘मैं यहां एक हफ्ते में, संभवतः एक महीने में या एक साल में वापस लौट सकता हूँ और संभव है, मैं यहां कभी न लौटूं।’’ परंतु चौरा-चौरी की हिंसा के बाद बारडोली सत्याग्रह भी स्थगित कर दिया। वे वापस आश्रम आए। सात दिन का उपवास किया। गिरफ्तार हुए। रिहा हुए और पुनः जुट गए। इस बार उन्होंने अगले आंदोलन की तैयारी में पूरे छः वर्ष लगाए। चौरी-चौरा की घटना का पुनरावर्तीन होने देने की ठाल ली थी उन्होंने साबरमती आश्रम दुनिया के अब तक के सबसे महानतम प्रयोग, अहिंसा के द्वारा एक आतातायी देश से अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने में जुट गया। छः वर्ष कोई छोटा समय हीं होता है, आजादी के लिए विचलित हो रहे राष्ट्र को प्रतीक्षा कराए रखने के लिए।

लुई फिशर लिखते हैं, ‘‘गांधी जी लड़ाई में बहुत धीरे-धीरे उतरते थे। अधिकतर विद्रोहियों के विपरीत वह अपने विपक्षी से युद्ध सामग्री प्राप्त नहीं करते थे। अंग्रेजों ने तो उन्हें उनके विशिष्ट स्वनिर्मित हथियार ‘‘सविनय अवज्ञा’’ के उपयोग का अवसर दिया था। फरवरी 1922 में चौरी-चौरा में भीड़ द्वारा पुलिस सिपाहियों की निर्मम हत्या ने उन्हें बारडोली सत्याग्रह स्थगित करने को प्रेरित किया था, परंतु वे भूले नहीं। उन्होंने छः वर्ष प्रतीक्षा की और 12 फरवरी 1928 को उसी स्थान, बारडोली में सत्याग्रह का शंख बजाया।’’ चौरी-चौरा में हुई अपनी नैतिक पराजय को गांधी ने पुनः एक अभूतपूर्व विजय में बदल दिया। 18 जनवरी 1930 को गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर गांधी जी से मिलने साबरमती आश्रम आए। उन्होंने गांधीजी से पूछा वे सन् 1930 में देश को क्या देने वाले हैं।

और पढ़ें: लखीमपुर खीरी यानी संविधान स्थगित, संविधान स्थगित यानी लखीमपुर खीरी

बापू बोले, ‘‘मैं रात-दिन व्यग्रतापूर्वक सोच रहा हूँ, परंतु मुझे घोर आंधकार में प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती।’’ छः सप्ताह यह अंतर्द्वंद चलता रहा। एकाएक प्रकाश की किरण चमकी। उन्होंने 27 फरवरी को यंग इंडिया में संपादकीय लिखा, ‘‘मेरी गिरफ्तारी के बाद’’। उसमें नमक कानून के माध्यम से हो रहे अत्याचारों का उल्लेख किया। इसी तारतम्य में वे ब्रिटिश वायसराम को 2 मार्च 1930 को क अविस्मरणीय लंबा पत्र लिखते हैं और उसमें नमक सत्याग्रह/दांडीमार्च प्रांरभ करने का नौ दिन का नोटिस भी देते हैं। इस लंबे पत्र को हर भारतीय को पढ़ना चाहिए। इसमें वे लिखते है, ‘‘मेरी निजी निष्ठा बिल्कुल स्पष्ट है। जानबूझकर मैं किसी प्राणी को चोट नहीं पहुंचा सकता, आदमियों को तो पहुंचा ही कैसे सकता हूँ, चाहे वे मुझे या मेरे लोगों को कितना ही भारी नुकसान क्यों न पहुंचाए? इसलिए यह मानते हुए भी कि ब्रिटिश शासन एक अभिशाप है, मैं किसी अंग्रेज को या उसके उचित हित को हानि पहुंचाने का इरादा नहीं रखता।’’

अंततः दांडी यात्रा प्रारंभ हुई। इसके बारे में हम सभी जानते हैं। बदले की भावना से अंग्रेज शासन ने साबरमती आश्रम को जब्त कर लिया। गांधी के कहने बावजूद जब उन्हें वह वापस नहीं दिया गया तो बापू ने घोषणा कर दी कि उन्होंने साबरमती आश्रम का त्याग कर दिया है और अब वे यहां भारत के आजाद हो के बाद ही लौटेंगे। स्थायी लोगों ने इसे संभालने का निश्चय किया। बापू 64 वर्ष की उम्र में एकबार पुनः बेघर होकर पूरे भारत को अपना घर बनाने निकल गए। वर्धा पहुंचे। सेवाग्राम बसाया और रचनात्मक कार्यों की क्रांति ही कर दी। गौरतलब है, साबरमती आश्रम में उन्होंने भारत को न्याय के प्रति प्रतिबद्धता, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष, अहिंसक समाज की स्थापना की शुरुआत, व पूरे भारत को एक संघर्षशील समाज में बदलने की प्रक्रिया को मूर्त रूप दिया था। उन्होंने एक निडर समाज तैयार करने के लिए साबरमती में जमीन तैयार की थी। वे एक सन्यासी की तरह आश्रम में प्रविष्ठ हुए थे और जब उन्होंने इस स्थान को छोड़ा तो वे ब्रहमर्षि बन चुके थे। दुनिया का कोई और आश्रम वैचारिक रूप से इतना संपन कभी नहीं रहा, जितना साबरमती है।

आज साबरमती आश्रम को एक पर्यटन स्थल में बदले की पूरी तैयारी हो चुकी है। वास्तविकता यह है कि साबरमती की सादगी ही इसकी पूंजी है, इसकी आध्यात्मिकता है। वे सारी ताकतें जो विचारों से डरती हैं वे सबसे पहले उन स्थूल प्रतीकों को नष्ट करने की विकृत कोशिश करतीं हैं, जहां से उन्हें अभिव्यक्ति मिली होती है। साबरमती/सत्याग्रह आश्रम अतीत में सारे विश्व को अपने चमत्कार से रूबरु करा चुका है।

साबरमती आश्रम आज अभिव्यक्ति पर मंडराते संकट, बदती आर्थिक असमानता व बढ़ती सांप्रदायिकता को नए सिरे से देखने का माध्यम है। यह संघर्ष का प्रतीक है जो आज की सबसे बड़ी जरुरत भी है | गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के फीनिक्स आश्रम से भारत में एक नया फीनिक्स, साबरमती स्थापित किया था। साबरमती आश्रम एक तारे की तरह ऊँचा है। क्या वह फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी राख से एक नया साबरमती आश्रम पुनर्जीवित कर पाएगा ? आज की सबसे बड़ी जरुरत साबरमती आश्रम को अपने अंदर पुनः स्थापित कर पाना ही है। क्या सरकार सारे देश से उठ रही आवाजों का सम्मान करेगी। साबरमती आश्रम की अस्मिता अंततः पूरे देश की अस्मिता है। याद रखिये बापू अभी तक साबरमती लौटे नहीं है। उनके लौटने का इन्तजार किए बिना उनका घर बदल देंगे ?