विश्व अहिंसा दिवस बनाम हिंसा का वैश्विक तांडव
हजारों निर्दोष बच्चों, महिलाओं और पुरुषों की अकारण और वीभत्स मौत भी बकाया विश्व को द्रवित नहीं कर रही है। क्या महात्मा गांधी और पं नेहरु ऐसे समय में तटस्थ बने रह सकते थे? संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व के नेताओं का यह भीरूपन वे सहन करते? भारत यदि उनकी नीतियों पर चल रहा है तो वह तटस्थ कैसे रह सकता है?
अहिंसा का अर्थ होता है प्रेम और उदारता की पराकाष्ठा!
महात्मा गांधी
विश्व में राज्य की हिंसा को लेकर बढ़ती बेरुखी समझा रही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संगठन अपने मूल कलेवर को भुलाकर एक ऐसे संगठन या संस्था में बदल गये हैं, जहां राष्ट्रों के बीच के संघर्षों को लेकर उसकी भूमिका अस्तित्वहीनता के दौर में प्रवेश कर गई है। रूस और युक्रेन का युद्ध वैसे तो सन 2014 से चल रहा है और उसके बाद 24 फरवरी 2022 को रूस ने पुनः एक विशेष सैन्य अभियान छेड़ दिया जो आज दिन तक निर्बाध जारी है। इस युद्ध को चलते हुए अब ढाई वर्ष (30 महीने) से ज्यादा हो गये। हजारों निर्दोष नागरिक मारे जा चुके हैं। आधा युक्रेन ध्वस्त हो चुका है।
उधर दूसरी ओर हमास और इजराइल के बीच 7 अक्टूबर 2023 को शुरू हुआ संघर्ष को भी एक वर्ष होने को आया। इस दौरान फिलीस्तीन में 43000 से ज्यादा लोग मारे गये और अब यह युद्ध लेबनान तक फ़ैल गया है और वहां भी 700 से ज्यादा निर्दोष नागरिक मारे जा चुके हैं। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में दिये गये आक्रामक व एकतरफ़ा भाषण के बाद तालियों की गूंजती गड़गड़ाहट हमें समझा रही है कि अहिंसा और शांति जैसी नैतिक स्थापनाओं को संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बिदाई दे दी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने 15 जून 2007 को महात्मा गांधी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर को प्रति वर्ष विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। पिछले 20 वर्षों से यह सतत् मनाया जा रहा है, समारोहित किया जा रहा है। लेकिन क्या इसे इसकी मूल भावना के अनुरूप विश्व के देशों ने, जिनमें भारत स्वयं भी शामिल है, आत्मसात किया?
सन 2023 के अहिंसा दिवस की थीम थी,
“अहिंसा विश्व शांति, न्याय और स्थिरता को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। साथ ही यह इस विचार की पैरवी करने कि हिंसा न केवल अनैतिक है, बल्कि यह वैश्विक चुनौतियों को हल कर पाने का एक अप्रभावकारी माध्यम है।”
सन 2024 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिन के लिये कोई विशेष थीम नियम तो नहीं की लेकिन इतना जरुर कहा कि, “महात्मा गांधी ने जिन मूल्यों समता, सम्मान शांति और न्याय के लिए अपना जीवन समर्पित किया उनमें पुनः आस्था प्रकट करना होगी।”
परंतु युद्ध निर्बाध जारी है। वहीं दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ का अधिवेशन भी चल रहा है। सभी देशों के नेतागण वहां अपनी-अपनी बात कह रहे हैं लेकिन कोई भी अहिंसा और शांति का खुलकर समर्थन नहीं कर रहा। सबकी निष्ठा और पक्षधरता अपने-अपने मित्र राष्ट्रों के प्रति है। सभी संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य हैं। भारत और पाकिस्तान भी आपसी संबंधों की कडुआहट की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से आनंदित है। भारत जो कि महात्मा गांधी को सीधे-सीधे प्रतिनिधित्व करता है, उसका इस बार का भाषण पूरी तरह से पाकिस्तान से संबंधों की खटास पर ही केंद्रित था। इससे प्रतीत हो रहा है, कि जैसे भारत ने अपना दृष्टिकोण बेहद संकुचित बना लिया है।
हमें आकलन करना होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्रों के बीच शांति स्थापना में असफल हो रहा है या वह शांति स्थापना के प्रयास ही नहीं कर रहा है। क्या वह एक स्वैच्छिक संगठन में स्वयं को बदल चुका है जो शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे कथित “साफ्ट” मुद्दों पर ही कार्य करेगा लेकिन “युद्ध” और “पर्यावरणीय मुद्दों” पर कोई सक्रिय, ठोस या बाध्यकारी पहल करेगा नहीं? हमास और हिजबुल्लाह को लेकर जो विश्व जनमत तैयार किया गया है, वह भी कमोवेश एकतरफा है। फिलिस्तीन समस्या का हल पिछले 76 वर्षों से क्यों नहीं निकाला गया जबकि इजरायल का गठन तो संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव से ही हुआ है। चूंकि 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी की वजह से “अहिंसा दिवस” घोषित किया गया था, इसलिये फिलिस्तीन और यहूदी राष्ट्र को लेकर उनके विचार जानना भी रोचक होगा।
“रामचन्द्र गुहा, “गांधी : दि इयर्स दैट चेंज्ड दि वर्ल्ड” में फिलिस्तीन और यहूदी राष्ट्र की स्थापना को लेकर सन 1938 में यानी इजरायल बनने के करीब एक दशक पूर्व महात्मा गांधी के विचारों को बड़ी स्पष्टता से व्याख्यायित करते हुए बताते हैं, ‘यूरोप के कई यहूदी फिलिस्तीन की ओर उन्नीसवी शताब्दी के अन्त में ही जाना शुरू कर चुके थे। यहूदियों को उम्मीद थी कि वे इस तरह यूरोप के छोटे-बड़े देशों में उनपर हो रहे दमन से मुक्ति पा सकेंगे। महात्मा गांधी के पास अरब और यहूदी समुदायों को लेकर फिलिस्तीन की भूमिका संबंधी तमाम पत्र आने लगे थे।
सन 1938 में उन्होंने “हरिजन” में इन सबका सामुहिक जवाब देते हुए उन्होंने शुरुआत में लिखा था, “उनकी (मेरी) सहानभूति यहूदियों के साथ है, वे ईसाईयत के अछूत हैं। उनके ऊपर तमाम धार्मिक रोक लगाई जा चुकी है जिसकों न्यायोचित ठहराया जा रहा है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा है। परंतु गांधी जी ने इस सहानुभूति के बावजूद फिलिस्तीनियों के प्रति आँख नहीं मूंदी थी। उनका मानना था कि यदि यहूदी एक राष्ट्र चाहते हैं, तो उसके लिए अरब क्यों मोल चुकाएं? वे पूर्वी यूरोप से “पवित्र भूमि” की ओर जोशीले यहूदियों द्वारा पलायन को प्रोत्साहित किए जाने के पक्षधर नहीं थे, क्योंकि यह सब “अंग्रेजों की बंदूक के साये” में हो रहा है।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि “एक धार्मिक कृत्य संगीन या बम की मदद से क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। यदि यहूदी फिलिस्तीन में बसना ही चाहते हैं यह केवल अरबों की सदभावना से ही किया जाना चाहिए। जैसा कि स्पष्ट है कि यहूदी, अंग्रेजों के सहभागी बनकर उन लोगों को लूट रहे हैं, जिन्होंने उनके साथ कुछ भी गलत नहीं किया है।
गांधी जी के इन विचारों को लेकर उस समय के यहूदी विचारकों, लेखकों एवं पत्रकारों ने उनकी काफी आलोचना की थी। परंतु गांधी अडिग रहे। इस अहिंसा दिवस पर हमें विचार करना होगा कि जो नया यहूदी राष्ट्र बना वह वास्तव में झूठ, छल, लूट और अत्याचार पर निर्भर था। सारा पश्चिमी विश्व जो यहूदियों को अपने यहां से निष्कासित कर रहा था और उसमे सफल भी हो गया, वही आज यहूदी राष्ट्र के सबसे बड़े समर्थक हैं और फिलिस्तीनियों को उनके पारंपरिक रहवास से निष्कासित करने में दिन रात जुटे हैं।
विश्व के अधिकांश देशों के तमाम नागरिक इजरायल की नृशंसता से अभिभूत हैं। वे हमास, हिजबुल्ला और आईएसआईएस में फर्क ही नहीं कर पा रहे हैं। यह तय है कि ईरान, ईराक लेबनान, सीरिया, तुर्की, यूनान, जोर्डन, मिस्त्र जैसे सभी पड़ोसी राष्ट्र इजरायल की आक्रामक नीतियों के शिकार रहे हैं। यह कहा जाता है कि एक छोटा सा देश जो सब तरफ से दुश्मनों से घिरा है कितने साहस से इन सबसे लोहा लेता है। परंतु सभी यह भूल रहे हैं कि अधिकांश महाशक्तियां इजरायल की विस्तारवादी नीतियों की समर्थन ही नहीं बल्कि इन नीतियों की निर्माता भी हैं और वे सभी प्रकार से उस राष्ट्र को खुला समर्थन दे रहीं हैं।
हजारों निर्दोष बच्चों, महिलाओं और पुरुषों की अकारण और वीभत्स मौत भी बकाया विश्व को द्रवित नहीं कर रही है। क्या महात्मा गांधी और पं नेहरु ऐसे समय में तटस्थ बने रह सकते थे? संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व के नेताओं का यह भीरूपन वे सहन करते? भारत यदि उनकी नीतियों पर चल रहा है तो वह तटस्थ कैसे रह सकता है? कोई भी संप्रभु राष्ट्र क्या किसी अन्य संप्रभु राष्ट्र की सार्वभौमिकता को इस तरह भस्मीभूत होते हुए इतनी सहजता और ठंडेपन से देखता रह सकता है?
गांधी कहते हैं, “यह अहिंसा हम जिसे मोटे तौर पर समझते हैं, सिर्फ वही नहीं है। किसी को कभी नहीं मारना, यह तो अहिंसा है ही। तमाम खराब विचार हिंसा है। जल्दबाजी हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जिस चीज की विश्व को जरुरत है, उस पर कब्ज़ा रखना भी हिंसा है।”
अतएव हमें यह सोचना होगा विश्व के दो महाद्वीपों में जो हिंसक युद्ध जारी है और दोनों ही स्थानों पर दोनों ही पक्षों के आम नागरिक भी बड़ी संख्या में मारे जा रहे हैं, ऐसे में क्या किसी एक पक्ष का साथ दिया जा सकता है? या दिया जाना चाहिए? कई बार दोनों ही पक्ष एक हदतक गलत हो जाते हैं। ऐसे में हमें यह हिम्मत रखना होगी कि सही को सही और गलत को गलत कहें। परंतु गौर करिये इन दोनों संघर्षों में यानी रूस तथा यूक्रेन एवं इजरायल बनाम हमास, हिजबुल्ला गलत हो सकते हैं लेकिन फिलिस्तीन और लेबनान तो कोई पक्ष हैं ही नहीं और सबसे ज्यादा नागरिक उनके ही मारे जा रहे हैं। हमास और हिजबुल्ला के कार्यों की सजा फिलिस्तीनियों को भुगतना पड़ रही है और सारा विश्व आँखे मूंचे एक गलत धारणा को लगातार मजबूती प्रदान करता जा रहा है।
गांधी की इस बात पर गौर करते हैं, “जो गुण मानव और अन्य सभी पशुओं के बीच का अंतर स्पष्ट करता है, वह है मानव में अहिंसक रह सकने की क्षमता और मानव जिस हद तक अहिंसा का पालन करता है उसी हद तक अपने लक्ष्य के निकट तक पहुंचता है, उससे आगे नहीं। निस्संदेह उसको कई और गुण अर्थात अहिंसा की भावना के विकास में मदद नहीं देते तो वे उसे पशु से भी निचले उस स्तर तक घसीटकर ले जाने का काम ही करते हैं जिस स्तर से वह अभी-अभी उठकर आया है।”
जाहिर है हमें बेहद गंभीरता से बढ़ती हिंसा के खिलाफ खड़े होना ही पड़ेगा। जहाँ तक इजरायल का सवाल है उसका गठन संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के प्रस्ताव के माध्यम से हुआ है। अतएव यह संयुक्त राष्ट्र संघ की जिम्मेदारी भी है कि अपने सृजन को सही आकार दे और यदि ऐसा नहीं कर पा रहा है तो विकल्प भी वही सुझाए। यदि वह निर्माण करना जानता तो उसे विघटित करने की हिम्मत भी जुटानी चाहिए।
रवींद्र नाथ टैगौर ने कहा था, “जब तक एक भी बच्चा जन्म ले रहा है, तब तक भविष्य की संभावनाएं बाकी हैं।” परंतु सोचिए कि हजारों बच्चों का असमय बम या बंदूक की गोली से मारा जाना क्या अनंत संभावनाओं को नष्ट नहीं कर रहा है?
क्षमासहित बापू को नमन!