अशोक स्तंभ: यह पत्थरों पर उकेरी रेखाएं हैं, मोम पर नहीं

संविधान ने यदि तिरंगे और अशोक चक्र का निर्धारण राष्ट्रीय ध्वज के रूप में कर दिया तो अब कोई तर्क इसमें परिवर्तन को उचित नहीं ठहरा सकता...किसी धार्मिक प्रतीक से आहत होती भावनाएं एक संवैधानिक प्रतीक से हो रही छेड़छाड़ से आहत क्यों नहीं होतीं .. दोनों ही स्थितियों में बहुत सोच समझकर और शांति से प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता है... आँख चुराने से सिंह की मुद्रा बदल नहीं जाएगी

Updated: Jul 14, 2022, 02:17 AM IST

रवींद्रनाथ टैगोर लिखते हैं, ‘‘मानव अपनी पूर्णता में शक्तिशाली नहीं बल्कि पारंगत होता है। इसलिए उसे केवल शक्ति में बदलने का अर्थ है उसकी आत्मा की यथासंभव कटौती। जब हम पूरे मानव होते हैं तो हम एक-दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाते, सामाजिक जीवन की मूल वृत्ति और नैतिक आदर्शो की परंपरा हमारे आड़े आती है। यदि आप मुझसे अपेक्षा करते हैं कि मैं मानवों का संहार करुं तो आपको पहले किसी युक्ति से मेरी मानवीय संपूर्णता को नष्ट करना होगा ताकि मेरी इच्छा मर जाए, मेरी गतियां स्वचालित हो जाएं।’’ इस विस्तृत उद्धहरण को यहां रखने का आशय यह है कि हम जब भी आक्रामक होते हैं, तब हम अपनी आत्मा को मार रहे होते हैं, अपने स्व का स्वयं संहार कर रहे होते हैं। आज यही हो रहा है।

नए संसद भवन के शीर्ष पर स्थापित होने वाले भारत के राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ के सिंह एकाएक शांत से क्रोधित हो गए। यह कैसे हुआ ? इसके नीचे सत्यमेव जयते भी नजर नहीं आ रहा है | क्या आज से पहले पूरे विश्व में कहीं भी कभी भी ऐसा हुआ है कि उसके राष्ट्रीय चिन्ह की प्रतिकृति और मूल में अंतर हो और इसके बावजूद उसे किसी लोकतंत्र के सबसे पवित्र, सबसे महत्वपूर्ण स्थान संसद के शीर्ष पर स्थापित किया जा रहा हो ? शायद नहीं, बल्कि निश्चित तौर पर नहीं। क्या किसी भवन का खंड-खंड या हिस्सों-हिस्सों में अनावरण या लोकार्पण होते सुना है ? कि आज दरवाजे का लोकार्पण हुआ। कल खिड़की का होगा, परसों फर्श का होगा और इसके पूरा होते न होते पूरा भवन अलग-अलग उद्घाटित होकर किश्चों में जनता को लोकार्पित होता जाएगा ?

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कुछ बातें तर्क के परे होती हैं। संविधान ने यदि तिरंगे और अशोक चक्र का निर्धारण राष्ट्रीय ध्वज के रूप में कर दिया तो अब कोई तर्क इसमें परिवर्तन को उचित नहीं ठहरा सकता। ठीक वैसा ही राष्ट्रीय प्रतीक के साथ भी है। यह परिवर्तन जानबूझकर हुआ है या अंजाने में, इस पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। बहुत बरस पहले मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में एक मूर्ति से सामना हुआ। दूर से वह महात्मा गांधी का आभास दे रही थी। नाक-नक्श के हिसाब से। जैसे-जैसे पास आते गए बापू काफी हष्ट पुष्ट नजर आने लगे। एकदम नजदीक से देखने में लगा कि ये तो गांधी और गांधी की भूमिका निभाने वाले बेन किंगस्ले के बीच की कोई रचना है। परंतु राष्ट्रीय प्रतीक को लेकर ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री का ध्यान अनावरण के बाद उस मूर्ति की ओर नहीं गया होगा ? ऐसा तो संभव नहीं है। होना तो यह था कि इस मूर्ति के संबंध में पहली आपत्ति आते ही इसे ढक दिया जाना चाहिए था। सवाल यह भी उठता है कि मूर्ति को अंतिम रूप से ढालने से पहले मूर्तिकार ने इसका मॉडल तो बनाकर बताया ही होगा और उसी आधार पर मूर्ति के निर्माण का टेंडर दिया गया होगा।

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सरकार और प्रधानमंत्री को इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए। यह भी सोचना होगा कि दक्षिणपंथी विचारधारा जिस तरह भारत के अन्य शालीन प्रतीकों, राम और हनुमान को क्रोधित रूप में दर्शा रही है, उसकी तुलना राष्ट्रीय प्रतीक के सिंहों से नहीं हो सकती। राम और हनुमान के चरित्र के साथ सुख-दुख, क्रोध आदि जुड़ा हुआ है और हम उनकी छवि अपनी कल्पना में और कल्पना से विकसित करते हैं। लेकिन राष्ट्रीय प्रतीक तो साक्षात हमारे सामने मौजूद है। साथ ही यह पत्थर पर उकेरे गए सिंह हैं, मोम पर नहीं कि बदल जाए | इसलिए उसके स्वरूप या भाव में बदलाव तो पूर्णतया अस्वीकार्य ही होगा।

भारत की संवैधानिक संस्थानों के साथ हो रहे व्यवहार और उनके द्वारा नागरिकों व संस्थाओं के साथ हो रहा व्यवहार भी कटघरे में है। यह बेहद दुःखद स्थिति है। भारतीय जनता का अपने प्रतीकों के प्रति अलगाव हमारी एकजुटता को कम करता है। हम एक ओर ‘‘राष्ट्रवाद’’ के अतिरेक में तमाम मानवीय संवेदनाओं और संवैधानिक प्रतिबद्धताओं को नजरअंदाज कर रहे हैं, वहीं अपने राष्ट्र के प्रतीक के साथ हुई छेड़छाड़ को लेकर चुप्पी क्यों लगाएं हुए हैं। यही चुप्पी महाराष्ट्र की चुनी हुई सरकार को गिराती है। गोवा में चुने हुए विपक्षी विधायकों को दलबदल के लिए उत्साहित करती है। यह चुप्पी छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में सरकार बदलने के अनुचित तरीकों का मौन समर्थन भी है।

किसी धार्मिक प्रतीक से आहत होती भावनाएं एक संवैधानिक प्रतीक से हो रही छेड़छाड़ से आहत क्यों नहीं होतीं ? दोनों ही स्थितियों में बहुत सोच समझकर और शांति से प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता है। आँख चुराने से सिंह की मुद्रा बदल नहीं जाएगी। सम्राट अशोक के शासन का उत्तरार्थ भारतीय इतिहास का वह लंबा वक्फा है, जब भारत में युद्ध होना कमोवेश बंद हो गए थे। सम्राट अशोक ने करीब 37 वर्षों तक शासन किया और पूरे देश में अहिंसा का प्रचार और प्रसार किया। तो उनके शासन का प्रतीक इतना क्रोधित कैसे दिखाई दे सकता है ? पर ऐसा हो गया है ।

भगवत शरण उपाध्याय की पुस्तक, ‘‘भारतीय संस्कृति के स्त्रोत’’ के एक अध्याय का बेहद रोचक शीर्षक है, ‘‘वे आये, जीते और विलीन हो गये।’’ इसमें उन तमाम बाहरी योद्धाओं का जिक्र है जो अन्य देशों से भारत को जीतने आए थे और अपने साम्राज्य को विस्तारित करना चाहते थे। परंतु उनमें से अधिकांश यहीं बस गए और आज वे भारतीय समुदाय में इतने घुल मिल गए हैं कि उनकी अपनी पृथक पहचान कमोवेश विलीन हो गई। भारतीय संस्कृति की यह समावेशी प्रवृत्ति वास्तव में सम्राट अशोक की ही देन है। इधर पिछले करीब तीन दशकों यानी बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से भारत में एक नया दौर शुरु हुआ है, जिसमें बहुसंख्यक समुदाय अपनी पहचान को लेकर अकारण ही चिंतित और भयभीत हो रहा है। 

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यहां इस बात का उल्लेख इसलिए भी करना आवश्यक है क्योंकि इस मूर्ति के लोकार्पण के दौरान हिन्दू विधि विधान से पूजन किया गया। क्या संवैधानिक प्रतीकों को एक ही नजरिए से देखा जा सकता है ? क्या इसके लिए धार्मिक कर्मकांड जरुरी है ? यदि जरुरी समझा गया था तो यह एक ही धर्म तक सीमित क्यों रहा ? जबकि सम्राट अशोक ने इसका निर्माण तो बौद्ध धर्म अपनाने के बाद किया था क्या सर्वधर्म प्रार्थना सभा नहीं हो सकती थी ? इसी से जुड़ा एक और प्रश्न यह है कि लोकार्पण समारोह में सभी राजनीतिक दलों को न्यौता क्यों नहीं दिया गया ? इसी तरह की प्रक्रिया झारखंड में हवाई अड्डे के लोकार्पण में भी अपनाई गई। अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि सार्वजनिक संपत्तियों के लोकार्पण व शिलान्यास को धार्मिक कर्मकांडो से दूर रखा जाए। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि इनके निर्माण में भारत के प्रत्येक नागरिक का योगदान है। प्रत्येक नागरिक कर चुकाता है। अतएव इस तरह का चयन कमोवेश औचित्यहीन है कि एक ही धर्म को प्रमुखता दी जाए।

राष्ट्रीय प्रतीक को लेकर उठे विवाद पर इसको गढ़ने वाले मूर्तिकारों का कहना है कि मूल मूर्ति में कहीं पर थोड़ी बहुत टूट-फूट थी उसे भी इस मूर्ति में ठीक किया गया है जबकि पुरातत्व की सामग्री/वस्तु/मूर्ति आदि को लेकर यह नियम है कि उन्हें पुनः सुधारा नहीं जाता, वे जैसे स्थिति में रहते हैं वैसे ही उन्हें रहने दिया जाता है, सिर्फ मजबूती प्रदान की जाती है। मूर्तिकारों का कहना है कि जिस कोण से मूर्ति को दिखाया जा रहा है, वह ठीक नहीं है, यदि समानांतर देखेंगे तो कमी नजर नहीं आएगी। परंतु यदि मूल मूर्ति और नई मूर्ति को साथ-साथ देखें तो फर्क साफ नजर आता है, खासकर हम जब नई मूर्ति के नथुनों के पास गौर से देखते हैं तो गुस्सा साफ नजर आता है। उनकी यह बात भी विरोधाभासी है कि हम मूर्ति को नीचे से देखकर अपना मत बना रहे हैं। जबकि वास्तविकता तो यही है कि हम सब मूर्ति को नीचे से ही तो देख पाएंगे । 

मूर्ति करीब 110 फीट की ऊँचाई पर लगेगी। तो इसका वास्तविक स्वरूप देख पाना क्या हम सबके लिए संभव है ? दूसरा यह कि इतनी ऊँचाई के बाद तो मूर्ति नहीं दिखेगी उसकी कमोवेश आभासीय छवि ही दिखेगी। इसलिए बात अपने-आप ही बंद हो जाएगी। यह कमी सरदार पटेल की केवड़िया स्थिति मूर्ति पर भी लागू होती है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि राष्ट्रीय प्रतीकों में एक प्रतिशत फेरबदल भी कानूनन स्वीकार्य नहीं हो सकता। बहरहाल हम सब अपने-अपने विचारों को सप्रमाण भी प्रस्तुत कर दें तो भी क्या इस मूर्ति के अस्तित्व पर कोई आंच आएगी ? क्या इसमें परिवर्तन की किसी मांग को स्वीकार किया जाएगा ? शायद नहीं ? ऐसा इसलिए क्योंकि मूर्तिकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री ने उनके कार्य की तारीफ की है।

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यहां प्रश्न उठता है कि जब इस मूर्ति का मिट्टी का मॉडल इसी आकार का बनाकर दिखाया गया था तो उस समय देश-विदेश के महत्वपूर्ण शिल्पकारों से विशेषज्ञ राय क्यों नहीं ली गई। ये कार्य चूंकि सरकार ने नहीं भवन निर्माण कंपनी के माध्यम से हुआ है तो ऐसा किया जाना और भी अधिक आवश्यक हो जाता था। असली बात यह है कि ‘‘डेड लाइन’’ तय करके कार्य करने की अपनी खामियां हैं, खासकर कलात्मक कार्यों के संदर्भ में। इसीलिए तो कहते हैं कि ‘‘ताजमहल ठेके पर नहीं बनते।’’ परंतु वर्तमान व्यवस्था तो इसे भी ठेके पर बना सकती है और गलती होने पर अपने तर्क भी दे सकती है और स्वयं को सही भी सिद्ध कर सकती है।

बुद्धपूर्णिमा को यह लेख लिख रहा हूँ तो बुद्ध की यह बात याद आ रही है, ‘‘वह ऐसा कोई छोटे से छोटा काम भी न करे, जिसके लिए दूसरे जानकार लोग उसे दोष दें। उसके मन में ऐसी भावना होनी चाहिए कि सब प्राणी सुखी हों, सबका कल्याण हो, सभी अच्छी तरह से रहें !’’ भारत सरकार को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि राष्ट्रीय प्रतीक को लेकर जनमानस के मन में उठ रहीं शंकाओं का समाधान हर हाल में किया जाए। ऐसा होगा या नहीं यह तो समय ही बता पाएगा। 

(यह लेखक के निजी विचार हैं)