हवा की सांसें उखड़ने लगीं, और हम चुप हैं

वायु प्रदूषण सिर्फ स्वास्थ्य की समस्या नहीं, यह सामाजिक असमानता का आईना भी है। सबसे गंदी हवा वही लोग सांस में लेते हैं जो इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, गरीब परिवार, सड़क किनारे रहने वाले लोग, औद्योगिक क्षेत्रों के पास बसे समुदाय और मेहनतकश मजदूर।

Updated: Dec 14, 2025, 01:22 PM IST

वायु प्रदूषण आज हमारे समय का सबसे मौन लेकिन सबसे घातक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बन चुका है। शहर हों या गांव, हर जगह हवा में घुले अदृश्य जहरीले कण, जैसे औद्योगिक धुआं, वाहनों का उत्सर्जन, थर्मल पावर प्लांटों की राख और घरेलू ईंधन का धुआं लोगों की सांसों पर भारी पड़ रहे हैं। सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि लोग बिना शोर-शराबे के बीमार हो रहे हैं। न इसका दर्द तुरंत दिखता है, न इसकी मार तत्काल महसूस होती है, लेकिन शरीर को भीतर से खोखला करने की इसकी क्षमता बेहद तेज है। आज हवा में घुला जहर केवल पर्यावरण संकट नहीं, बल्कि मानव स्वास्थ्य पर चल रहा एक धीमा हमला है। वायु प्रदूषण को रोकना अब केवल पर्यावरणीय आवश्यकता नहीं रहा,यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति बन चुका है।

प्रदूषण और सामाजिक असमानता
वायु प्रदूषण सिर्फ स्वास्थ्य की समस्या नहीं, यह सामाजिक असमानता का आईना भी है। सबसे गंदी हवा वही लोग सांस में लेते हैं जो इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, गरीब परिवार, सड़क किनारे रहने वाले लोग, औद्योगिक क्षेत्रों के पास बसे समुदाय और मेहनतकश मजदूर।

सांस की बीमारियां जैसे अस्थमा, सीओपीडी, खांसी, ब्रोंकाइटिस अब हर घर की सामान्य शिकायत बनती जा रही हैं। दिल और दिमाग पर इसका प्रभाव और भी घातक है। हवा में मौजूद सूक्ष्म कण रक्त में घुलकर दिल का दौरा, उच्च रक्तचाप और स्ट्रोक का जोखिम बढ़ा देते हैं।

वायु प्रदूषण की सबसे ज्यादा मार बच्चों पर पड़ती है। उनके विकसित होते फेफड़े प्रदूषित हवा सहन नहीं कर पाते, जिससे जीवनभर के लिए फेफड़ों की क्षमता कम हो जाती है। बुजुर्ग और गर्भवती महिलाएं भी अत्यधिक जोखिम में रहती हैं, क्योंकि उनकी कमजोर प्रतिरोधक क्षमता हवा में मौजूद सूक्ष्म विषैले कणों से प्रभावी ढंग से लड़ नहीं पाती।

चौंकाने वाले वैश्विक और राष्ट्रीय आंकड़े

विश्व स्वास्थ्य संगठन के जलवायु, पर्यावरण और स्वास्थ्य विभाग के अनुसार, वायु प्रदूषण से हर साल विश्व में लगभग 90 लाख मौतें होती हैं। नवंबर में प्रकाशित लैंसेट की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में 17 लाख मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं।यह संख्या 2010 की तुलना में 38 प्रतिशत अधिक है।इनमें से 7.5 लाख मौतों के लिए जीवाश्म ईंधन जिम्मेदार है।अकेले कोयले से लगभग 4 लाख मौतें हुईं हैं। वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन से जुड़े वायु प्रदूषण के कारण 25.2 लाख मौतें दर्ज की गईं।

ये निष्कर्ष ऐसे समय में आए हैं जब दिल्ली और उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा फिर से घने शीतकालीन धुंध की चपेट में है। दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 360 के पार पहुंच चुका है। कई इलाकों में पीएम 2.5 स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन की तय सुरक्षित सीमा से 20 गुना अधिक दर्ज किया गया है।

स्वास्थ्य प्रभाव: जमीनी साक्ष्य

हरियाणा में वायु प्रदूषण के कारण प्रीमेच्योर डिलीवरी के मामलों में वृद्धि देखी गई है। पीजीआई रोहतक की गायनी विभाग की अध्यक्ष डॉ. पुष्पा दहिया के अनुसार, एक वर्ष में 13,500 डिलीवरी हुईं है। इनमें से 18 प्रतिशत (2,430 बच्चे) प्रीमेच्योर जन्मे हैं। इसका प्रमुख कारण प्रदूषण बताया गया है। राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान द्वारा कोयला खदानों के पास रहने वाले 1,202 लोगों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि 14.3 प्रतिशत श्रमिकों, 10 प्रतिशत पर्यवेक्षक कर्मचारियों और 7.8 प्रतिशत स्थानीय निवासियों के फेफड़ों का कार्य असामान्य था। एक्स-रे में फेफड़ों में फाइब्रोसिस के मामले भी सामने आए हैं।

कानून और नीतियां: कागज़ पर मजबूत, जमीन पर कमजोर

भारत में वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए कई कानून मौजूद हैं। वायु (रोकथाम और प्रदूषण का नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत केंद्र और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को निगरानी और कार्रवाई की शक्तियां दी गई हैं।2019 में शुरू किया गया राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) देश का सबसे बड़ा केंद्र-स्तरीय प्रयास है, जिसका लक्ष्य 131 शहरों में पीएम 10 स्तर को 40 प्रतिशत तक कम करना है। हालांकि, 2019–2025 के बीच जारी 11,211 करोड़ रुपये में से केवल 68 प्रतिशत (7,594 करोड़ रुपये) का ही उपयोग हो पाया है।

मध्य प्रदेश: बढ़ता प्रदूषण, घटती जवाबदेही

मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2024–25 की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के 29 जिला मुख्यालयों की हवा पिछले वर्ष की तुलना में और खराब हुई है। इसमें इंदौर जैसे “स्वच्छ शहर” भी शामिल हैं। आदिवासी बहुल जिलों अलीराजपुर, डिंडोरी, उमरिया, बैतूल में भी एक्यूआई लगातार बढ़ रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश के 131 शहरों को नॉन-अटेनमेंट( वायु गुणवत्ता का अनुपालन नहीं करने वाला शहर) सिटी घोषित किया है। मध्य प्रदेश के भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर, उज्जैन, सागर और देवास इस सूची में शामिल हैं।

विकास बनाम पर्यावरण: पेड़ों की कीमत पर योजनाएं

राज्य सरकार ने शहरों में प्रदूषण कम करने के लिए नगर वन योजना को पुनर्जीवित करने की घोषणा की है, जिसके तहत पांच वर्षों में 500 करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं। लेकिन दूसरी ओर,भोपाल में 27,000 पेड़ काटने का प्रस्ताव विरोध के बाद रद्द हुआ।अयोध्या बायपास विस्तार के लिए 8,000 पेड़ों की कटाई पर विरोध। जबलपुर, सागर, रायसेन और मंडला में अवैध या नियमविरुद्ध पेड़ कटाई के मामलों पर हाईकोर्ट और एनजीटी को हस्तक्षेप करना पड़ा है। ये उदाहरण दिखाते हैं कि विकास की अंधी दौड़ में पर्यावरणीय संतुलन लगातार नज़र अंदाज किया जा रहा है।

निष्कर्ष: अब चुप्पी अपराध है

उद्योग, शहरीकरण और उपभोग को अनियंत्रित रूप से बढ़ाते हुए हमने हवा, पानी और मिट्टी तीनों को प्रदूषित कर दिया है। वायु प्रदूषण अब भविष्य की नहीं, आज की आपदा है। अगर संसद, सरकार और समाज ने इसे स्वास्थ्य आपातकाल की तरह नहीं लिया, तो इसकी कीमत हमें सांसों से चुकानी पड़ेगी।

(लेखक राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं।)