चले चलो कि जहां तक ये आसमान चले: आज की अनिवार्यता है भारत जोड़ो यात्रा

‘‘चाहता हूँ मेरे देश का लगभग / बे पढ़ा - लिखा आदमी / मिटाए इस परिस्थिति को बढ़कर / और होगा यह गांधी के समझने से / उनके रहने और करने के ढंग को / अपनाने से / उससे हटकर कदापि नहीं होगा कुछ / जो कुछ होगा सो उसके पास जाने से।’’ - भवानी प्रसाद मिश्र

Updated: Aug 28, 2022, 11:04 AM IST

‘‘भारत जोड़ो यात्रा’’ को लेकर तमाम सारे विचार सामने आ रहे हैं। राहुल गांधी करीब 3,500 किलोमीटर की इस यात्रा का नेतृत्व करेंगे। सारा मीडिया परेशान है कि इस यात्रा का वास्तविक उद्देश्य क्या है? भाजपा भी हैरान है कि आखिर इससे हासिल क्या होगा? दोनों ही अपनी जगह ठीक सोच रहे हैं। जब सारी राजनीति चुनावी राजनीति तक सीमित हो जाए तो स्वाभाविक तौर पर यह प्रश्न तो सामने आएगा ही कि इस यात्रा से आखिर राहुल गांधी क्या पाना चाहते हैं, क्या हासिल करना चाहते हैं? इस बात पर सब एकमत हैं कि इस तरह की यात्राओं से चुनाव नहीं जीते जा सकते। जब वे सारे लोग यह मानते ही हैं तो इतने विचलित क्यों हैं? दरअसल यात्रा तो स्वयं को विस्तारित करने का एक जरिया है। गांधी जी की दांडी यात्रा के बाद भारत तुरंत स्वतंत्र नहीं हो गया था। इसके बाद सत्रह साल लगे थे, आजाद होने में। इसलिए यात्रा किसी भी लक्ष्य तक पहुंचने का माध्यम बनने की तैयारी भर है। लक्ष्य तो लगातार संघर्ष से ही हासिल हो पाता है। 

यह तय है कि यात्राएं जोड़ती हैं। वे नया नजरिया देती हैं। वे विचारों को नई हवा और प्रकाश देतीं हैं। कहते हैं हजारों बरस पहले अफ्रीका के एक मनुष्य ने यात्रा शुरु की और धीरे-धीरे हमारी दुनिया बस गई। ठहराव तो मनुष्य के विकास को बाधित करता है। इसलिए अनादि काल से मनुष्य यात्राएं करता रहा है। वह अपने निवास की सीमाओं का अतिक्रमण करता रहा है। भारत में ग्रीस से, चीन से, रूस से, यूरोप से, अफ्रीका से, एशिया के तमाम हिस्सों से यात्री आए और इन सभी स्थानों पर भारतीय यात्री भी गए। भारत में शंकराचार्य ने, गुरु नानक ने, कबीर ने, मीरा ने, राहुल सांकृतायन ने, महात्मा गांधी आदि ने लगातार यात्राएं कीं।

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महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद भारत में 2000 से ज्यादा स्थानों का भ्रमण किया। भारत के अपने 34 वषों के निवास में उन्होंने करीब 14 वर्ष साबरमती और सेवाग्राम आश्रम में बिताए और 14 बरस लगातार घूमने में। बाकी के बचे में से 6 साल ब्रिटिश जेलों में बिताए। यानी जेल यात्राएं कीं। इसका अर्थ दुआ कि भारत में उनके निवास के 21 बरस यात्राओं में बीते थे। इन यात्राओं में उनकी दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया। गौरतलब है ये सारी पदयात्राएं नहीं थीं। इन यात्राओं के दौरान, उनके आश्रम सुचारु चलते रहे। अखबार व पत्रिकाएं लगातार निकलती रहीं। वे आंदोलन चलाते रहे, उसमें भागीदारी करते रहे। 

यात्राएं मनुष्य में गुणात्मक परिवर्तन लाने में सहायक होती हैं। हमारी आज की प्रचलित व्यवस्था, राजनीतिज्ञ तैयार करती है। ऐसा राजनीतिज्ञ जिसका लक्ष्य मात्र चुनाव जीतना भर रहता है। कुछ अपवाद हो सकते हैं। परंतु यही सत्यता है। इसलिए सारी राजनीति बहुत सीमित दायरे में सिकुड़ती जा रही है। राष्ट्र और समाज को वास्तव में आवश्यकता ‘‘नायक’’ की होती है। ऐसा व्यक्ति जो समाज का नेतृत्व कर सके सिर्फ सरकार का नहीं। ऐसे व्यक्ति में निडरता और मुखरता के साथ ही साथ समाज के प्रति सद्भाव व सम्मान भी होना चाहिए। और ऐसा तभी हो सकता है, जब कोई लगातार समाज के और समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों के संपर्क में रहे।

इसलिए जब हम गांधी की दांडी यात्रा का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि यात्रा के दौरान हजारों लोग स्वमेव उनसे जुड़ते गए। उनके साथ हो लिए। एक छोटा समूह- जनसैलाब में परिवर्तित हो गया और अंग्रेजों का डर तमाम लोगों के दिमाग से निकल गया। महात्मा गांधी ने अपनी यात्रा के पहले दिन असलाली में भाषण में कहा था, ‘‘मैं समझ सकता हूँ कि हुक्का, बीड़ी और शराब जैसी चीजों पर कर लगाया जाए। यदि मैं सम्राट होता तो मैं आपकी अनुमति से प्रत्येक बीड़ी पर एक पाई का कर लगा देता। पर क्या कोई नमक पर कर लगा सकता है ?’’ उनके भाषण की भाषा पर गौर करिए वे कह रहे हैं कि यदि वे सम्राट होते तो आपकी यानी जनता की अनुमति से शराब आदि पर कर लगाते। बुराई पर रोक भी जनता की अनुमति लेकर ही लगेगी। यदि वे स्वयं को एक सम्राट के रूप में इतना लोकतांत्रिक बना देते हैं तो सोचिये यदि वे किसी लोकतांत्रिक ढांचे के प्रमुख होते तो, जनता कितनी शक्तिशाली होती। यही तो नायक की निशानी है कि वह अपनी जनता को शक्तिशाली बनाता है। उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार बनाता है। 

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इसलिए यात्रा हमें अधिक लोकतांत्रिक बनाने में सहायक होती हैं। इसकी वजह से हमारी पहले से अधिक निर्भरता समाज पर होती है। अत्यन्त आत्मनिर्भर होकर की गई यात्रा तो हमारे निवास का विस्तार ही होगी। इतना ही नहीं बापू रास्ते के ग्रामीणों से कहते हैं कि, “उन्हें और यात्रियों को एकदम सादा भोजन, बिना तेल, बिना मसाले और बगैर मिर्ची का उपलब्ध कराया जाए। सारे यात्री अपना बिस्तरा साथ लेकर चल रहे हैं, इसलिए गांव वाले सिर्फ विश्राम के लिए साफ-सुथरा स्थान उपलब्ध करवा दें।“

गांधी और दांडी यात्रा की बात इसलिए जरुरी है कि यदि देश को जोड़ने की प्रक्रिया को नए सिरे से प्रारंभ करना है तो गांधी के आचरण को भी व्यवहार में लाना होगा। विचारणीय यह है कि इस यात्रा की आवश्यकता क्यों पड़ी? वास्तव में जो कारण है वह हम सबको शर्मिंदा कर रहे हैं। सबसे बड़ा कारण है बढ़ती सांप्रदायिकता और बढ़ता जातिवाद। भारत लगातार मध्ययुगीन कट्टरता की ओर लौटता जा रहा है। हम आज शायद उससे भी बुरे दौर में लौट रहे हैं। जिस औरंगजेब को असहिष्णुता का पर्याय बताया जा रहा है, उसके दरबार में हिन्दू बड़े ओहदों पर थे। परंतु आज सत्ताधारी दल के लोकसभा व राज्यसभा में कुछ 394 सदस्य हैं और इनमें से एक भी अल्पसंख्यक मुस्लिम नहीं है। 

उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश विधानसभा में भी भाजपा से एक भी मुस्लिम विधायक नहीं है। बिल्किस बानो के बलात्कारियों व उनके परिवार के हत्यारों को माफी के खिलाफ न तो प्रधानमंत्री बोल रहे हैं, न महिला व बाल कल्याण मंत्री | यह वर्तमान में भारत की सबसे बड़ी समस्या है। यदि राहुल गांधी के नेतृत्व में प्रांरभ होने वाली यात्रा के एजेंडे में यह मसला सबसे ऊपर रहता है तो यह देश के लिए राहत की बात होगी। बेरोजगारी और मंहगाई भी महत्वपूर्ण है, लेकिन देश की उन्नति का एकमात्र आधार सांप्रदायिक समभाव ही है। 

यहां इस बात पर भी स्वयं को स्पष्ट कर लेना चाहिए कि यात्रा का समाधानमूलक होना या किसी परिणाम पर पहुंचना कतई आवश्यक नहीं है। सवाल समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के प्रदर्शन का है और अपनी राय को समाज के सामने स्पष्ट तौर पर रखने का ही है। हमें समझना होगा कि भारत में बौद्ध धर्म क्यों विलुप्त हुआ और एशिया के तमाम देशों में कैसे फैला? भारत से मात्र 20-25 समुद्री मील की दूरी पर श्रीलंका में वह विद्यमान है। म्यांमार में भी है। पूर्वी एशिया और जापान में मौजूद है। यह तमाम यात्राओं से ही संभव हो पाया है। यात्राएं बहुत कुछ संप्रेषित करतीं हैं और यात्री को ग्रहणशील बनाती हैं, बशर्ते वह ग्रहण करने को तैयार हो। 

यात्राओं से पहले अपने दिमाग की स्लेट को कोरा कर लेना होता है, तभी उसमें कुछ नया आता है। उभरता है। इसी के समानांतर सोचना होगा कि गुलाम नबी आजाद ऐसा समय अपने इस्तीफे के लिये क्यों चुनते हैं जब उनका (पूर्व) दल मंहगाई के खिलाफ एक बड़ा संघर्ष खड़ा कर रहा है। जब कांग्रेस व उनके सहयोगी ‘‘भारत जोड़ो यात्रा” का शुभारंभ करने जा रहे हैं ? जब सोनिया गांधी, राहुल गांधी व प्रियंका गांधी विदेश में हैं? वे तब दल से इस्तीफा देते हैं, जबकि राहुल गांधी कमोवेश स्पष्ट कर चुके हैं कि वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनने में रुचि नहीं रख रहे हैं। इससे भी भारत जोड़ो यात्रा को महत्व को समझा जा सकता है। कांग्रेस के अभी संभवतः कुछ और त्यागपत्रों का सामना करना पड़ सकता है। 

इस बात पर गौर करना होगा कि राहुल गांधी द्वारा प्रकट की गई प्रत्येक शंका अंततः सही साबित हुई है। अतएव इस वजह से भी इस यात्रा का अत्यधिक महत्व है। अभी तमाम गैर सरकारी संगठन या सिविल सोसाइटी आर्गेनाइजेशन कांग्रेस के साथ आ रहे है। गांधी विचार से जुड़ी संस्थाओं के बारे में अभी कोई बात निकलकर नहीं आ रही है। अगर विचार को केंद्र में सरकार नए भारत के निर्माण की संकल्पना करना है तो वह उन्हीं संस्थाओं के माध्यम से संभव है जिनका गठन महात्मा गांधी ने किया और वर्तमान में भले ही छोटे रूप में पर आज भी पूरी ईमानदारी से सक्रिय हैं। यह भी संभव है कि ये संस्थाएं परोक्ष रूप से शामिल भी हों। 

राहुल गांधी ने जिस तरह से यात्रा का मन बनाया है वह प्रशंसनीय है और आज की अनिवार्यता भी। भारत का मीडिया जिस कदर डरपोक व एकपक्षीय हुआ है और भारत के ज्वलंत मुद्दों की लगातार न केवल अनदेखी ही कर रहा है बल्कि उनके प्रति उसका रवैया कमोवेश तिरस्कारपूर्ण ही है। उसका जवाब इसी तरह की यात्राओं से दिया जा सकता है। आज की आवश्यकता है कि जनता से सीधे संपर्क किया जाए और बीच की सारी अड़चनों को अलग कर दिया जाए। यह यात्रा क्या अपनी एक पृथक पहचान भारतीय मानस पर छोड़ पाएगी, यह तो समय ही बता पाएगा। गौरतलब है, गांधी जी ने दिल्ली के राजधानी रहते हुए भी कभी भी अपना बड़ा आंदोलन दिल्ली से शुरु नहीं किया। आज पुनः इस बात की जरुरत आन पड़ी है कि दिल्ली की सत्ता की राजनीति और उसके वशीभूत मीडिया को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जाए। उनकी उपस्थिति को कुछ समय के लिए भुलाकर पूरी तरह से अपने लक्ष्य को संप्रेषित करने की कोशिश की जाए। सफलता को मापने की जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। यात्रा तो एक अंतहीन प्रक्रिया है क्योंकि जीवन भी एकतरह की अनंतता ही है।

राहत इंदौरी ने लिखा है,
सफर की हद है वहां तक कि कुछ निशान रहे 
चले चलो कि जहां तक ये आसमान रहे
ये क्या उठाए कदम और आ गई मंजिल
मजा तो जब है कि पैरों में कुछ थकान रहे।।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यह यात्रा भारत को नए सिरे से एकसूत्र में गुथ पाएगी, ऐसी उम्मीद तो रखनी ही चाहिए।