बिल्किस बानो: अब तो शब्दकोश भी सुन्न पड़ गए हैं

बिल्किस बानो भारतीय गणतंत्र में व्याप्त असहिष्णुता का नवीनतम प्रतीक हैं। वे बदलाव का एक माध्यम भी हैं, क्योंकि उन्होंने डर कर मुँह नहीं छुपाया है। तात्कालिक तौर पर डर को लेकर उनकी प्रतिक्रिया से विचलित न होकर समाज को उनकी सुरक्षा का भार स्वयं पर ले लेना होगा। हमें यह भी समझना होगा कि यह निर्णय भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरुप नहीं है... और यदि यह निर्णय सामाजिक या न्यायिक दोनों ही प्रक्रियाओं से वापस नहीं हो पाता है, तो यह भारत के ‘‘मनुस्मृति’’ से संचालन की दिशा में पहला कदम साबित होगा। इसकी आहट इस कांड में सजायाफ्ता ब्राहमणों को सदचरित होने का प्रमाणपत्र देने से शुरु हो चुकी है

Updated: Aug 22, 2022, 01:13 PM IST

photo courtesy: PTI
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बिल्किस बानो के साथ जो हुआ था, यानी सामूहिक बलात्कार, उनकी आँखों के सामने उनकी तीन साल की लड़की को पत्थर पर पीठ कर, जैसे किसी कपड़े को धोते समय पत्थर या फर्शी पर पीटते हैं, उसी तरह से मार डालना और 14 अन्य रिश्तेदारों को भी मार डालना | याद रखिए बलात्कार के समय बिल्किस को पांच माह का गर्भ था। यह सब करने वाले उसी गांव के लोग थे। उसमें से एक वकील है, एक डाक्टर है। कोई गांव में दुकान चलाता था, वगैरह-वगैरह। बिल्किस ने लंबी, यातनादायी कानूनी लड़ाई लड़ी। एक-एक दुराचारी को पहचाना, उन्हें सजा दिलवाई। परंतु एकाएक जैसे सबकुछ बदल गया। एक तरफ आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से नारी सम्मान का उद्घोष कर रहे थे उधर दूसरी तरफ गुजरात में उस घोष की महज अनसुनी नहीं की गई बल्कि उससे भी ऊँची, भयानक, अश्लील चिंघाड़ के साथ बिल्किस और उसके परिवार के ऊपर अत्याचार करने वालों को माफी दे दी गई। उनकी सजा खत्म कर दी गई। जेल से बाहर आने पर इन ‘‘शूरवीर बलात्कारियों’’ का मिठाई खिलाकर स्वागत हुआ। सम्मानपूर्वक उनके पैर छुए गए। उनका तिलक किया गया। हार पहनाया गया। यह आवभगत व सम्मान भारत की आत्मा पर पिछले 5000 वर्षों में लगी सबसे भयानक चोटों में से एक है।

इस घटना की निंदा के लिए जितने भी शब्द दिमाग में कौंधे वे हल्के मालूम पड़ रहे थे, नाकाफी महसूस हो रहे थे, इस निर्णय की भयानकता, वीभत्सता व निर्लज्जता को ठीक से व्याख्यायित नहीं कर पा रहे थे। लिहाजा पहले हिन्दी शब्दकोश तलाशा, फिर अंग्रेजी शब्दकोष, इसके बाद अंग्रेजी थिसारस और फिर हिन्दी थिसारस, कोई भी शब्द वह व्यक्त ही नहीं कर पा रहा जोकि गुजरात सरकार के इस निर्णय से ध्वनित हो रहा है, संप्रेषित हो रहा है। शब्दकोशों की अपूर्णता का भान पहली बार हुआ और यह भी समझ में आया कि दुख और दर्द को अभिव्यक्त कर पाने की भी सीमा होती है और उसके बाद उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

बिल्किस बानो का कहना है कि “क्या उनके लिए न्याय का अंत हो गया?” निर्भया बलात्कार कांड के बाद जो जन-आक्रोष उठा था उसने भारतीय लोकतंत्र में जनभागीदारी के प्रति आशा जगाई थी। निर्भया की मृत्यु हो गई थी। बिल्किस अभी जिंदा हैं। अन्याय, अत्याचार, वहशीपन व दरिंदगी की साक्षात गवाह है वो ! परंतु भारत चुप है। सिवाय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व वामपंथी दलों के किसी अन्य दल की तीखी प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। आम आदमी पार्टी की भी नहीं, जोकि स्वयं को गुजरात की महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत बता रही है। इस पूरे मामले के कानूनी पहलू उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितनी कि सामाजिक चुप्पी | कानूनी लड़ाई तो बिल्किस ने अकेले के बल पर जीत ही ली थी। तब भी सत्ता उसके खिलाफ थी। परंतु उन्होंने हार नहीं मानी। इसलिए याद रखिए यह जो रिहाई हुई है, यह भारत के 130 करोड़ नागरिकों में से 99.9999 प्रतिशत की प्रत्यक्ष हार है, पराजय है | याद रखिए परस्त्री संबंध, यदि दोनों सहमति से हों तो भी एक शादीशुदा महिला के लिए तलाक का आधार बन जाते हैं। क्या इन बलात्कारियों की पत्नियों को इनके साथ पुनः जीवन बिताने में घिन नहीं आएगी ? इनके बच्चे क्या इनका अभी भी सम्मान करेंगे ? जाहिर है यदि ऐसा होता है और वैसे ऐसा तो हो ही रहा है, तो हमें सोचना होगा कि भारतीय समाज की नैतिकता पाताल से भी नीचे यदि कुछ होता है, तो गिरकर वहां पहुंच गई है।

बिल्किस बानो भारतीय गणतंत्र में व्याप्त असहिष्णुता का नवीनतम प्रतीक हैं। वे बदलाव का एक माध्यम भी हैं, क्योंकि उन्होंने डरकर मुँह नहीं छुपाया है। तात्कालिक तौर पर डर को लेकर उनकी प्रतिक्रिया से विचलित न होकर समाज को उनकी सुरक्षा का भार स्वयं पर ले लेना होगा। हमें यह भी समझना होगा कि यह निर्णय भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरुप नहीं है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना ‘‘सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय’’ के साथ ही साथ ‘‘प्रतिष्ठा और अवसर की समता’’ तथा ‘‘व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता’’ को मूल मंत्र की तरह प्रतिस्थापित करती है। हमें समझ जाना चाहिए कि यदि यह निर्णय सामाजिक या न्यायिक दोनों ही प्रक्रियाओं से वापस नहीं हो पाता है, तो यह भारत के ‘‘मनुस्मृति’’ से संचालन की दिशा में पहला कदम साबित होगा। इसकी आहट इस कांड में सजायाफ्ता ब्राहमणों को सदचरित होने का प्रमाणपत्र देने से शुरु हो चुकी है। उधर मध्यप्रदेश में ब्राहमणों की आलोचना करने पर भाजपा अपने एक वरिष्ठ नेता को बर्खास्त कर देती है। उनके खिलाफ तमाम थानों में लगातार रिपोर्ट करायी जा रही हैं। यह अजीब बात है कि यदि कोई भी सीधी-सीधी कुछ बात कहता है, और यदि वह थोड़ी बहुत आपत्तिजनक भी हो तो संबंधित पक्ष अब उसका जवाब नहीं देते बल्कि सीधे पुलिस में रिपोर्ट करते हैं और पुलिस तुरंत एफआईआर दर्ज कर लेती है।

सभी भारतीयों को और उनमें भी महिलाओं को यह समझना होगा कि वे भले ही किसी भी धर्म, संप्रदाय, समुदाय, या आर्थिक पृष्ठभूमि की हों उन्हें दोयम दर्जा दिए जाने की प्रक्रिया लगातार जारी है। कठुआ हो, उन्नाव हो, हाथरस हो, हैदराबाद हो, बैंगलोर हो, दिल्ली हो या चंबल घाटी, महिलाओं को कहीं भी प्राथमिकता नहीं है। बिल्किस बानो प्रकरण पर न तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन की प्रतिक्रिया आती है न महिला बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी की। राष्ट्रीय महिला आयोग व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की चुप्पी भी डर पैदा कर रही हैं। वैसे तो आजादी के पहले से ही मनुस्मृति बनाम संविधान की बहस शुरु कर दी गई थी। तब भी एक वर्ग था, जो यह कह रहा था कि मनुस्मृति के रहते किसी अन्य संविधान की क्या आवश्यकता है। जिन्होंने भी मनुस्मृति/तियों का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि यह कितनी एकपक्षीय हैं। इनका मूलस्वर ब्राहमणों की पक्षधरता, शूद्र व नारी का तिरस्कार ही है।

इस वक्त जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठ रहा है वह यह कि हम सब लोग बिल्किस बानो वाले मामले में न्याय के लिए न्यायपालिका की ओर अपलक देख रहे हैं। जबकि यह किसी अकेली महिला या लड़की का मामला नहीं है। यह किसी एक परिवार का मामला भी नहीं है और न ही किसी धर्मविशेष का मामला है। यह मामला भारत के प्रत्येक नागरिक से जुड़ा हुआ है। बिल्किस बानो पर यह मामला रुकेगा नहीं | हमें जान लेना भी जरुरी है कि कोई भी राज्य, कोई भी शहर, कोई भी कस्बा, कोई भी गांव, कोई भी मोहल्ला और अधिकांश परिवार इस वक्त सांप्रदायिकता और महिला विरोध की चपेट में हैं। यदि आप गुजरात सरकार के निर्णय के विरोध में कुछ कहते हैं तो तमाम लोगों का गुस्सा उबल जाता है और आप गाली-गलौज के शिकार हो जाते हैं। यह भी सच है कि सरकार का यह निर्णय कानून पर भी खरा नहीं उतर पाएगा। इसके तमाम कारण है, जैसे जब सर्वोच्च न्यायालय ही इस मामले को नृशंस , पैशाचिक, वीभत्स और भयंकर बता चुका है। इसके अलावा उसकी टिप्पणी यह भी है कि इस घटना ने बिल्किस के दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी है जो उसे लगातार पंगु बनाए रखेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि 21 वर्षीय गर्भवती श्रीमती बिल्किस का बार-बार सामूहिक बलात्कार हुआ और उसकी साढ़े तीन साल की बेटी को नृशंसता से मार डाला गया। न्यायालय ने कहा कि 2002 के दंगो में उसके परिवार के सभी 14 सदस्य मारे गए। वह दरबदर भटकती रही और अनाथ का जीवन बिताती रही। इसके बावजूद गुजरात सरकार ने यह निर्णय लिया। गौरतलब है अभी अप्रैल 2022 में न्यायमूर्ति डी वाय चंद्रचूढ़ की पीठ ने कहा था कि राज्य माफी को लेकर (मनमाना) एकतरफा निर्णय नहीं ले सकता। सर्वोच्च न्यायालय हरियाणा, तमिलनाडु आदि राज्यों के ऐसे मामलों पर अपनी स्पष्ट राय दे चुका है। गौरतलब बिल्किस बानो मामले में निर्णय देने वाले बम्बई उच्च न्यायलय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू.डी. साल्वी ने भी गुजरात सरकार के निर्णय की कठोर निंदा की है |

गौरतलब है माफी को लेकर केंद्र सरकार की नीति भी बलात्कार, हत्या, पाक्सो कानून, अवैध ड्रग्स आदि मामलों में माफी के प्रस्तावों को नकारने की बात कहती है। सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मण नास्कर विरुद्ध भारत सरकार वाले मामले में यह तय कर दिया था कि राज्य को किसी को भी माफी देने के मामलों में निम्न पांच बातों का ख्याल रखना होगा। पहला, क्या अपराध किसी एक व्यक्ति का कृत्य है और इससे समाज पर असर नहीं पड़ेगा, दूसरा क्या भविष्य में पुनः अपराध किए जाने की संभावना है, तीसरा क्या अपराधी में अपराध करने की क्षमता समाप्त/नष्ट हो गई है, चौथा, क्या अपराधी को जेल में रखे जाने का उद्देश्य पूरा हो गया है और पांचवां सजायाफ्ता के परिवार की सामाजिक आर्थिक स्थिति। हमें यह साफ समझ में आता है कि जिन 11 लोगों ने यह घृणित अपराध किया था वह समाज के लिए आज भी खतरा हैं। गौरतलब है कि माफी के पहले सिद्धांत उस न्यायालय से संपर्क किया जाना चाहिए जिसने यह निर्णय सुनाया हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न्यायालय का और समाज दोनों का मानना है कि इस तरह के अपराधों को रोकना सरकार की जिम्मेदारी है। परंतु गुजरात सरकार का निर्णय तो इस भावना के ठीक विपरीत ही है। वरिष्ठ अधिवक्ता रेवेका जॉन का कहना है कि सर्वोच्च न्यायलय ने यह निर्णय देने में गलती की है कि गुजरात सर्कार के पास इस मामले में माफी देने का अधिकार है | सन् 2015 के एक निर्णय के अनुसार माफी का निर्णय वही राज्य कर सकता है, जहाँ सजा सुनाई गई हो | वैसे भी गुजरात सरकार को निर्णय अपनी सन् 2014 की नीति के अनुसार  सुनना था क्योकि अपराध की प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है |

भारत की आधी आबादी आज जिस मानसिक संताप से गुजर रही है, वह कल्पनातीत है। उन महिलाओं के मानसिक त्रास की कल्पना कीजिए, जिन्हें बलात्कारियों को तिलक लगाना पड़ रहा है। महात्मा गांधी कहते हैं, ‘‘कल्पना कीजिए एक ऐसी बहन की जिसे एक भी अक्षर नहीं आता है। कहकरा भी नहीं जानती, फिर भी वह अपने काम में मगन रहती है। जो अपना न हो, ऐसे घास के तिनके को भी हाथ नहीं लगाती। स्वप्न में भी चोरी नहीं करती। उससे पूछो ‘‘भागवत क्या है, तो वह तुम्हारा मुँह ताकने लगेगी, लेकिन सब पर ऐसा प्रेम भाव रखती है मानो साक्षात जगदंबा हो।’’ बिल्किस गांधी की वही बहन हैं। वह कानून का ‘क’ भी नहीं जानती थीं, लेकिन खूब लड़ीं और जीतीं । बिल्किस बानों अपनी लड़ाई जीत चुकी है। परन्तु उससे बलात्कार करने वालों और हत्यारों को मिली माफी हमारी यानी भारतीय समाज की आजादी के बाद की एक बड़ी हार है। आजादी के अमृत महोत्सव पर मिली यह माफी इस कुकृत्य की गंभीरता को कई गुना कर देती है।

जरुरत इस बात की है कि बिल्किस बानो की लड़ाई भारत के प्रत्येक नागरिक की लड़ाई बन सके। यह एक कठिन कार्य है। डरा हुआ समाज हमेषा प्रतिक्रियावादी होता है, लेकिन वह अंततः अपने डर का अतिक्रमण भी करता है। संविधान को साकार करना हम सबकी जिम्मेदारी है। धूमिल लिखते हैं ‘‘वह बहुत पहले की बात है/जब कहीं निर्जन में/आदिम पशुता चीखती थी/सारा नगर/चौंक पड़ता था/अब उसे मालूम है कि कविता/घेराव में/किसी बौखलाए हुए आदमी का/संक्षिप्त एकालाप है।’’ हम सबको खुद को बिल्किस समझना होगा। साथ ही उसकी यातना में एक शब्द अपना भी जोड़ना होगा।

सलाम, बिल्किस बानो

(ये लेखक के निजी विचार हैं)