विश्व पर्यावरण दिवस: हर शहर में डेथ वैली, बहुत भारी है यह शहरीकरण
गांवों से शहरों की ओर पलायन केवल सामाजिक समस्या नहीं है बल्कि यह आर्थिक, प्रशासनिक और शासन स्तर की समस्या है। वैसे ही वनों का कम होना, प्रदूषण का बढ़ना, कचरे का ठीक से निपटारा नहीं होना, वाहनों का बढ़ना, शहरों का सही नियोजन नहीं होना जैसे कारण है जिसमें वृहत तौर पर शासन-प्रशासन की नीतियां दोषी हैं तो व्यक्तिगत स्तर पर समाज की जिम्मेदारी भी है।
यह उपलब्ध्यिों के बखान का समय है तो एक अनूठी उपलब्धि का उल्लेख करता हूं। अमेरिका के नेवाडा राज्य के दक्षिण पश्चिम में कैलिफोर्निया के पास बने एक रोड को अंतरिक्ष से देखा जा सकता हैं क्योंकि 225 किलोमीटर लंबे इस रोड पर एक भी मोड़ नहीं है। रोड इतनी अच्छी है कि यहां गति की कोई सीमा नहीं है। जो जितनी चाहे उतनी तेज रफ्तार से गाड़ी चला सकता है। बेहतर और मनचाही होने के बाद भी इस उपलब्धि पर फख्र नहीं होता, शर्म आती है।
दुनिया के सबसे गर्म क्षेत्र में बनाई गई यह खूबसूरत सड़क जानलेवा हो गई क्योंकि इसके आसपास कोई पेड़ नहीं है, न दूर-दूर तक कोई इंसान दिखाई देता है। इस नेशनल पार्क से गुजरते समय प्रकृति के कई नजारे दिखाई देते हैं लेकिन अधिक तापमान होने के कारण यहां से गुजरने वाले यात्रियों के शरीर में पानी की कमी भी हो जाती है और यह डिहाईड्रेशन जान ले लेता है। इसी कारण यह सड़क डेथ वैली के रूप में कुख्यात हो गई है।
जरा सोचिए, हम भी तो अपने देश में ऐसी ही सड़कों की वकालत कर रहे हैं। उन्हें पसंद कर रहे हैं। यूं तो यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हमें रोज की बात करनी चाहिए, इस संकट के कारणों और इससे निपटने के उपायों पर काम करना चाहिए लेकिन 5 जून तो एक खास दिन है जब हम विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं। इस दिन तो हमें इस मुद्दे पर अवश्य ही जरा ठहर कर विचार कर लेना चाहिए। आमतौर पर देखा यह गया है कि पर्यावरण को लेकर हमारी फिक्र मौसमी ही है। ज्यादा गर्मी होती है तो हम बारिश मांगने लगते हैं। बारिश होती है तो धूप चाहिए। सर्दी होती है तो गर्मी की चाह होती है। इस चाहत ने इंसानों से ऐसे काम करवाए हैं कि समूची प्रकृति को ही भटका दिया है।
जैसे, इनदिनों जब अधिकांश शहर में पारा 45 डिग्री से आगे पहुंच गया था तब हमें पेड़ों का ख्याल आया। हमें अचानक विचार आया कि शहरों में हरियाली उजाड़ी जा रही है और पौधे लगाए जाने चाहिए। मगर यह विनाश क्यों और किसके लिए किया गया है जैसे सवालों पर मौन साध लेते हैं क्योंकि हरियाली खत्म करने का सारा काम तो हमारे लिए सुविधा और विकास के नाम पर होता है।
पैसा फेंक सुविधा जुटाओ सोच वाली पीढ़ी ऐसे विकास में कोई बुराई भी नहीं मानती है। उन्हें रफ्तार देने वाली सड़कें चाहिए, तेज गति वाला नेटवर्क, पानी खरीद कर पी लेंगे और हवा साफ करने के लिए मशीन लगा लेंगे। लेकिन वे यह बात भूल जाते हैं कि सुविधा के लिए वे जितना भुगतान कर रहे हैं, उस विकास के लिए पूरे समाज को मोटी कीमत चुकानी पड़ रही है। नई बन रही एट लेन जैसी सड़कों को देखिए, सारा माजरा समझ आ जाएगा। कुछ साल पहले तक सड़कों के आसपास घने पेड़ हुआ करते थे। धीरे-धीरे सड़कें चौड़ी होती गई और पेड़ गायब। हरियाली सेंट्रल वर्ज में दिखावटी पौधों में तब्दील हो कर रह गई। अब बेहतर सड़कें हैं: चौड़ी, बिना बाधा वाली, कोई गति सीमा नहीं। रास्ते के सारे पेड़ हटा दिए गए हैं। पहाड़ों को मिटा दिया गया है। सड़कों को शहर, गांवों से दूर कर दिया गया है। राह के गांव, शहर दूर हुए तो स्थानीय सांस्कृतिक विविधता, आहार परंपरा सब दूर हो गए।
चकाचक सड़कों पर मिलते हैं टोल टैक्स गेट और तय कैफेटेरिया जहां के दाम और खाना सब ऊंचे दाम वाला है। राह में दिखाई देते हैं सिर्फ फर्राटा भरते वाहन। यह एक उदाहरण काफी है कि किस तरह विकास की चाह शहरों, गांवों और देश का पर्यावरण बिगाड़ रही है। पर्यावरण का यह बोझ आबादी की सांसों पर भारी पड़ रहा है। गांव खाली हो रहे हैं और शहर बर्बाद। कई अध्ययनों से साफ हुआ है कि जैसे-जैसे पलायन बढ़ता है, शहरों में संसाधनों, बुनियादी ढांचे और सेवाओं की मांग बढ़ती है।
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक पूरे विश्व में कुल आबादी के 68 प्रतिशत लोग शहरी क्षेत्रों के निवासी होंगे। 2026 में भारत की शहरी आबादी में 36 फीसदी की वृद्धि होने की संभावना है। भारत की 75 फीसदी से अधिक शहरी आबादी केवल 12 प्रमुख शहरों में रहती है। 2011 में दस लाख या उससे अधिक की आबादी वाले 53 शहर थे। तथ्य है कि ऐसे शहरों की संख्या 2031 तक बढ़कर 87 हो जाएगी। तथ्य यह भी है कि निकाय शहरी आबादी को उनकी संख्या और मांग के अनुसार सुविधाएं उपलब्ध ही नहीं करवा पा रहे हैं।
इस बढ़ती आबादी के लिए शहरों में जगह कम है तो खेत और हरियाली ही दांव पर लगेगी और शहरों पर बढ़ता भार प्रदूषण, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि, संसाधनों के अत्यधिक दोहन, बाढ़, सूखा और अन्य पर्यावरणीय आपदाओं के जोखिम को बढ़ाने वाला है। बड़े ही नहीं छोटे शहरों में भी जीवनशैली में आए बदलावों के कारण स्वास्थ्य समस्याएं तेजी से बढ़ रही है।
अध्ययन यह भी बताते हैं कि केवल जलवायु परिवर्तन ही हमारे शहरों को गर्म नहीं बना रहा है बल्कि बढ़ती गर्मी का कारण शहरीकरण अधिक है। जर्नल नेचर सिटीज में प्रकाशित आईआईटी भुवनेश्वर का एक अध्ययन बताता है कि गांवों की तुलना में देश के शहर लगभग दोगुनी दर से गर्म हो रहे हैं। यह अध्ययन एक तरफ दिन में तापमान बढ़ने की जानकारी देता है तो सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) का अध्ययन बताता है कि भारत के शहर रात में उतने ठंडे नहीं हो रहे हैं जितने इस सदी की शुरुआत में यानी वर्ष 2001 से 2010 के दौरान हुआ करते थे।
यहां यह गौर करना होगा कि गर्मी की मार का संबंध सिर्फ बढ़ते तापमान से ही नहीं है बल्कि हवा का तापमान, भूमि की सतह का तापमान और सापेक्ष आर्द्रता मिलकर हीट स्ट्रेस यानी गर्मी के प्रभाव को बढ़ाते हैं। सड़कों पर बढ़ते वाहन प्रदूषण के साथ गर्मी भी बढ़ा रहे हैं। इसी वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2020 में विश्व में 4.2 लाख असामयिक मृत्यु दर्ज की गई थीं। कचरा प्रबंधन भी सबसे बड़ी समस्या है। खतरनाक अपशिष्ट के निराकरण की अब तक सुनियोजित व्यवस्था ने आकार नहीं लिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमान है कि विश्व स्तर पर 80 फीसदी अपशिष्ट नदियों और महासागरों में फेंक दिया जाता है।
यह तथ्य मैं कोई पहली बार नहीं बता रहा हूं। आप पिछले कई सालों से इनके बारे में पढ़ते, सुनते आए हैं। होना था कि हमारी कोशिशों से स्थितियां सुधरनी चाहिए थी लेकिन उम्मीद के विपरीत संकट और गहरा गया है और निपटने के साधन बौने साबित हो रहे हैं। जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा है गर्मी के मौसम में पेड़ की चिंता करना जैसा मौसमी उपाय की काफी नहीं है। हम आज पौधरोपण करेंगे तो उसके परिणाम दस साल बाद दिखाई देंगे। जैसे कि मानव समाज द्वारा अतीत में किए गए कार्यों का दुष्परिणाम अब दशकों बाद सामने आ रहा है।
नीति और नियोजन के स्तर पर यह कितना खतरनाक पहलू हैं कि पर्यावरण संरक्षण के उपाय भी आगे जा कर खतरा बन सकते हैं, इस तथ्य पर कोई चिंतन नहीं किया गया है। जैसे, ग्रीन एनर्जी के लिए सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन सौर ऊर्जा पैनल के खराब या समय सीमा पूरी होने के बाद उनको कैसे नष्ट किया जाएगा इसपर नीतिगत कार्य नहीं हुआ है। जैसे, मोबाइल, लेपटॉप, सीएफएल जैसे उपकरणों के खराब होने/ टूटने के बाद खुले में फेंक दिया जाना। यानी, जिन्हें आज पर्यावरण अनुकूल माना जा रहा है वे ही कार्य कल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले साबित हो सकते हैं।
आज पूरी दुनिया में बढ़ते शहरीकरण के दोषों को समझ पर उनसे निपटने के उपायों पर जोर दिया जाने लगा है तब हमें भी अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक जिम्मेदारी को समझ कर कदम उठाने होंगे। बेहतर भविष्य के लिए आज पौधे लगाने और हरियाली बचाने जैसे दीर्घकालिक निवेश जितने जरूरी है उतना ही आवश्यक कुछ तात्कालिक उपायों को करना भी है। गांवों से शहरों की ओर पलायन केवल सामाजिक समस्या नहीं है बल्कि यह आर्थिक, प्रशासनिक और शासन स्तर की समस्या है। वैसे ही वनों का कम होना, प्रदूषण का बढ़ना, कचरे का ठीक से निपटारा नहीं होना, वाहनों का बढ़ना, शहरों का सही नियोजन नहीं होना जैसे कारण है जिसमें वृहत तौर पर शासन-प्रशासन की नीतियां दोषी हैं तो व्यक्तिगत स्तर पर समाज की जिम्मेदारी भी है। सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारी जनता पर और जनता द्वारा अपना दायित्व सरकार पर डालने की प्रवृत्ति पर अंकुश भी सुधार के कदमों का पहला चरण है। इन्हें समझे और इस दिशा में काम किए बगैर वैश्विक ओर स्थानीय पर्यावरणीय संकट से निपटना असंभव है।