बापू से सवाल कीजिए

अहिंसा मानवता के हाथ में महानतम ताकत है। यह मनुष्य की असाधारण प्रतिभा से विकसित किए गए विध्वंस के सबसे शक्तिशाली हथियार से भी ज्यादा ताकतवर है: महात्मा गांधी

Updated: Oct 02, 2025, 12:06 PM IST

“मैं भविष्य का पूर्वानुमान नहीं लगाना चाहता। मैं वर्तमान पर ध्यान दिए रहने पर एकाग्र हूँ। ईश्वर ने मुझे एक क्षण बाद क्या होगा, उस पर भी नियंत्रण नहीं दिया है।“
महात्मा गांधी 

बापू ने कभी भविष्यवेत्ता होने का प्रयास नहीं किया हो ऐसा भी नहीं है। आजादी के करीब 10 बरस पहले उन्होंने कहा था कि आजादी के बाद के हमारे संघर्ष (वर्तमान से) और भी कठिन होंगे क्योंकि तब हमारा साबका हमारी चुनी हुई सरकारों से पड़ेगा। वे तत्कालीन राजनीतिक पक्ष या विपक्ष का विश्लेषण नहीं कर रहे थे, बल्कि वे वर्तमान को समझकर भविष्य को समझाना चाहते थे। 

आज की परिस्थितियां हमारे सामने हैं और कुंठित और हतप्रभ भारतीय समाज लगातार आक्रामकता को बढ़ावा देता जा रहा है। बचाव का यह तरीका अब पुराना पड़ गया है। अब सत्ता कहीं न कहीं इस बात पर आमादा है कि उसे परिवर्तन न तो देखना और न ही झेलना पड़े। इसलिये गाँधी की राजनीति और गाँधी का धर्म दोनों को एकसाथ ही समझना होगा। वे कहते हैं, "मैं तब तक धार्मिक जीवन नहीं जी सकता जब तक कि मैं स्वयं को पूरी मानवता से जोड़ न लूं और यह तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि मैं राजनीति में कोई भूमिका न निभाऊँ। मनुष्य की गतिविधियों के संपूर्ण पहलू आज एक अविभाज्य इकाई का निर्माण करते हैं। आप सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और पूर्ण धार्मिक मसलों को किसी एक निर्विवाद खाके में नहीं रख सकते। मैं मानव गतिविधि के अलावा कोई और धर्म नहीं जानता।” 

मानव गतिविधियां धर्म से जुड़ी हैं या अधर्म से इसका निर्धारण भी तो जरूरी है। वास्तविकता तो यही है कि जैसे-जैसे सत्ता में भ्रष्टाचार बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे शासन पहले से ज्यादा कठोर होता चला जाएगा। रोमन इतिहासकार टेसिट्स (56 ईस्वी से 120 ईस्वी) ने एक बेहद सारगर्भित टिप्पणी करते हुए कहा था, “राज्य जितना भ्रष्ट होगा, उतने ही अधिक कानून।” आज का वैश्विक परिदृष्य हमारे सामने है। अमेरिका, रूस, चीन, इजरायल, इटली, उत्तरी कोरिया जैसे राष्ट्र मानो एक सी भाषा बोल रहे हैं। राष्ट्रवाद की एक नई लहर पूरी दुनिया में उभर आई है। अधिकांश देशों में राष्ट्रवाद के पीछे आर्थिक सरोकार हैं। वहीं भारत जैसे राष्ट्रों में राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिकता को पनपाया जा रहा है। 

बापू राष्ट्र‌वाद को एक सभा में बहुत हौले-हौले से दुलराते हुए कहते हैं, “आज शाम का हमारा विषय है प्रेम और प्रेम में बड़ी ताकत होती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं, कि शेर से प्रेम कर बैठें। पर क्या शेर से नफरत अनिवार्य है? उसी तरह सोचिए, कि क्या राष्ट्रवाद के लिए नफरत अनिवार्य है? ठीक है आपको प्रेम नहीं है, लेकिन क्या इसके लिए जरूरी है कि आप "नफरत" करे?" तो बात प्रेम और नफरत के बीच में अटकी हुई है। प्रेम और नफरत दो विपरीत ध्रुव ही हैं। 

गाँधी समझाते हैं कि प्रेम करें या न करें, परंतु नफरत तो नहीं ही करें। मगर आज अधिकांश दुनिया नफरत को सर्वश्रेष्ठ मानवीय गुण और मूल्य मान रही है। तभी तो निरीह व निर्दोष फिलिस्तीनीयों की हजारों की संख्या में हो रही हत्याएं हमें विचलित नहीं कर रहीं।
वर्तमान वैश्विक स्थिति को देखकर लगता है कि हम इतिहास के क्रूरतम काल से गुजर रहे हैं। शायद नाजीवाद और फासीवाद के काल से भी ज्यादा नृशंस समय आगे आने की राह देख रहा है। 

इसी वजह से गाँधी सम‌झाते हैं, “अहिंसा मानवता के हाथ में महानतम ताकत है। यह मनुष्य की असाधारण प्रतिभा से विकसित किए गए विध्वंस के सबसे शक्तिशाली हथियार से भी ज्यादा ताकतवर है। विध्वंस मनुष्य का कानून नहीं है। मनुष्य हमेशा मृत्यु के लिये तैयार रहने, भले ही उनके भाई के हाथों ही, मरने के लिए तैयार रहता है न कि उसकी हत्या करने के लिए।” 

मरने के लिए हमेशा तैयार रहना ही अहिंसा है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि “अहिंसा का सिद्धांत यह प्रतिपादित करता है किसी भी तरह के शोषण का अभाव हो।" शोषण हिंसा का सबसे वीभत्स रूप है। परंतु आज दुनिया के प्रत्येक देश की सत्ता ने कमोवेश अपने ही नागरिकों को अपना उपनिवेश बना लिया है। वे उस पर निर्बाध राज करते हैं और विरोध या असहमति को कठोरतम दंड से दबा देते हैं। भारत के पड़ोस का प्रत्येक देश (सिवाय भूटान के) आज राजनीतिक हिंसा का सामना कर रहा है। इसका नवीनतम उदाहरण नेपाल है। परंतु इससे भी ज्यादा विचित्र बात यह है कि किसी भी पड़ोसी देश में भारत जैसे लोकतंत्र की स्थापना की पुकार अब सुनाई नहीं दे रही है। यह एक दुखदायी सच्चाई है।

कुछ बरस पहले लगा था कि विश्व में शांति का काल आ रहा है। परंतु एकाएक पिछले करीब डेढ दशक में अधिकांश प्रमुख लोकतांत्रिक देश एक के बाद एक दक्षिणपंथी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन गए। संयुक्त राष्ट्र संघ श्रीहीन हो गया और आंचलिक गठबंधन तो जैसे रेत पर खिची लकीरें हो गए। हवा का एक झोंका उन्हें नेस्तनाबूत करने के लिये काफी हो जाता है। नवगठित अंतरराष्ट्रीय समूहों के सम्मेलन किसी रिसोर्ट में छुट्टी मनाने के उपक्रम से ज्यादा परिणाममूलक नहीं हो पा रहे हैं। चाहे वह जी-20 हो, जी-7 हो, ब्रिक्स हो या शंघाई सह‌योग संगठन (SCO)। 

दूसरे विश्वयुद्ध से कुछ महीने पहले न्यूयार्क टाइम्स के संवाददाता ने बढ़ते संकट (मार्च संकट) के चलते महात्मा गांधी से पूछा था कि आप विश्व को क्या संदेश देना चाहते हैं। तब गांधी ने समाधान सुझाया था कि, “लोकतांत्रिक ताकतों को समानांतर तौर पर निःशस्त्रीकरण करना चाहिए।” उन्होंने कहा, “मैं इसे लेकर उतना ही निश्चित हूँ कि, जितना कि मैं यहां बैठा हूँ। यह हिटलर की आँख खोल देगा और वह निःशस्त्रीकरण की ओर बढ़ेगा।” तब साक्षात्कारकर्ता ने पूछा, “क्या यह चमत्कार नहीं होगा?” गांधीजी ने जवाब दिया, “संभवतः ऐसा ही है। परंतु यही उपक्रम विश्व को अवश्यंभावी कत्लेआम से बचा सकता है।” 

प्रसिद्ध ब्रिटिश शिक्षाविद और गाँधी से जीवंत संपर्क में रहने वाले होरेस एलेक्जेंडर कहते हैं, “किसी महान व्यक्ति का उसके जीवनकाल में मूल्यांकन कर पाना बेहद कठिन होता है। और कई वजहों से यह तब और भी कठिन हो जाता है जब आप उसे व्यक्तिगत तौर पर जानते हों। अगर आप एक व्यक्ति को सही परिप्रेक्ष्य में देखना चाहते हों तो उससे थोड़ी दूरी बनाए रखो। मैं महात्मा गाधी से ज्यादा नजदीकी नहीं बनाना चाहता। मैं उनके विचारों को अधिक से अधिक जानना चाहता हूँ।” 

वे उनके एक और असाधारण गुण पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, “वे जानते हैं कि एक अनपढ़ किसान के साथ कैसे उतने ही आत्मीय संबंध बनाए जितना कि उनके शैक्षणिक स्तर के व्यक्ति से। उनकी निगाह में कोई भी पुरुष या महिला साधारण या गंदा नहीं है। यह महज एक खूबसूरत सिद्धांत भर नहीं है बल्कि वे इसे सबको समझाते भी हैं और यह उनकी रोजमर्रा की दिनचर्या का हिस्सा है।"

ऐसे बहुत सीधे-साधे से उपक्रम गाँधी को सृष्टि के महानतम विभूतियों की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। वे नितांत वर्तमान में ही रहे। इसीलिये हमेशा जीवंत बने रहे और लगातार अपने, समाज, अपने देश और विश्व के लिए नए –नए प्रयोग करते रहे और बेहतर और प्रेममय जीवन का रहस्य समझाते रहे। 

अंत में उनके इस संदेश पर गौर करिये, “जहां तक मेरी बात है, अंग्रेजों का चले जाना यदि उनका ख़त्म हो जाना है तो मुझे ऐसी आजादी नहीं चाहिए। मैं अपने देश की आजादी इसलिये चाहता हूँ ताकि दूसरे मुल्क मेरे आजाद मुल्क से सीख सकें। मैं अपने देश की भी आजादी इसीलिए चाहता हूं ताकि मेरे देश के संसाधनो का उपयोग इंसानियत के हित में हो सके।” तो गाँधी को सिर्फ नमन न करें, उनसे सवाल करें। आपको समस्या का समकालीन समाधान अवश्य मिलेगा।
बापू को नमन।