या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता

जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है

Updated: Oct 18, 2020, 01:10 PM IST

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै 
नमस्तस्यै नमो नमः।।

जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है ।

न सती सा नासती सा,
नोभयात्म विरोधत:।
एतद्विलक्षणा काचिद्,
वस्तुसत्तास्ति सर्वदा।।

श्रीमद् देवी भागवत का संक्षेप में भगवती ने भगवान विष्णु के लिए उपदेश किया है।  ब्रह्मज्ञान द्वारा इसका बाध हो जाता है। इसलिये ब्रह्म की तरह वह नित्य सत् नहीं है, परन्तु उसी के कार्यभूत प्रपंच से समस्त व्यवहार बनता है, इसलिये ब्रह्म की तरह वह असत् भी नहीं और परस्पर विरोध होने के कारण दोनों की स्थिति असंभव है, अतः सदसद्‌ उभय स्वरूप भी नहीं है। अनिर्वचनीय वस्तुरूप मायाशक्ति मोक्षा पर्यन्त विद्यमान रहती है। जैसे पावक में उष्णता, सूर्य में किरण और चन्द्रमा में चन्द्रिका है, वैसे ही ब्रह्मात्मिका चिच्छक्तिरूपा भगवती में सहजसिद्धा माया शक्ति है।

सर्वं खल्विदमेवाहं
नान्यदस्ति सनातनम्

       
'समस्त जगत मैं ही हूँ। इस सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी मैं थीं। मैं ही इस सृष्टि का आदि स्रोत हूँ। मैं सनातन हूँ।

एक ही अचिंत्य, अनंत, वेदांत वेद्य,परम तत्व शिव पुराण और स्कन्द पुराण में शिव रूप में प्रकट होता है, रामायण के राम, विष्णु पुराण के विष्णु, एवं वही सूर्य शक्ति आदि के रूप में प्रकट होता है।श्री हिमालय के ऊपर कृपा करके करुणामयी, कल्याणमयी अम्बा ने ही अपने दिव्य स्वरूप का उपदेश किया है-

 अहमेवास पूर्वंतु
नान्यत्किंचिन्नगाधिप।

नगाधिप! हिमाचल! इस सम्पूर्ण सृष्टि में मैं ही सब-कुछ हूं। मेरा अखण्ड अनंत ब्राह्मरूप जिसका जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती हैं, जो तर्कों से परे है, अमूल्य  है। उसी सर्वाधिष्ठान,स्वप्रकाश परब्रह्म की एक स्वत:सिद्धा शक्ति है, वही माया के नाम से प्रख्यात है। जैसे मिट्टी में घटोत्पादिनी शक्ति होती है,अग्नि में दाहिका शक्ति होती है, वैसे ही ब्रह्म में अनंतकोटि ब्रह्माण्डोत्पादिनी शक्ति है। वही अखिल विश्व की जननी है। ईश्वर ही नाना भागों के आश्रय भूत विश्व का निर्माण करते हैं। भगवती ने कहा- मेरी माया शक्ति से ही समस्त चराचर विश्व बनता है, वह माया मुझसे भिन्न नहीं है। व्यवहार की दृष्टि से जो माया और अविद्या कहलाती है, वह परमार्थत: मुझसे पृथक् कुछ भी नहीं है।

व्यवहार दृशायेयं
विद्यामायेति विश्रुता।
तत्व दृष्ट्या तु नास्त्येव
तत्वमेवास्ति केवलम्।।

इन वाक्यों से यह सिद्ध होता है कि व्यावहारिक रूप से चले सब कुछ एक जैसा लगता हो। पर वास्तव में सब एक ही है। आज हम सब उस अखंड शक्ति मानकर उनके एक रूप को प्रणाम करते है।