राम चरित्र (भाग2): वाल्मीकि के राम मनुष्य के ईश्वर हो जाने के प्रतीक

राम को अपने वचन पालन के लिये बारंबार कीमत चुकानी पड़ती है। पर आज जो राम को अपना इष्ट मान रहे हैं, उनमें से अधिकांश तो अपने लोगों के अलावा अन्य सभी के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार करते नजर आते हैं। ऐसा विरोधाभास क्यों? वह एक ऐसा आदिकाल था जब राजा को भी दंडित किया जा सकता था और वर्तमान? क्या कहें? सिर्फ विचार करें और अपने निष्कर्ष निकालें।

Updated: Aug 03, 2020, 02:00 AM IST

photo courtesy : Abp live
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वाल्मीकि के राम को उन्हीं के शब्दों में समझें तो, "समुद्र इव गाम्भीये धैपे हिमवानिव" अर्थात राम गहराई से भी गहरे हैं, वे समुद्र जैसे गहरे हैं वे बर्फीले हिमालय की तरह अटल भी हैं। राम भारतवर्ष के दो चरम का एकल प्रतीक हैं। वे सागर की तरह गहरे और प्रवाहमय हैं और दूसरी ओर हिमालय की तरह अटल। ये कैसे संभव है? यह संभव है उनकी न्याय और निष्पक्ष व्यवहार के प्रति सतत् प्रतिबद्धता से। वे कभी अपना संतुलन नहीं बिगड़ने देते और ‘‘धर्म‘‘ से बिना समझौता किए, हमेशा उचित समाधान पर पहुंचते हैं। उनके जीवन के दर्शन को भरत के साथ उनके उस संवाद से समझा जा सकता है जब भरत उन्हें अयोध्या वापस लाने पहुंचते हैं। वे कहते हैं, "मनुष्य का जीवन लगातार उतरते पानी के प्रवाह की तरह होता है। मृत्यु उसकी सतत साथी है। एक पके फल के पास पृथ्वी पर गिर जाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होता।" वे समझाते हैं, हमें अपने कर्तव्य के पथ से विलग नहीं होना चाहिए, न ही अन्याय में लिप्त होना चाहिए। सबको खुशी मिले, आनंद मिले ऐसे कार्य करने से हिचकिचना नहीं चाहिए। ऐसा करने के लिए व्यक्ति को अपने सिद्धांतों पर अडिग रहना होगा अर्थात उसे सत्य पर अडिग रहना चाहिए।

राम अपने इस सिद्धांत पर कभी संशय का मौका नहीं देते। गौर करिए अभी कैकेयी ने वन गमन का अपना दंड सुनाया भी नहीं था। परन्तु राम उनके पास पहुंचकर उन्हें आश्वस्त करते हैं, "मुझे स्पष्ट रूप से वह सब बताइये जो राजा के मस्तिष्क में है। मैं आपको वचन देता हूॅं कि मैं उनके आदेश का पालन करुंगा। राम को दो तरह की बात करने की आदत नहीं है।" (रामो द्विर्ना भिमाषते)। यह राम का शुरुआती कथन है और उनका बाद का पूरा जीवन लगातार इसी तरह के उदाहरणों से अटा पड़ा है। उनका एक पक्ष यह भी है कि वे अभी तो अवतार की भूमिका में अवतरित हुए हैं। वे संपूर्ण देवता नहीं है, उनमें मनुष्य का अंश है और वे देवत्व के बेहद नजदीक हैं। अभी वे मनुष्य भी हैं और ईश्वर नहीं हैं, उनका अवतार हैं। श्रीराम का चरित्र ऐसा है कि जब मामला धर्म के दांव पर लगे होने का हो तो फिर उनके सामने अपनी पत्नी, बेटा, साम्राज्य और यहां तक कि स्वयं का जीवन भी मायने नहीं रखता। हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि एक मनुष्य होने के नाते राम जैसे महान लोग भी सभी के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर पाते, जैसा कि हम सीता और शंबुक के मामले में हुआ है। इससे हम संभवतः यही सबक ले सकते हैं कि जिनसे  आपने संरक्षण व सुरक्षा का वादा किया है उनके प्रति अन्यायपूर्ण होने की बजाय बेहतर यह है कि आप अपनों के प्रति अन्यायपूर्ण हों। राम को अपनी इसी प्रवृत्ति की वजह से, अपने वचन पालन के लिये बारंबार कीमत चुकानी पड़ती है। पर आज जो राम को अपना इष्ट मान रहे हैं, उनमें से अधिकांश तो अपने लोगों के अलावा अन्य सभी के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार करते नजर आते हैं। ऐसा विरोधाभास क्यों? 

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सवाल यह है कि राम को कैसे समझें? वैसे वाल्मीकि रामायण के तीन पाठ हमें उपलब्ध हैं। पहला दाक्षिणात्य पाठ, दूसरा गौड़ीय पाठ और तीसरा पश्चिमोत्तरीय पाठ। बौद्ध, जैन पाठों के अलावा थाइलैंड आदि देशों में रामायण के अपने-अपने पाठ है जो स्थानीय घटनाओं, परिस्थितियों, भौगोलिक जटिलताओं, रीति-रिवाजों के चलते राम के चरित्र को विशालता और व्यापकता प्रदान करते हैं। यहां एक और तथ्य पर गौर करना आवश्यक है। यह तथ्य है समाज में राम के प्रति उत्तरोत्तर बढ़ती आत्मीयता। ऐसी मान्यता है कि वाल्मीकि ने जब रामायण की रचना की तो उसके बाद करीब चार-पांच शताब्दियों तक राम को विष्णु का अवतार न मानकर एक वीर व आदर्शवादी पुरुष ही माना जाता रहा। यह भी माना जाता है कि राम कथा के विकास के तीन ऐतिहासिक चरण हैं। पहले चरण में वे क्षत्रिय पुरुष हैं। दूसरे चरण में अर्थात ईसा की पहली शताब्दी के पहले तक उन्हें विष्णु के अंशावतार के रूप में ग्रहण किया गया और तीसरे चरण में यानी ग्यारहवीं सदी के बाद रामकथा भक्तिभाव से ओतप्रोत होती गई और राम को विष्णु के पूर्ण अवतार के रूप में पूज्यनीय माना जाने लगा। इस धारणा पर मत-मतान्तर हो सकते हैं, और हैं भी, लेकिन इसी के समानांतर यह भी उतना ही सच है कि भारत में पिछले करीब 2500 वर्षों से राम लगातार हमारी संस्कृति व सभ्यता का अविभाज्य अंग बने हुए हैं।

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राम के साथ-साथ हम लक्ष्मण को भी लगातार याद करते हैं। बहुत कम होता है कि राम अकेले याद आते हों। हमें अक्सर राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान याद आते हैं। वैसे आजकल राम से भी ज्यादा उल्लेख लक्ष्मण का हो रहा है। हर तीसरे वाक्य में हमें याद दिलाया जाता है कि लक्ष्मण रेखा को पार नहीं किया जाए। वरना...। यह वरना हमेशा अबोला रह जाता है। परन्तु यह स्पष्ट है कि इसके आशय बहुत सुखकर नहीं हैं। इस मुहावरे की सत्यता को जान लेना भी आवश्यक है। यह इसलिए भी अनिवार्य है कि रामकथा में जो कुछ महिलाओं के अनुकूल नहीं माना जाता है, उसमें "लक्ष्मण रेखा" प्रमुख है और इसका निराकरण होना बेहद जरुरी है। रामायण में कहा है : 

"आर्यपुत्राभिरामोअसो मृगो हरति मनः। आनयैनं महाबाहो क्रीडार्थ नो भविष्यति"

हम सभी स्वर्णमृग वाले प्रसंग को जानते हैं और उसकी छवि हमारे मस्तिष्क व ह्दय दोनों में अंकित है। ज्यादा विस्तार में न जाते रामायण में इन संवादों पर ध्यान डालते हैं। राम के स्वर्णमृग के पीछे चले जाने के बाद सीता को राम के स्वर के समान आर्तनाद सुनाई दिया। उन्होंने लक्ष्मण से राम को ढूंढने जाने को कहा। लक्ष्मण राम के आदेश को ध्यान कर वन नहीं जाते। तब सीता उलाहना देती हैं, "लक्ष्मण, मैं जानती हूॅं कि तुम्हारे मन में मेरे लिए लोभ आ गया है।" लक्ष्मण समझाते हैं कि वह स्वर व शब्द राम के नहीं थे और सभी प्राणी मिलकर भी राम को नहीं मार सकते। वे सीता को अकेले छोड़कर जाने से मना करते हैं। सीता अति क्रोधित होकर लक्ष्मण से कहती हैं, "अरे निर्दयी! मैं खूब समझती हूॅं। संभव है भरत ने तुझे राम के पीछे-पीछे भेजा हो। मैं अपने प्राण त्याग दूंगी लेकिन तेरा या भरत का मनोरथ सिद्ध नहीं होने दूंगी।" लक्ष्मण कहते हैं, "आपकी यह बात मेरे दोनों कानों में तपाये हुए लोहे के समान लगी है। धिक्कार है आप पर जो मुझ पर शक करती हैं। निश्चय ही आपकी बुद्धि आज मारी गई है।" सीता तब और अधिक व्याकुल हो जाती हैं और जीवन समाप्त कर देने की बात करती हैं। अंततः लक्ष्मण कहते हैं, "अच्छा ठीक है, मैं जाता हूॅं। वन में संपूर्ण देवता आपकी रक्षा करें।" ऐसा कहकर वे राम की ओर चल दिए।

लक्ष्मण के जाने के बाद रावण आता है। इस प्रसंग में लम्बे संवाद हैं। रावण व सीता के बीच। वाल्मीकि रामायण में कहा है :

 "सा गृहीताति चुक्रोष रावणेन यषस्विनी। रामेति सीता दुःखार्ता रामं दूरं गतं वने।"

यहां यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि लक्ष्मण ने किसी भी तरह की रेखा बनाकर सीता की गतिविधियों को सीमित नहीं किया था। बाद के काल में उपजी या स्थापित इस मान्यता के आधार पर समाज का एक बड़ा वर्ग पूरी रामकथा को ही प्रश्नों के घेरे में खड़ा करता रहा है।

इसी श्रंखला में एक और स्थापित मान्यता पर निगाए डालते हैं। रामकथा को लेकर यह भी एक लोक मान्यता है कि रावण द्वारा अपहरण कर ली गई सीता को राम द्वारा अपनाने पर प्रजा में संशय बना हुआ था। एक 'धोबी' ने इस बात को हवा दी थी। इस प्रसंग को लेकर वाल्मीकि रामायण में किसी भी जाति विशेष का कोई जिक्र नहीं है। प्रसंग कुछ यूं हैं। राम अपने सखाओं के साथ बैठे हैं और पूछते हैं, "आजकल नगर और राज्य में किस बात की चर्चा विषेष रूप से होती है? लोग मेरे, सीता के, भरत के, लक्ष्मण के, शत्रुघ्न के तथा माता कैकेयी के बारे में क्या-क्या बातें करते हैं।" उनके ऐसा पूछने पर उनका भद्र नामक साथी हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और तमाम प्रशंसात्मक बातें कहने के बाद उसने कहा, (पुरुषवादियों को) एक बात खटकती है- "श्रीराम सीता को घर ले आए। पहले रावण सीता को गोद में उठाकर ले गया। फिर उन्हें उसने अन्तःपुर में रखा तो भी श्रीराम को उनसे घृणा नहीं हुई। अब हम लोगों को भी अपनी औरतों की ऐसी बातें सहनी पड़ेगी। क्योंकि जैसा राजा करता है, वैसा ही प्रजा भी करती है।" भद्र की बात सुनकर राम ने अत्यंत पीड़ित स्वर में अन्य सखाओं से पूछा, "आप लोग मुझे बताएं यह कहां तक ठीक है?" इस पर सबने धरती पर मस्तक टेककर दीनतापूर्ण वाणी में कहा, "प्रभु, भद्र ठीक कह रहा है।" इसके बाद सीता के वन गमन की गाथा हम सब जानते हैं। वह बेहद विमर्श व विवाद का विषय भी रहा है। परन्तु यहां किसी जाति विशेष को लेकर कदाचित कोई टिप्पणी नहीं है। परन्तु भारतीय समाज एक जाति विशेष को लगातार कटघरे में खड़ा करता रहा है। ऐसी तमाम सारी बातें हैं जो मूल रामायण में नहीं हैं। लोक की वजह से ये मान्यताएँ मूल कथानक में न होते हुए भी उसका अविभाज्य मानी जाने लगी हैं। इसीलिए आवश्यक है कि इस तरह के ग्रंथों को उनके मूल स्वरूप के आधार पर समझने का प्रयास किया जाए। साथ ही जिस कालखंड में रचना लिखी गई है, उसका भी ध्यान रखना होगा। उसे समकालीनता से जोड़ने में अतिरिक्त सावधानी भी बरतनी होगी। आज जब लोग छोटी कविताएं तक नहीं पढ़ रहे ऐसे में क्या वे महाकाव्यों को पढ़ने के बारे में सोचेंगे भी? परन्तु इस प्रवृत्ति को बदलना तो होगा।

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वाल्मीकि रामायण एक ध्वनि से प्रारंभ होती है। किलोल के क्रंदन में बदल जाने से। हमारा जीवन भी कमोबेश इसी प्रतीक का एक जीवंत रूप ही तो है। वहीं हम यह भी पाते हैं कि यह आदिग्रंथ या आदि कविता या आदि महाकाव्य केवल मनुष्य नामक जीव की यशोगाथा भर नहीं है। यह सृष्टि परिपूर्णता की यशोगाथा है। इसमें मनुष्य के साथ ही साथ पक्षी, तमाम अन्य जीव जैसे बंदर, मृग व अनेक तरह की वनस्पतियां, नदी, नाले, समुद्र, पहाड़ सब एक साथ है। जो कुछ भी हो रहा है, वह एक सम्मिलित प्रयास है। इसमें सुर भी हैं और असुर भी। असुर में भी तमाम सुर मौजूद हैं और तमाम सुर में भी कुछ असुर दिखाई पड़ते हैं। सुर तो जीवन की लय है। असुर की यह लय टूट गई है। मगर उस लय को पुनः सुरमयी बनाया जा सकता है। वाल्मीकि रामायण यही तो समझा रही है। यह समझाती है कि सृष्टि केवल मानव या मनुष्य के लिए नहीं है यह प्रत्येक प्राणीमात्र की है और यह सहअस्तित्व के बिना गतिशील नहीं रह सकती। हम ध्वनि की बात कर रहे थे। रामायण में पहली ध्वनि क्रोंच पक्षी की है। किलोल व आर्तनाद इस महाकाव्य को रचने की प्रेरणा है।

दूसरी महत्वपूर्ण ध्वनि वह है जब दशरथ यह सोचकर शब्द भेदी बाण चलाते हैं कि तालाब में हाथी पानी पी रहा है, परन्तु वहां एक युवा तपस्वी पानी भर रहा होता है और बाण से मारा जाता है। मरने से पहले श्रवण कुमार कहते हैं, मुझ निरपराध की हत्या से केवल अनर्थ ही हाथ लगेगा। यहां विशेष तौर पर गौर करिए अपने अंतिम क्षणों में भी श्रवण कुमार ने दशरथ से कहा था "मेरे शरीर से इस बाण को निकाल दो और जाकर मेरे माता-पिता को प्रसन्न करो। ताकि वे तुम्हें शाप न दें।" इस विराट मानवीयता को क्या कहेंगे? सब कुछ जान लेने के बाद वृद्ध माता-पिता कहते हैं, "यदि अपना पापकर्म तुम स्वयं आकर न बताते तो तुम्हारे सिर के सैकड़ों-हजारों टुकड़े हो जाते" पुत्र की मृतदेह पर जलांजलि देकर मुनि कहते हैं, "राजन ! जल्दी ही तुम्हें भी ऐसी ही भयानक और प्राण लेने वाली अवस्था प्राप्त होगी।" अब राजा दशरथ की मृत्यु का प्रसंग याद करें। कहने का अर्थ है कि हमारा समाज किस ओर अग्रसर हुआ? उत्थान या पतन? एक ऐसा आदिकाल जब राजा को भी दंडित किया जा सकता था और वर्तमान? क्या कहें? सिर्फ विचार करें और अपने निष्कर्ष निकालें। रामायण में तीसरी ध्वनि है, स्वर्णमृग की। यह ध्वनि सीता का रावण द्वारा अपहरण और युद्ध की भूमिका में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान करती है।

वाल्मीकि रामायण को समझने और वर्तमान परिप्रेक्ष्य से जोड़ने में बहुत सावधानी की जरुरत हैं। यह चरित्रों के उत्तरोतर ऊंचाई प्राप्त करते जाने की गाथा भी है। हमें इसे एक जीवंत इकाई की तरह ही समझना होगा। कविता को जन्म देने वाला यह महाकाव्य अद्भुत लयात्मकता के साथ कुश और लव की इस घोषणा से संपन्न होता है कि, "महर्षि वाल्मीकि द्वारा यह रामायण नामक श्रेष्ठ आख्यान उत्तर काण्ड सहित इतना ही है।" पर इस महाकाव्य से जो सबसे महत्वपूर्ण बात उभरती है, वह यह कि, राम का जन्म तो एक मनुष्य की तरह होता है, लेकिन महानिर्वाण एक ईश्वर की तरह। यह हम सबके साथ भी संभव है।