गणतंत्र दिवस विशेष: संविधान का पुनरावलोकन नहीं पुनर्पाठ जरुरी

भारत के संविधान के 75 साल पूरा होने का समारोह मनाया जा रहा है या यह भारत के गणराज्य होने का 75वां वर्ष है? वैसे तो यह दोनों पर्यायवाची से लगते हैं, लेकिन इस मूलभूत तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि संविधान की स्वीकार्यता ने हमें गणराज्य बनाया वरना आजाद तो हम 15 अगस्त 1947 को हो गये थे।

Updated: Jan 26, 2025, 12:09 PM IST

समाज के संभ्रांत लोगों में जिनके घरों में आँसुओं से गुंधी रोटियां खाने की मज़बूरी नहीं होती, राजनीतिक भ्रष्टाचार की चर्चाएं अति आवश्यक चटखारा होती हैं जिससे मध्यमवर्गीय जीवन की एकरसता मिटाई जाती है। इस वर्ग के “फील गुड” के लिए स्केंडल उतना ही अपरिहार्य है जितना इसकी कारों के लिए चिकनी-चमचमाती सड़कें। वर्तमान व्यवस्था इन दोनों की आपूर्ति में जुटी है।” :- सच्चिदानंद सिन्हा

भारत के संविधान के 75 साल पूरा होने का समारोह मनाया जा रहा है या यह भारत के गणराज्य होने का 75वां वर्ष है? वैसे तो यह दोनों पर्यायवाची से लगते हैं, लेकिन इस मूलभूत तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि संविधान की स्वीकार्यता ने हमें गणराज्य बनाया वरना आजाद तो हम 15 अगस्त 1947 को हो गये थे। अतः भारत का गणराज्य में परिवर्तित होना स्वतंत्र होने से कमतर नही बल्कि कई मायनों में उससे आगे की स्थिति है। वस्तुतः संविधान के माध्यम से गणराज्य बन जाने के बाद ही भारत एक परिपूर्ण राष्ट्र के रूप में स्थापित हो पाया और उसने अपने भविष्य की परिकल्पना आरंभ की। 

भारत की संविधान सभा के पूर्णतया चयनित न होने के बावजूद उसके सदस्यों की लोकतंत्र संबंधी विलक्षण समझ ने भारत को संभवतः दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान प्रदान किया। इतने बरसों बाद जब भारतीय समाज विचार को अपनाने के बजाए, उसे महज समारोहित करने में विश्वास करने लग गया है तो यह अनिवार्य हो जाता है कि हम भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान में अधिनायकवाद की ओर प्रवत्त स्वरूप को बदलने की ओर ध्यान देना आरंभ करें।  

पिछले कुछ वर्षों से कांग्रेस और उसमे भी विशेषकर राहुल गांधी ने संविधान को लेकर गंभीर एवं सार्थक बहस छेड़ी अवश्य है और पिछले लोकसभा चुनावों में उसका प्रतिफल कुछ हद तक सामने आया भी है। लेकिन अब इस मुहीम का एक सामाजिक राजनीतिक आंदोलन में बदलना आवश्यक हो गया है। अतएव संविधान का “पुनर्पाठ” करना आवश्यक है। जबकि भटकाने वाले तत्व अब संविधान के “पुनरावलोकन” की बात को ज्यादा जोर से उठा रहे हैं। दरअसल इस वक्त भारतीय राजनीति में नीति और नैतिकता की पुर्नस्थापना की आवश्यकता है। 

महात्मा गांधी ने कहा है, “पहले मैं अपने प्रिय के लिए श्री, यश, आयु, विद्या की प्रार्थना करता था, लेकिन अब प्रार्थना करता हूँ कि उसकी नैतिकता बनी रहे।” भारत में लोकसभा चुनावों ने जो आशा हमें बंधाई थी वह हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में टूटती सी नजर आई है। यहां भी बड़ा सवाल नैतिकता का ही है। हमारे समाज पर अनैतिकता लगातार हावी होती जा रही है। सत्ताधारियों द्वारा जिन नीतियों के सहारे देश को चलाया जा रहा है, वह संविधान के अनुकूल नहीं दिखाई पड़ रही हैं। 

गांधी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "हे खुदा! नीति को छोड़कर मुझे किसी और दूसरे खुदा की आवश्यकता नहीं है। नीति नींव टूट जाए तो धर्म रूपी महल धराशाही हो जाएगा।" भारत में जिस स्तर पर अनीति की व्यापकता और व्याप्तता है, वह सचमुच डराने लगी है। तकरीबन सभी संवैधानिक संस्थाएं आज विश्वास के संकट से गुजर रहीं हैं और एक देश एक चुनाव तो भारतीय संसदीय प्रणाली के लिए दु:स्वप्न ही साबित होगा। 

पुरातन ग्रीम दार्शनिक थ्युसीडाईडस (431-407 ईसापूर्व) “पेरीक्लीज फ्यूनरल ओरेशन (Pericles’s FunalalOration पेरीर्क्लीज का अंतिम संस्कार भाषण) में भी कहते है, “नीति तय करने वाले लोग तो थोड़े से ही होते हैं, मगर उनका खरा खोटापन देखना, जानना, कहना हर आदमी का काम और हक़ है।” इस कथन के ठीक ढाई हजार साल बाद आज भारत में तो बोलने की आजादी पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है, और भारतीय जनता “अपना काम और हक़” दोनों ही भुला बैठी है। इस विस्मृति को पुनः स्मृति में कैसे लाया जाए?

भारतीय संविधान के लागू होने के 75 वे वर्ष के संदर्भ में संसद के दो दिवसीय विशेष अधिवेशन की घोषणा के बाद उम्मीद जागी थी कि शायद कुछ सकारात्मक सामने आएगा। पंरतु दोनों सदनों में कमोवेश गिने चुने भाषण ही संविधान को लक्षित थे। अधिकांश या तो परस्पर निंदा या स्वप्रशंसा में सिमटकर रह गये। एक भी महत्वपूर्ण राजनीतिक या सामाजिक प्रश्न या उत्तर इन संवादों से उभरकर सामने नहीं आया। इतनी राजनीतिक अज्ञानता की उम्मीद भारतीय राजनीतिज्ञों से नहीं थी। 

विनोबा ने राजनीतिक प्रश्न के संदर्भ में सन 1942 में “स्वराज्य शास्त्र” में लिखा है, “अगर संसार में एक ही मनुष्य होता, तो उसके सामने राजनीतिक विचार का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। सिर्फ इतना ही सवाल होता कि अपना जीवन चलाने के लिये वह आसपास की सृष्टि का कितना और कैसा उपयोग करे। लेकिन मनुष्यों का तो एक समूह विद्यमान है। अर्थात इस प्रश्न के अलावा कि सृष्टि पर अधिकार कैसे किया जाए, एक दूसरा भी उतनी ही महत्व का प्रश्न शेष रह जाता है। वह यह कि आपस में व्यवस्था कैसे कायम की जाए? इसी दूसरे प्रश्न में से हम जिसे “राजनीतिक विचार” कहते हैं, उसका उद्गम होता है।” 

भारतीय संविधान उसी “राजनीतिक प्रश्न” का परिपूर्ण उत्तर या कहें तो उचित समाधान है। इसीलिये संविधान पूज्यनीय नहीं पठनीय है। गुरु गोविंद सिंह ने 3 नवंबर 1708 को गुरुग्रंथ साहिब को सिखों का जीवित गुरु घोषित किया था। भारत ने भी 26 जनवरी 1950 को अपने जीवित अथवा जीवंत संविधान को अंगीकार किया था। भारतीय संविधान को एक लोक संविधान के रूप में स्थापित करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। 

पंडित नेहरू ने कहा है, "जब तक व्यक्ति नहीं बढ़ता, उसका विकास नहीं होता, मुझे तो प्रगति का कोई मतलब ही समझ में नहीं आता। यह व्यक्तिगत प्रगति तब तक नामुमकिन है, जब तक उसे जितना आजादी अपनी बात कहने की है, उससे और ज्यादा आजादी नहीं मिलती। और इसके साथ ही उस ख्याल के मुताबिक अपने ही ढंग से काम करने का मौका नहीं मिलता।”

चूंकि भारतीय संविधान गांधी की नीति मार्ग की अभिव्यक्ति होने के समनांतर विनोबा के “राजनीतिक प्रश्न” और नेहरू की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रश्न का समाधान भी प्रस्तुत करता है अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि भारत की शासन चलाने के लिये भारतीय संविधान का एकमात्र न्यायिक या वैधानिक आधार बनाया जाए। वहीं, अंबेडकर जब इस संविधान को बजाए फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धांतों से जोड़ने के बुद्ध की शिक्षाओं से जोड़ते हैं तो संविधान की भारतीय आत्मा और अधिक पुष्ट हो जाती है। तभी तो वे कहते हैं, “हमारा राजनीतिक दर्शन तीन शब्दों में निहित है स्वतंत्रता, समता, और बंधुत्व। लेकिन कोई यह न कहे कि हमने इसे फ्रांसीसी क्रांति से ग्रहण किया है। मैंने ऐसा नहीं किया है। मेरे दर्शन की जड़े धर्म में हैं न कि राजनीति शास्त्र में। मैंने उन्हें अपने स्वामी बुद्ध की शिक्षाओं से ग्रहण किया है। उनकी शिक्षा में स्वतंत्रता और समता का एक स्थान है। लेकिन उन्होंने मैत्री को सबसे ऊँचा दर्जा दिया है, क्योंकि मैत्री ही वह मूल्य है, जो स्वतंत्रता और समता के मूल्यों की हिफाजत कर सकता है। मैत्री भाईचारे का या मानवता का ही दूसरा नाम है और यही धर्म का दूसरा नाम है।”

गांधी, विनोबा, नेहरू और अंबेडकर एक ही स्तर पर जाकर भारतीय समाज के उत्थान को लेकर एकमत होते स्पष्ट दिखाई देते हैं और भारतीय संविधान इसको भलिभांति परिलिक्षित भी करता है। भारतीय संविधान की सर्वोच्चता को उनके इस कथन से और बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। “भिक्खु संघ का संविधान बेहद लोकतांत्रिक संविधान था। वे (बुद्ध) भिक्खुओं में ही एक थे। ज्यादा से ज्यादा वे कैबिनेट के सदस्यों के बीच प्रधानमंत्री की हैसियत के थे। वे कभी तानाशाह के रूप में पेश नहीं आए। उनके निर्वाण से पहले दो बार यह प्रस्ताव आया कि किसी को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें, ताकि वह उसका नियंत्रण कर सके। लेकिन हर बार उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि संघ का सर्वोच्च नेतृत्व तो धम्म के पास है। उन्होंने तानाशाह बनने और तानाशाह नियुक्त करने से इनकार कर दिया।”

उपरोक्त उदाहरण के मद्देनजर या स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संघ में संविधान को वही सम्मान और स्थान प्राप्त है, जिसे बुद्ध “धम्म” या धर्म कह रहे हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखना ही भारत की सार्वभौमिकता को अक्षुव्य बनाए रखना है। भारत का वर्तमान स्वरूप बनाए रखने का सबसे बड़ा और एक तरह से एकमात्र श्रेय से भारतीय संविधान को दिया जा सकता है। इसकी परिपूर्णता ही भारतीय संघ की सबसे बड़ी उपलब्धि है। मगर आज देश थोड़ा बहुत भी तानाशाही की ओर झुकता नजर आ रहा है, तो उसकी वजह है, शासन वर्ग का संविधान में घटता विश्वास। 

अतएव यह आवश्यक है कि भारतीय समाज और राजनीतिक विपक्ष इस परिस्थिति को समझे और इससे जूझने के लिए स्वयं को तैयार और तत्पर करें। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी और कार्यग्रहण करने के पहले ही दिन जारी आदेश बता रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र को अब स्वयं को वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक समाज के समक्ष एक उदाहरण की तरह प्रस्तुत करना होगा। अमेरिका में जिस तरह थर्ड जेंडर के अस्तित्व को नकारा गया वह आश्चर्य नहीं शर्म का विषय है। यह एकमात्र निर्णय हमें बता रहा है कि अमेरिकी समाज में लोकतांत्रिक मूल्य नष्ट होते जा रहे हैं। यह वैश्विक लोकतंत्र की सेहत के लिये अच्छा संकेत नहीं है। वहीं भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51, अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के अभिवृद्धि को समर्पित है। शांति बिना मैत्री के संभव नहीं है और मैत्री बिना प्रेम के घट ही नहीं सकती। इसलिए भारतीय संविधान वर्तमान वैश्विक परिदृष्य में भी एक आदर्श की तरह उभरता है।

हमें यह स्पष्ट तौर पर स्वीकारना होगा कि भारतीय संविधान पर आया संकट भारत राष्ट्र पर मंडराता संकट ही है। अपनी 75 वर्षों की यात्रा में इसके माध्यम से भारत ने एक ऐसे सुगठित समाज की रचना की है, जो की एक समय अकल्पनीय सा जान पड़ता था। अमेरिकी इतिहासकार हेनरी कामगर का कहना है, कि प्रजातंत्र में प्रति प्रश्न, छानबीन, विरोध, इनकार, मिलना जुलना, शिक्षण, विज्ञान, राजनीति यानी स्वातंत्र्य को सार्थक और सिद्ध करने वाली जितनी बातें हैं - उन सबको किसी हवाई अधिकार की शक्ल में नहीं, एक जबरदस्त जरूरत के रूप में बढ़ावा दिया जाए।” 

वे मानते हैं, “विरोध को बढ़ावा देना कोई वाणी-विलास नहीं है और न किसी गैर जरूरी कल्पना को ढील देना है और यह किसी तरह के मानसिक तनाव को कम करने के ख्याल से आजमाया जाने लायक नुस्खा ही है। यह एक तरह से जीवन मरण का प्रश्न है। साहस एक निजी, नितांत व्यक्तिगत चीज है और इसमें भी विचार को व्यक्त करने का व्यक्तिगत साहस। अंत में सारे साहस इससे जनमते फूटने और छूटते हैं।”

भारतीय संविधान इसलिए उद्देशिका में व्यक्ति की गरिमा और बंधुता को प्राथमिकता देता है। स्पष्ट ही इसके अनुच्छेद 12 से 30 तक में वर्णित मूल अधिकार हमें अपनी व्यक्तिगत आजादी उपलब्ध कराते हुए राष्ट्र निर्माण में प्रत्येक भारतीय की भागीदारी को सुनिश्चित करते हैं। इसी तरह महात्मा गांधी और पं. नेहरू जैसे हमारे मार्गदर्शकों ने जिस तरह अपने विचारों की साहसपूर्ण अभिव्यक्ति की है, उसी का परिणाम भारतीय संविधान के वर्तमान स्वरूप में हमारे सामने आता है। संविधान सभा में जिन विविध विचारधाराओं के प्रतिनिधि शामिल थे, उनमें सर्वानुमति के नजदीक पहुंचना कोई चमत्कार नहीं बल्कि हमारे राष्ट्र निर्माताओं की भारत के भविष्य के प्रति प्रतिबद्धता के कारण संभव हो पाया। 

आज बिरले ही लोग अपने व्यक्तिगत विचारों को साहस के साथ सामने ला पा रहे हैं। इसके बावजूद संविधान को लेकर चल रही बहस ने इसके प्रति जिज्ञासा को पुनः केंद्र में लाने में सफलता पाई है। बहरहाल यह दौर हर लोकतांत्रिक विचार पर प्रहार का दौर है और भारतीय संविधान भी इससे अछूता नहीं रह सकता। परंतु हमें विश्वास करना चाहिए कि इस पर पड़ने वाली हर चोट इसे और मजबूती प्रदान करेगी। 13 दिसंबर 1946 को संविधान समिति के उद्देश्यों और ध्येय को स्पष्ट करने का प्रस्ताव रखा गया था। इसे लेकर बहस कटु होती जा रही थी। तभी अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने अंबेडकर से इस पर बोलने को कहा। 

अपनी लंबी तकरीर के अंत में उन्होंने बर्क की बातों को दोहराते हुए कहा था, “शासनाधिकार सौंपना तो सरल बात है, मगर समझदारी देना कठिन बात है। सबको अपने साथ लेकर आगे बढ़ने और आगे चलकर हमारी एकता बलवान हो, ऐसा मार्ग अपनाने की हममें क्षमता है, शक्ति है तथा बुद्धिमता है। इसे हम अपने व्यवहार से सिद्ध करने का प्रयास करें” । वर्तमान में समय का चक्र थोड़ा उल्टा घूम गया है। आज करीब 80 बरस बाद बर्क के कथन पर पुनर्विचार कर उस पर अमल करना जरूरी होता जान पड़ रहा है।

अंत में बापू की प्रिय पंक्तियां जिन्हें तुलसीदास ने लिखा था, 
"दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान,
तुलसी दया न छाँड़िये, जब तक घट में प्राण।।"